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चुनाव और अल्पसंख्यक रााजनीति

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री डगलस नॉर्थ का कहना है कि किसी भी समाज के कारकरदगी (परफॉर्मेंस) की बुनियाद उसकी बनाई हुई औपचारिक तथा अनौपचारिक संस्थाओं पर निर्भर करती है

सोलहवीं लोकसभा का चुनाव कुछ मामलों में युगांतरकारी है। इस चुनाव ने जहां इस बात को सिद्ध कर दिया कि पैसा, मीडिया और मार्केटिंग का प्रभावी इस्तेमाल करके चुनावी जंग जीती जा सकती है वहीं इसने ‘मुस्लिम वोट बैंक’ के मिथक को भी ध्वस्त कर दिया है।

इस चुनाव में देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने मुसलमानों को रिझाने की भरपूर पैंतरेबाजी की क्योंकि उनका मानना था कि मुस्लिम संगठित होकर मतदान करते हैं इसलिए उनके सामने मजहब और अस्मिता आधारित मुद्दे ही रखे जाने चाहिए। चुनाव में पर्सनल लॉ, वक्फ सम्पत्तियों की सुरक्षा, उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्था का दर्जा दिलाना और मुस्लिम आरक्षण की बात प्रमुख रूप से थी। विकास संबंधी मुद्दे सिरे से गायब थे। राजनीतिक दलों का व्यवहार इस प्रकार का होता है मानो मुसलमानों का मुख्यधारा और विकास से कोई लेना-देना ही नहीं है। वहीं, मुस्लिम नेताओं का सारा ध्यान इस पर केन्द्रित रहता है कि किस प्रकार ऐसा वातावरण तैयार किया जाए कि स्वयं का महत्व और रक्षा के बंदोबस्त का जुगाड़ हो। राष्ट्र की मुख्यधारा में मुसलमानों को किस प्रकार की और कैसे भागीदारी हो, इस पर तनिक भी चिंता न मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को है और ना ही मुस्लिम नुमाइंदों को।

आमतौर पर भारत के परिप्रेक्ष्य में मुस्लिमों की बात करते हुए मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद स्तरीकरण को नजरंदाज कर दिया जाता है। मुसलमानों को एक एकाश्म समुदाय समझा जाता है। पूरा अल्पसंख्यक विमर्श इसी बुनियादी गलती का शिकार रहता है। हकीकत यह है कि ऐतिहासिक रूप से मुस्लिम भी कई हिस्सों में विभाजित हैं और इस वर्ग के भीतर अगड़े और पिछड़े मुस्लिम जैसी श्रेणियां हैं। अगड़े मुस्लिमों को अशराफ और दलित या पिछड़े मुस्लिमों को पसमांदा कहते हैं। मुस्लिम उतने ही स्तरीकृत हैं, जितने कि हिन्दू। प्रो इम्तियाज अहमद अपनी पुस्तक ‘कास्ट एंड सोशल स्ट्रेटिफिकेशन अमंग मुस्लिम्स इन इंडिया’ में कहते हैं कि मुसलमानों में जात-बिरादरी नामक स्तरीकृत सामाजिक संरचना मौजूद हैं जो ‘जाति’ की हमपपल्ला है। मुस्लिम समुदाय के इस स्तरीकरण को कभी इरादतन तो कभी गैर-इरादतन, नजरंदाज किया जाता है। हालांकि, सच्चर कमेटी ने मुस्लिम समाज के स्तरीकरण को भली-भांति समझा। सच्चर कमेटी रिपोर्ट का दसवां अध्याय, मुस्लिम वर्ग के जातिगत बंटवारे और भेदभाव का विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मुसलमानों की तीन श्रेणियां हैं – पहली, वे जिनमें कोई सामाजिक अयोग्यता नहीं है-अशराफ। दूसरी, वे जो हिन्दू ओबीसी के समतुल्य हैं-अजलाफ। तीसरी, वे जो हिन्दू एससी के समतुल्य हैं-अरजाल। जो मुस्लिम ओबीसी (पसमांदा) संबोधित किए जाते हैं, वे दूसरे और तीसरे समूह को मिलाकर हैं।

नेताओं के बीच ही नहीं बल्कि प्रबुद्ध वर्ग के भीतर भी मुसलमानों को एकाश्म समुदाय समझने की इस आम प्रवृत्ति का नतीजा यह है कि अल्पसंख्यकों के हितों के नाम पर बनने वाली नीतियां और योजनाओं के केंद्र में हमेशा अगड़ी जातियों के मुस्लिम रहते हैं। मुस्लिम समाज का बहुसंख्यक-दलित और पिछड़े मुस्लिमों का पसमांदा वर्ग-जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से पिछड़ा है और कुल जनसंख्या का 85 प्रतिशत होने के बावजूद, कोई प्रगति नहीं कर पाता। अक्सर मुस्लिम नेता और मौलाना सच्चर कमेटी का गलत तरीके से हवाला देकर इस बात को कहते देखे-सुने जा सकते हैं कि-सच्चर कमेटी ने बताया कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों की हालत दलितों से बदतर है।

सच्चर कमेटी ने इतना जरूर बताया कि, कुछ सूचकांकों के सदर्भ में मुसलमानों की स्थिति हिन्दू दलितों से खराब है। इसका कतई यह मतलब नहीं है कि सारे मुसलमान सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर दलितों से ज्यादा उत्पीडि़त और उपेक्षित हैं या उन्हें भी उसी प्रकार की सामाजिक पंगुता का सामना करना पड़ता है, जैसा कि दलितों को करना पड़ता है। सच्चाई इसके बरक्स है, हालत तो दलित व पिछड़े मुसलमानों की बदतर है। मिसाल के तौर पर, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) का 61वां चक्र बतलाता है कि मुस्लिम अशराफ आमदनी के लिहाज से न सिर्फ पसमांदा मुस्लिम (दलित-ओबीसी मुस्लिम) से आगे हैं बल्कि वे हिन्दू ओबीसी से भी आगे हैं। इन आंकड़ों के अनुसार, हिन्दू ओबीसी का प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 620 रुपए है और मुस्लिम ओबीसी का 605 रुपए है, जबकि मुस्लिम अगड़ी (सामान्य) जाति का 633 रुपये है। इस तरह, मुस्लिम अशराफ आमदनी के लिहाज से न सिर्फ पसमांदा मुस्लिम (मुस्लिम ओबीसी) से आगे हैं बल्कि वे हिन्दू ओबीसी से भी आगे हैं। एक ऊंची जाति के मुसलमान के लिए एक हलालखोर (मेहतर) उतना ही अछूत है, जितना एक उच्चवर्णीय हिन्दू के लिए एक हिन्दू भंगी।

भारत में अल्संख्यक राजनीति की शुरुआत वर्चस्ववादी हिंदू फासीवादी राजनीति के जवाब में अभिजनवादी-वर्चस्ववादी मुस्लिम राजनीति के रूप में हुई। पूरी मुस्लिम राजनीति अल्संख्यक-बहुसंख्यक, साम्प्रदायिकता-धर्मनिरपेक्षता और धरपकड़-सुरक्षा जैसे द्विचरों में सिमटकर रह गई। अभिजनवादी-वर्चस्ववादी मुस्लिम राजनीति में मुस्लिम समाज के लोकतांत्रिकरण के सवाल नदारद रहे हैं। राजनीति सहित समस्त संस्थाओं पर अशराफ-अभिजन का कब्जा रहा। अशफाक हुसैन अंसारी ने अपनी पुस्तक ‘बेसिक प्रॉब्लम्स ऑफ ओबीसी एंड दलित मुस्लिम्स’ में लोकसभा में पसमांदा मुसलमानों की भागीदारी का विश्लेषण किया है।

पहली से चौदहवीं लोकसभा तक चुने गए कुल सांसद7500
पहली से चौदहवीं लोकसभा तक चुने गए कुल मुस्लिम सांसद400
चुने गए कुल मुस्लिम सांसदों में अशराफ सांसद340 [4.5%]
चुने गए कुल मुस्लिम सांसदों में पसमांदा सांसद60 [0.8%]
भारत में मुसलमानों की आबादी का प्रतिशत (जनगणना 2011)

 
14.23%
भारत में अशराफिया मुसलमानों की आबादी का प्रतिशत (जोकि मुसलमानों की कुल आबादी का 15 प्रतिशत है)2.13%
भारत में पसमांदा मुसलमानों की आबादी का प्रतिशत (जो कि मुसलमानों की कुल आबादी का 85 प्रतिशत है)11.40%
स्रोत : अंसारी (2007); भारतीय निर्वाचन आयोग के आंकड़े, रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया

इस अध्ययन के अनुसार, अगर पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा की फेहरिस्त उठाकर देखें तो पाएंगे कि अब तक चुने गए 7,500 संसद सदस्यों में से 400 मुसलमान थे, इन 400 में 340 अशराफ और केवल 60 पसमांदा तबके से थे। अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 14.23 फीसद (जनगणना, 2011) है तो अशराफिया आबादी 2.13 फीसद (जो कि मुसलमान आबादी का 15 फीसद है) के आसपास होगी, जबकि लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.5 (340/7500) प्रतिशत है जो कि उनकी आबादी के अनुपात में दोगुने से भी ज्यादा है। वहीं, दूसरी तरफ, पसमांदा मुसलमानों की नुमाइंदगी, जिनकी आबादी 11.4 फीसद है, महज 0.8 फीसद है। भारत में आबादी के मुताबिक मुस्लिम सांसद कम से कम एक हजार होने चाहिए थे। इसलिए सिर्फ चार सौ सांसदों की मौजूदगी से लगता है कि मुसलमानों की भागीदारी मारी गई है, मगर आंकड़ों का ठीक से विश्लेषण करने पर हम देखेंगे कि अगड़े मुसलमानों (अशराफ) को तो उनकी आबादी के दोगुने से भी ज्यादा भागीदारी मिली है। असल में तो पिछड़े (पसमांदा) मुसलमानों की हिस्सेदारी मारी गई है।

16वीं लोकसभा के चुनाव में 21 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों से एक भी मुस्लिम प्रत्याशी ने जीत हासिल नहीं की। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार इतने कम मुस्लिम सांसद लोकसभा सदस्य न बन पाए हैं। इस चुनाव में कुल 23 सांसद ही जीतकर आ पाए हैं। इसके पहले, 1957 में सबसे कम मुस्लिम सांसद आए थे। उस साल भी सिर्फ 23 सांसद ही जीते थे। सबसे ज्यादा मुस्लिम सांसद 1990 में आए थे जब कुल 49 सदस्य जीते थे।

उत्तरप्रदेश सहित 27 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में से एक भी मुस्लिम उम्मीदवार लोकसभा में नहीं पहुंच सका। आजादी के बाद यह पहला आमचुनाव है जब लोकसभा में सर्वाधिक 80 सांसद भेजने वाले उत्तरप्रदेश से एक भी मुसलमान संसद में नहीं पहुंचा जबकि इस राज्य की कुल आबादी में इस समुदाय का हिस्सा 18 प्रतिशत है। इन आंकड़ों को देखकर ऐसा लगता है कि मुसलमानों की नुमाइंदगी कम हो रही है। लेकिन अगर इन आंकड़ों को अगड़े और पिछड़े मुसलमानों में पृथक करके देखें तो फिर वही तस्वीर दिखाई देती है-इन 23 सांसदों में से मात्र एक ही सांसद पसमांदा तबके से हैं बाकी सब अशराफ हैं। सच्चाई तो यह है कि नुमाइंदगी तो पिछड़े मुसलमानों की कम हो रही है जिनका पहले से ही प्रतिनिधित्व अत्यंत कम है।

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री डगलस नॉर्थ का कहना है कि किसी भी समाज के कारकरदगी (परफॉर्मेंस) की बुनियाद उसकी बनाई हुई औपचारिक तथा अनौपचारिक संस्थाओं पर निर्भर करती है। ये संस्थाएं आपस में अंत:विकसित भी होती हैं। आशय यह कि, विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, विधिक और राजनीतिक संस्थाएं एक दूसरे से और एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। मतलब साफ है-एक संस्था का लोकतांत्रिकरण दूसरी संस्था को लोकतान्त्रिक बनाएगा।

अब, जबकि सोलहवीं लोकसभा का गठन हो चुका है और ‘मुस्लिम वोट बैंक’ का मिथक पूरी तरह खारिज हो चुका है तो जरूरत इस बात की है कि मुस्लिम समाज का लोकतांत्रिकरण किया जाए और समुदाय की संस्थाओं में प्रत्येक तबके और जाति की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। साथ ही, दलित-पिछड़ा-पसमांदा-बहुजन को एकजुट किया जाए। अब मुस्लिम राजनीतिकों और पार्टियों को तय करना है कि वे राजनीतिक संस्थाओं में 18 करोड़ की मुस्लिम आबादी के प्रत्येक वर्ग की हिस्सेदारी चाहते हैं या सांप्रदायिक-अस्मितावादी मांगों के साथ बने-बनाए अभिजनवादी-वर्चस्ववादी ढर्रे पर कायम रहना चाहते हैं।

 

(फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

आतिफ रब्बानी

लेखक आतिफ़ रब्बानी भीमराव आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। स्वास्थ्य अर्थशास्त्र और विकास के अर्थशास्त्र में शोध के अलावा हिंदी-उर्दू साहित्य में भी दिलचस्पी रखते हैं।

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