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नई व्यवस्था को नई भाषा चाहिए

किसी भी व्यवस्था के जमने के लिए एक जरूरी शर्त यह है कि वह अपनी एक भाषा तैयार करे। जैसे, ब्राह्मणवाद ने अपनी एक भाषा तैयार की और वह समाज में हजारों वर्षों से चल रही है

17 अप्रैल, 1952 को पहली लोकसभा गठित हुई। 13 मई को इसकी पहली बैठक के साथ ही भारत में संसदीय लोकतंत्र की भाषा का विकास शुरू हुआ। विपक्ष ने कहा कि कांग्रेस महज 45 (44.99) फीसदी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करती है। जवाहरलाल नेहरु ने भी उसी भाषा में जवाब दिया-विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी (सोशलिस्ट) 10.5 और दूसरी सबसे बड़ी पार्टी (किसान मजदूर प्रजा) 5.8 फीसदी मतदाताओं का ही प्रतिनिधित्व करती है जबकि कांग्रेस को इन दोनों को प्राप्त कुल मतों के तीन गुने अधिक मत मिले हैं। इस तरह, संसदीय व्यवस्था में सत्ता पक्ष और विपक्ष की संवाद की एक भाषा तैयार कर ली गई। क्या यह सही भाषा थी? और क्या वास्तव में सत्ता और विपक्ष दोनों को देश में उतने प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन हासिल था?

किसी भी व्यवस्था के जमने के लिए एक जरूरी शर्त यह है कि वह अपनी एक भाषा तैयार करे। जैसे, ब्राह्मणवाद ने अपनी एक भाषा तैयार की और वह समाज में हजारों वर्षों से चल रही है। यहां उसके विस्तार में नहीं जाया जा सकता है, केवल उसकी पहचान करने की क्षमता विकसित की जा सकती है। इतना जोर देकर जरूर कहा जा सकता है कि कोई व्यवस्था अपने लिए इस तरह की भाषा तैयार करती है कि उसे उसके समर्थक और विरोधी दोनों ही इस्तेमाल करें। उस भाषा की खासियत यह होती है कि उसमें व्यवस्था का विरोध दबा रहता है। ब्राह्मणवाद विरोधी और ब्राह्मणवाद समर्थक, दोनों एक ही भाषा में संवाद करते हैं, जैसे संसदीय व्यवस्था में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों करते हैं।

मसलन, पहले आमचुनाव में वास्तव में कांग्रेस को 45 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन नहीं मिला था। उसे कुल मतदाताओं के केवल 23 प्रतिशत का समर्थन प्राप्त था। तब 17,32,13,635 मतदाताओं में 8,86,12,171 ने अपने मत का प्रयोग किया था। कांग्रेस को 8.8 करोड़ मतदाताओं में 44.99 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट किया। लेकिन कुल मतदाताओं में से उसे केवल 23 प्रतिशत का ही समर्थन मिला।

पहले आमचुनाव के बाद से अब तक वही भाषा चली आ रही है। 16वीं लोकसभा के लिए हुए मतदान के नतीजे इस तरह से पेश किए गए कि मानो नरेंद्र मोदी की पार्टी को जबरदस्त जनसमर्थन मिला है। उसे 31 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन मिला। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि भाजपा अपने बूते सरकार बनाने वाली पार्टियों में अब तक, सबसे कम प्रतिशत मत पाने वाली पार्टी है। लेकिन बहुमत हासिल करने की भाषा में ये ठोस तथ्य छुप जाते हैं।

संसदीय लोकतंत्र की सच्चाईयों को इस भाषा ने छुपा रखा है। संसदीय व्यवस्था में सरकार पूरी आबादी पर शासन करती है। दावा किया जाता है कि उसे बहुमत का समर्थन हासिल है। लेकिन वास्तव में होता क्या है, उसकी एक बानगी यहां देखी जा सकती है। पहली बात कि आबादी का एक निश्चित हिस्सा ही मतदाता होता है। जब मतदान के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष तय नहीं की गई थी, तब आबादी में मतदाताओं का प्रतिशत और कम था। मान लें कि 100 लोगों में से यदि सत्तर मतदाता होते हैं तो उनमें ज्यादा से ज्यादा साठ प्रतिशत मतदान करने जाते हैं। यानी कुल 42 लोग ही मतदान करते हैं। इन 42 लोगों में सबसे ज्यादा समर्थन हासिल होने का रिकार्ड 22 लोगों का समर्थन मिलने का है, जब 1977 में जनता पार्टी को 52.74 वोट मिले थे।

इस आधार पर हम यह आकलन कर सकते हैं कि 31 प्रतिशत मत, देश की आबादी का कितना प्रतिशत होगा। बहुमत की भाषा, जो संसदीय लोकतंत्र में बरती जाती है, उसकी वास्तविकता यह है कि शासन करने वाली सरकार बेहद अल्पमत में होती है। गैर बराबरी या विषमताओं के बढऩे के पीछे क्या अल्पमत का शासन नहीं है? आखिर संसदीय लोकतंत्र में किसी भी स्तर पर इस भाषा में संवाद क्यों नहीं होता कि पूरी आबादी के कितने कम समर्थन को हम बहुमत के रूप में स्थापित करते हैं।

यह एक उदाहरण है। संसदीय लोकतंत्र की भाषा का यही चरित्र हर स्तर पर अपना काम करता है। मैं यहां एक पुराना उदाहरण दोहरा रहा हूं। मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने कई मौकों पर कहा था कि देश को सबसे बड़ा खतरा नक्सलवाद/माओवाद से है। वे गृह मंत्रालय के आंकड़ों के आधार पर बताया करते थे कि नक्सलवाद देश के कितने राज्यों में फैला है। देश में उस समय 28 प्रदेश थे। प्रदेश के आधार पर नक्सलवाद के प्रभाव को 75 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से में फैलने का दावा किया जाता था। लेकिन नक्सलवाद से प्रभावित जिलों की संख्या 118 बताई जाती थी। देश में कुल जिलों की संख्या के आधार पर देखें तो उससे नतीजा निकलता है कि पच्चीस प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा नक्सलवाद के प्रभाव में है। लेकिन यही प्रतिशत जब गांवों की संख्या के आधार पर निकाला जाए तो वह बेहद कम हो जाएगा। देश में साढ़े छह लाख से ज्यादा गांव हैं और उसके आधार पर महज दो प्रतिशत गांवों तक ही नक्सलवाद का प्रभाव सीमित दिखता है।

एक ही स्थिति की वास्तविकता केवल भाषा के अंतर से बदल जाती है। गणित का फार्मूला बदलने से भाषा बदल जाती है। हालांकि ये दो उदाहरण काफी नहीं हैं लेकिन संसदीय लोकतंत्र और गैर-बराबरी पर टिकी मौजूद सत्ता, जिस तरह की भाषा के आधार पर चल रही है, उसे गौर से देखने, समझने और विश्लेषण करने का एक तरीका इनसे मिल सकता है।

संसदीय लोकतंत्र या ब्राह्मणवाद या किसी भी गैर-बराबरी पर आधारित व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उसकी भाषा को स्थापित करने का काम करता है मीडिया। मीडिया रोज-ब-रोज उन्हीं की भाषा को दोहराता है ताकि कोई नई भाषा अपनी जगह नहीं बना सके। समाज में गैर-बराबरी का दंश झेल रही आबादी को भाषा की चतुराई को समझने की कोशिश करनी होगी। अपने बीच संवाद के लिए अपनी भाषा बनानी होगी। मसलन, हर बार दोहराना होगा कि जो पार्टी सत्ता में है, उसे वास्तव में कुल आबादी के इतने कम लोगों का ही समर्थन हासिल है। सत्ता, भागीदारी बढ़ाने से लगातार बचने की कोशिश करती है। देश-समाज में राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक अंतर्विरोधों का बढऩा बहुमत की सरकार के अभाव के कारण है।

(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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