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अपने शब्दों पर ध्यान दें!

जिस तरह से गांधीजी वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे परंतु दलित अत्याचार के विरोधी थे उसी तरह अब भी यह देखने को मिलता है कि दलित अत्याचार का विरोध करने वाला दलितों पर अत्याचार करने वालों के साथ मिलकर आरक्षण का विरोध करता है

घिसे-पिटे शब्दों या वाक्यांशों को दोहराना और लोगों को उनकी सच्चाई में यकीन दिलाना किसी भी व्यवस्था को चलाने की नीति से जुड़ी एक प्रक्रिया होती है। परंतु किसी वाक्य व शब्द को दोहराने और उसे शाश्वत सत्य मानने से पहले यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि उस शब्द या वाक्य के बनने की क्या प्रक्रिया थी और उसका उद्देश्य क्या है। मसलन, महात्मा गांधी का एक आंदोलन था छुआछूत विरोधी आंदोलन। पहले हिन्दू शब्द का अर्थ होता था केवल सवर्ण जातियां। गांधीजी छुआछूत विरोधी आंदोलन के जरिए इस शब्द का अर्थ बदलना चाहते थे। छुआछूत विरोधी आंदोलन अछूतों के लिए नहीं था। वह तो हिन्दुओं का और हिन्दुओं के लिए था। गांधीजी की यह कोशिश थी कि अछूतों में यह भावना बढ़े कि वे हिन्दू हैं। इस आंदोलन का लक्ष्य हिन्दुओं को इस बात के लिए राजी करना था कि वे अछूतों को अपने साथ बैठने दें और मंदिरों में घुसने दें।

आंदोलन का असली उद्देश्य हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था से छुआछूत को मिटाना था। हिन्दुओं के लिए केवल अछूत जातियां ही नहीं बल्कि तमाम गैर-हिन्दू भी अछूत थे लेकिन गांधी जी छुआछूत की इस व्यवस्था को केवल अछूतों के लिए दूर करवाना चाहते थे इसीलिए इस आंदोलन को हरिजन आंदोलन का भी नाम दिया गया। संचार का यह सिद्धांत है कि एक मुख्य संदेश के समानांतर कई संदेश प्रचारित किए जाते हैं।

छुआछूत विरोधी आंदोलन के समय जो भाषा बनी अब उसे अंग्रेजी के शब्द इंक्लूसिव, समावेशी या अफरमेटिव एक्शन, सकारात्मक कदम के जरिए व्यक्त किया जाता है। इन दोनों शब्दों के अलग-अलग अर्थ हैं। पहले शब्द का अर्थ है कि जो शामिल नहीं हैं उन्हें शामिल करना, उसी तरह जैसे गांधीजी के आंदोलन का लक्ष्य अछूतों को उस वर्ग में शामिल करना था जिसे मंदिरों में प्रवेश का अधिकार था। अब उसी तरह आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था में वंचितों का समावेश करने की बात की जा रही है। अफ रमेटिव एक्शन शब्द का अर्थ भी भारतीय संदर्भ में गांधीजी की ही उपज है। इसका मतलब यह है कि जहां वंचित नहीं पहुंच सकते थे वहां उन्हें पहुंचाने के लिए पहल की जाए। यह पहल उन्हें करनी है जो वहां पहले से हैं। अछूतों की ओर से कोई पहल की बात यहां नहीं है।

शब्द महत्पूर्ण हैं

मजे की बात यह है कि जिस तरह से गांधीजी वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे परंतु दलित अत्याचार के विरोधी थे उसी तरह अब भी यह देखने को मिलता है कि दलित अत्याचार का विरोध करने वाला दलितों पर अत्याचार करने वालों के साथ मिलकर आरक्षण का विरोध करता है। शब्द में ही राजनीति छिपी होती है। समावेशी नीति कहें तो विरोध नहीं होगा लेकिन आरक्षण कहें तो तीखा विरोध होगा। गांधी जिस तरह से हिन्दुओं की आत्मा को दुरूस्त करना चाहते थे उसी का नाम आज समावेशी नीति है। आरक्षण शब्द वास्तव में विशेष अवसर शब्द की जगह प्रचारित किया गया है। यह शब्द उस व्यवस्था का विरोध के लिए तैयार किया गया है जिसने आरक्षण को कानूनी मान्यता दी है। विशेष अवसर का स्वर आरक्षण से ठीक उलट होता है। विशेष अवसर के कानून-सम्मत होने से एक दबाव की स्थिति का निर्माण होता है जो कि भावना को दुरूस्त करने की पहल से बिल्कुल उलट है।

शब्दों और वाक्यों के राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक आयामों पर हम उस दौर में चर्चा कर रहे हैं जब शब्दों को लेकर बेहद संवेदनहीनता देखी जा रही है। कहा जा रहा है कि पढऩे के लिए हल्की-फुल्की चीजें होनी चाहिए। गंभीर चीज कोई नहीं पढ़ता। पढऩे की आदत से दूर करने के लिए बातों को हल्के और गंभीर में बांट दिया जाता है। यह पढऩे के अभ्यास को छुड़वाकर घिसे-पिटे शब्दों को रट कर दोहराने की आदत डालने की प्रक्रिया होती है। इसीलिए आमतौर पर शब्दों व वाक्यों को यूं ही रटकर बोल दिया जाता है। जो बोलता है उसे भी यह समझ में नहीं आता कि वह अपने ही विरोध में बोल रहा है। यह तय है कि गांधी हिन्दुओं को उदार बनाना चाहते थे। अछूत तो उदार ही रहे हैं। उन्हें उदार बनाने की जरूरत ही नहीं थी।

इसी तरह इस समय लिबरेलाइजेशन का हिन्दी अनुवाद ‘उदारवाद’ किया जाता है। यह अनुवाद किसकी उदारता की बात कर रहा है और किसके प्रति उदारता की बात कर रहा है उदारता वंचितों के लिए नहीं है। यह उदारता उन लोगों के प्रति है जिनका पहले से वर्चस्व बना हुआ है। यह उदारता वंचितों के खिलाफ है। इसीलिए वंचितों के आर्थिक-सामाजिक और राजनीतिक हितों पर सबसे ज्यादा चोट उदारवाद के दौर में पहुंची है। फिर भी वंचित वर्गों के बहुतेरे प्रतिनिधि दोहराते रहते हैं कि उदारवाद के इस दौर का वंचितों को लाभ उठाना चाहिए।  वंचितों के प्रतिनिधियों की भाषा इसलिए बेजान होती चली गई है क्योंकि उन्होने रटना सिख लिया है। डॉ. आम्बेडकर ने अपनी एक भाषा तैयार की थी। गांधीजी जब छुआछूत विरोधी आंदोलन की भाषा तैयार कर रहे थे तब आम्बेडकर ने उसके समानांतर अपनी एक भाषा तैयार की। कबीर ने भी रटा नहीं। अपनी एक ऐसी भाषा तैयार की जो सैकड़ों वर्षों में भी खत्म नहीं की जा सकी। उदारवाद की भाषा में कहा जाता है कि इस समय एक वंचित भी गाड़ी खरीदकर ब्राह्मण को ड्राइवर रख सकता है। पूंजीपति बन सकता है। कबीर की भाषा में यह नहीं कहा जा सकता कि कोई दलित ब्राह्मण बन सकता है क्योंकि उस समय यह संभव ही नहीं था।

बहुजन की जिस परंपरा का संदर्भ देकर भाषण दिए जाते हैं लोगों के बीच बातचीत की जाती है, वह भी रटंत होती है जैसे बार-बार आम्बेडकर के इन शब्दों को दोहराना कि ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ छुआछूत विरोधी आंदोलन की भाषा को कम्प्यूटर की भाषा में दोहराया जाता है। यानी चेहरा बहुजन परंपरा का होता है और बाकी का शरीर अभिजन का।

 

(फारवर्ड प्रेस के सितम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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