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दलितों और मुसलमानों के बुरे दिन

क्या गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू करने का यही अर्थ है? गुजरात में दलितों और आदिवासियों का हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने मुसलमानों के खिलाफ सड़कों और चौराहों पर हिंसा करने के लिए इस्तेमाल किया था। क्या इस बार उत्तरप्रदेश के दलितों को हिन्दुओं का हथियार बनाया जाएगा, ठीक उसी तरह, जिस तरह कुछ साल पहले ओबीसी का इस्तेमाल, बजरंग दल द्वारा किया गया था

उत्तर प्रदेश इन दिनों बारूद के ढेर पर बैठा है। अक्टूबर में 12 विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होने वाले हैं। इनमें से 11 सीटें वे हैं जिन्हें भाजपा विधायकों ने लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद खाली किया है। इनमें से 5 सीटें-सहारनपुर नगर, बिजनौर, कैराना, ठाकुरवाड़ा और गौतमबुद्ध नगर-पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हैं जहां अब तक सांप्रदायिक हिंसा की सबसे अधिक 259 घटनाएं हो चुकी हैं।

भाजपा के लिए ये उपचुनाव बहुत महत्वपूर्ण हैं। ये चुनाव, मोदी सरकार की लोकप्रियता की कसौटी होंगे। इन परिणामों से यह पता चलेगा कि मोदी सरकार के पहले कुछ महीनों में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी है या घटी है। इन उपचुनावों के परिणामों से उत्तरप्रदेश में सन् 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम का कुछ अंदाजा भी लगेगा और इसका भी, कि मोदी सरकार की सन् 2019 में फिर से चुने जाने की कितनी संभावना है। इन चुनावों के इतने महत्वपूर्ण होने के बाद भी, भाजपा उत्तरप्रदेश में चुनावी सभाएं और रैलियां क्यों नहीं कर रही है?

ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तरप्रदेश की नई शहंशाह भाजपा को ऐसा लग रहा है कि उत्तरप्रदेश में गुजरात का मॉडल बेहतर काम करेगा। उत्तरप्रदेश में होने वाले चुनावों में जीत के लिए भाजपा ने एक समुदाय को दूसरे से लड़ाने की रणनीति अपनाने का निर्णय लिया है। इस मॉडल का ‘सफल’ परीक्षण मुजफ्फरनगर में सन् 2013 में किया जा चुका है। इस समय भाजपा की रणनीति, दलितों और मुसलमानों पर केंद्रित है। यही वे दो समुदाय हैं जिन्होंने एक समय बसपा सुप्रीमो मायावती को उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव जीतने में मदद की थी। चूंकि उनकी पार्टी इन उपचुनावों में अपने उम्मीदवार उतारने नहीं जा रही है, अत: दलित वोटों के लिए घमासान शुरू हो चुका है। ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा का गणित यह है कि अगर दलितों को यह विश्वास दिला दिया जाए कि उन्हें मुसलमानों से खतरा है तो वे हिन्दुत्व ब्रिगेड में शामिल हो जाएंगे।

आश्चर्य नहीं कि भाजपा की लोकसभा चुनाव में विजय के बाद से उत्तरप्रदेश में सांप्रदायिक तनाव और हिंसा की 609 घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें से 60 प्रतिशत से अधिक उन विधानसभा क्षेत्रों में या उनके आसपास हुई हैं जहां उपचुनाव होने वाले हैं।

मुरादाबाद जोन के पुलिस उपमहानिरीक्षक गुलाब सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, ‘हर छोटी-सी घटना, चाहे फिर वह एक हिन्दू और मुसलमान की गाडिय़ों की आपस में टक्कर ही क्यों न हो, के बाद भारी भीड़ इकट्ठा हो जाती है। कोई भी कुछ सुनने-समझने को तैयार ही नहीं है’।

सांप्रदायिक हिंसा की इन सभी घटनाओं की योजना बनाने और उन्हें अंजाम देने वाला दल एक ही है। इसका एक उदाहरण है जुलाई में मुरादाबाद में हुई घटना। रमजान के महीने के दौरान स्थानीय मुसलमानों की शिकायत पर पुलिस ने न्यायगांव, अकबरपुर गांव में स्थित दलितों के संत रविदास मंदिर में लगा एक लाउडस्पीकर उतरवा दिया। इसके कारण उत्पन्न तनाव को दूर करने के लिए स्थानीय दलित और मुस्लिम नेताओं ने आपस में बातचीत की और दोनों के बीच समझौता भी हो गया। भाजपा के मुरादाबाद से सांसद कुंवर सर्वेश कुमार ने भी इस समझौते पर, जो कि लिखित था, हस्ताक्षर किए। परंतु बाद में अपनी पार्टी के बड़े नेताओं के दबाव में आकर वे इस समझौते से पीछे हट गए और उन्होंने यह कहा कि 4 जुलाई को भाजपा की पहल पर होने वाली महापंचायत नहीं रोकी जाएगी। यह सब इसलिए किया गया क्योंकि इस इलाके से लगे ठाकुरवाड़ा और बिजनौर विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होने वाले हैं।

यह आश्चर्यजनक है कि उत्तरप्रदेश में उन स्थानों में भी सांप्रदायिक हिंसा हो रही है, जहां इसका कोई इतिहास नहीं है। आजमगढ़ जिले के सोलवार गांव में एक दलित व मुस्लिम परिवार के बीच खेत की मेड़ को लेकर हुए विवाद ने सांप्रदायिक रंग अख्तियार कर लिया और इसके कारण भड़की हिंसा में 8 व्यक्ति घायल हो गए। रमजान के दौरान मुसलमानों के नमाज पढऩे के स्थान के नजदीक संगीत बजाया जाना, एक मुस्लिम कब्रिस्तान के पास खुदाई में शिवलिंग निकलना, मीनार के आकार वाले एक गेट का निर्माण, मुसलमान और हिंदू लड़के-लड़कियों के बीच प्रेम आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनके कारण राज्य में सांप्रदायिक घटनाएं हुईं और हो रही हैं। इन घटनाओं में मरने वालों और घायल होने वालों की संख्या अधिक नहीं है। और यह भी शायद एक रणनीति के तहत किया जा रहा है ताकि केन्द्र व राज्य  सरकारें इन घटनाओं को नजरंदाज कर सकें। कुल मिलाकर, उद्देश्य यह है कि सांप्रदायिक तनाव तो बना रहे परंतु बड़े पैमाने पर हिंसा न हो। एक के बाद हो रही इन घटनाओं के पीछे कौन-सी राजनीतिक ताकते हैं यह जानना-समझना बहुत मुश्किल नहीं है। कोई भी यह देख सकता है कि सांप्रदायिकता के कारखाने का कर्ताधर्ता कौन है। जहां भी कोई ऐसी घटना होती है, जिसे कि सांप्रदायिक रंग दिया जा सकता है, भाजपा नेता वहां तुरत-फुरत पहुंच जाते हैं। वे सड़कों को जाम करते हैं, नारे लगवाते हैं और वह सब करते हैं जिससे तनाव को बढ़ाया जा सके। अक्सर बाहरी लोग सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उदाहरणार्थ, सहारनपुर के नजदीक कोठवाई नगर में 23 जुलाई को बाहर से लगभग 2,500 हिन्दू पहुंच गए और इसके दो दिन बाद, शहर में सिखों और मुसलमानों के बीच दंगे शुरू हो गए। ये सभी लोग सहारनपुर की बागेश्वर मंदिर समिति के अध्यक्ष विजय कुमार मित्तल द्वारा वाट्सएप पर भेजे गए एक संदेश को पढ़कर वहां पहुंचे थे। संदेश में कहा गया था ‘मित्रों, आज तो तुम्हारे मंदिरों से स्पीकर उतार रहे हैं, एक न हुए तो कल ये तुम्हारे घर में घुसकर तुम्हारी इज्जत उतारेंगे। इसलिए बोलता हूं, अपनी ताकत दिखा दो। तो सब मिलते हैं शाम 6 बजे, बागेश्वर मंदिर।’ जिन मुसलमानों ने मंदिर पर भीड़ इकट्ठा होते देखी, उन सभी का कहना था कि भीड़ में ‘यादातर लोग बाहरी थे और पुलिस भी इससे सहमत है। सहारनपुर के एक मुसलमान, जिसने अपना नाम नाजिर बताया, ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, ‘हमें कभी इस तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। पहले अगर लाउडस्पीकर बहुत तेज बज रहा होता था तो हम पुजारी जी से अनुरोध करते थे कि उसकी आवाज को थोड़ा कम कर दिया जाए और वे आसानी से हमारी बात मान लेते थे। परंतु इस रमजान में तो हमारे लिए नमाज अदा करना मुहाल हो गया’।

सहारनपुर के सिख-मुस्लिम दंगों की पुलिस जांच में यह सामने आया है कि इनमें दलितों की जबरदस्त हिस्सेदारी थी। आगजनी और हिंसा की घटनाओं में से आधी दलित और मुस्लिम इलाकों में हुईं। संपत्ति नष्ट करने के 70 प्रतिशत मामलों में दलित दंगाई शामिल थे। जिन गैर-मुसलमानों की शहर में हुई हिंसा के सिलसिले में गिरफ्तारी की गई, उनमें से केवल 2 प्रतिशत सिख थे, अन्य सभी दलित हिन्दू थे। सहारनपुर शहर के बाहरी हिस्से में स्थित कलासीलेन इलाके, जहां मुख्यत: मुसलमानों और दलितों की बस्तियां हैं, में एक शॉपिंग काम्पलेक्स में केवल तीन दुकानों में आग लगाई गई और ये तीनों दुकानें मुस्लिम दर्जियों की थीं। इस घटना के सिलसिले में जिन भी लोगों को पुलिस ने संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया है, वे सभी दलित हैं। प्रदेश में हुई कुल 605 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में से 68-अर्थात हर नौवीं घटना-में मुसलमान और दलित शामिल थे।

एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि धार्मिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया, जो 2014 के चुनाव के पहले शुरू हुई थी, को तब तक जारी रखा जाएगा जब तक कि भाजपा 2017 का चुनाव नहीं जीत लेती।

क्या गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू करने का यही अर्थ है? गुजरात में दलितों और आदिवासियों का हिन्दुत्ववादी शक्तियों ने मुसलमानों के खिलाफ सड़कों और चौराहों पर हिंसा करने के लिए इस्तेमाल किया था। क्या इस बार उत्तरप्रदेश के दलितों को हिन्दुओं का हथियार बनाया जाएगा, ठीक उसी तरह, जिस तरह कुछ साल पहले ओबीसी का इस्तेमाल, बजरंग दल द्वारा किया गया था। निश्चित तौर पर यह वह नहीं है, जिसे मोदी ने दलित-बहुजन का दशक बताया था।

 

(फारवर्ड प्रेस के सितम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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अनिल अल्पाह

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