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हिंदी भाषा की जाति

चाईं, चुतिया और चुहाड़ का अर्थ हिंदी में अत्यंत अपमानजनक होते हैं। चोर, उचक्का, जड़-बुद्धि आदि भावों से भरे इन शब्दों में गैर द्विजों के प्रति घृणाभाव साफ झलकता है

हिंदीभाषी क्षेत्र के अधिकांश गांवों के नाम आर्येत्तर मूल के हैं। इसलिए ऐसे गांवों के नाम का अर्थ जानने में कठिनाई होती है और ऐसा लगता है कि ये नाम निरर्थक हैं। पर सच यह है कि हिंदी क्षेत्र के प्राय: सभी गांवों को आर्येत्तर मूल के लोगों ने ही बसाया है तथा उनका नामकरण भी उन्हीं ने किया है। निग्रिटो, ऑस्ट्रिक, द्रविड़ आदि कई प्रजातियों का इन गांवों को बसाने में योगदान रहा है। हिंदी क्षेत्र के गांवों के नाम हैं : अरंग, करुप, पहलेजा, नोखा, कुदरा, परसा, पिथनी, डिभियां, कोचस, खुढऩूं, सिसिरित आदि। ऐसे नामों के अर्थ हिंदी अथवा संस्कृत के शब्दकोशों में प्राप्त नहीं होंगे। यदि आदिवासी मूल की भाषाओं का अध्ययन किया जाए तो इनके अर्थ मिल जाएंगे। दरअसल, जो भी सत्ता पर काबिज होता है, वह कुछ प्रमुख शहरों, मुहल्लों का नाम अपनी संस्कृति या धर्म के नाम पर रख देता है। हिन्दुओं के शासन में शिवसागर, शिवपुर, रामगढ़, लक्ष्मणपुर, लक्ष्मीनगर जैसे गांव व नगर हुए। मुसलमानों ने औरंगाबाद, जहानाबाद, फि रोजाबाद, रफीगंज जैसे नगरों को रचा-गढ़ा। अंग्रेजों ने भी डॉल्टनगंज, ममफोर्डगंज, फ्रेजर रोड जैसे नगर-मुहल्ले स्थापित किए। किंतु हिंदी क्षेत्र के असंख्य गांवों का नाम कोई सत्ताधारी नहीं बदल सका। कारण यह कि असंख्य गांवों के नाम परिवर्तित करना किसी भी शासक के लिए संभव नहीं था। अतएव हिंदी भाषी क्षेत्र के गांवों के नामों में आर्येत्तर अवशेष भारी पैमाने पर दिखाई पड़ते हैं।

आर्यमूलक हैं व्यक्तिवाची नाम

दूसरी ओर हिंदीभाषी क्षेत्र के व्यक्तिवाची नामों पर ध्यान केंद्रित करें तो पता चलेगा कि प्राय: व्यक्तिवाची नाम आर्यमूलक हैं और किसी न किसी देवी-देवता के नाम पर रखे गए हैं। हिंदीभाषी क्षेत्र में पुराने नाम प्राय: इस तरह रखे गए हैं : जगदीश सिंह, राम बचन सिंह, राम प्रसाद सिंह, लक्ष्मण सिंह, भोला सिंह, कामेश्वर प्रसाद गुप्ता, रामगुलाम महतो, जगन्नाथ राम, रामपति यादव, सत्यनारायण कहार, रामकृपाल साह आदि। देवी-देवता आधारित नाम बाद की पीढ़ी में भी जारी रहे : लक्ष्मीकांत वर्मा, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, महेन्द्र कुमार, सुरेन्द्र प्रताप, रविकांत, शिवप्रसन्न चौधरी, कमलकांत, कृष्णकुमार, मृत्युंजय, विश्वनाथ अवधेश सिन्हा आदि। कहना न होगा कि ये सभी नाम देवी-देवतामूलक हैं। निष्कर्ष यह कि हम और आप जिन गांवों में रहते हैं, उनके नाम गैर द्विजमूलक हैं पर गांवों के निवासियों के प्राय: नाम द्विजमूलक हैं। दोनों दो अलग संस्कृतियों के द्योतक हैं।

दलित भी ढो रहे हैं हिन्दू देवतामूलक नाम

हिंदी के प्राय: दलित रचनाकारों के नाम भी देवतामूलक हैं। ब्राह्मणवादी व्यवस्था के सभी विरोधी देवतामूलक नामों को आराम से ढो रहे हैं। उनके माता-पिता के नाम भी देवी-देवतामूलक हैं। हिंदीभाषी क्षेत्र के नामों में देवी-देवता ऐसे समाए हुए हैं कि उनको बाहर करना कठिन है। हिंदी के रचनाकारों के नाम भी देवी-देवतामूलक हैं। सिर्फ छायावाद के चार स्तंभों को बतौर उदाहरण लिया जाए तो पाएंगे कि जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी और महादेवी वर्मा के नाम देवी-देवतामूलक हैं। कोई शंकर भगवान के प्रसाद से जन्मा है तो कोई पौराणिक पात्र सुमित्रा का पुत्र है। कोई प्रकाश के देवता सूर्य का कांत है तो कोई महादेव का स्त्री रूप महादेवी है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था हिंदीभाषी क्षेत्र के रेशे-रेशे में समाई हुई है। जिन दिनों को हम रोज ऑफि स, स्कूल या गिनने, आने-जाने में प्रयोग करते हैं, वे सभी देवी-देवतामूलक हैं। कहने को तो ये ग्रहों के आधार पर हैं पर द्विजवादी व्यवस्था में सभी ग्रह किसी न किसी देवी-देवता के प्रतीक हैं। सोम देवता हैं, शनि देवता हैं, वृहस्पति देवता है। जिस पानी को हम पीते हैं, वे भी देवता हैं। उसमें वैदिक देवता वरुण वास करते हैं। जिस हवा में हम सांस लेते हैं, वे भी देवता हैं। उसमें पवन देवता निवास करते हैं। हिंदीभाषी क्षेत्र के रग-रग में ब्राह्मणवादी व्यवस्था घूंघट काढ़कर ऐसी समाई हुई है कि हमें पता भी नहीं चल पाता है।

हिंदी के समासों में प्राय: उदाहरण देवी-देवताओं के ही दिए जाते हैं, यथा-गोपाल, गौरीशंकर, नीलकंठ, गंगाजल, चक्रपाणि, चतुरानन, चंद्रशेखर, नीलांबर, पीतांबर, राधाकृष्ण, लंबोदर आदि। संधि प्रकरण भी अछूता नहीं है, यथा-अधीश्वर, ईश्वरे’छा, कपीश, कुसुमायुध, जगन्नाथ, देवेन्द्र, देवालय, ब्रह्मानंद, शंखनाद, भगवद्भक्ति, मन्वंतर, महर्षि, महेश आदि। यदि पर्यायवाची शब्दों की ओर ध्यान करें तो पाएंगे कि हिंदी में देवी-देवताओं के पर्यायवाची शब्द अधिक हैं। अरविंद कुमार के शब्द-संकलन में कुछ आश्चर्यजनक तथ्य हैं। शिव और रुद्र के संयुक्त रूप से 3411 नाम हैं, उनके बाद विष्णु के 1676, स्कंद के 161 और गणेश के 141 नाम हैं। पार्वती, दुर्गा और काली के 900 नाम हैं तथा लक्ष्मी के 191, सरस्वती के 108, सीता के 65 और राधा के 31 नाम हैं। हिंदी और संस्कृत की शब्द-संपदा पर देवी-देवताओं का वर्चस्व है। इसीलिए उसकी शब्दावली इनके पर्यायवाचियों से लदी पड़ी है। ऐसा अरबी में नहीं है। अरबी में, विशेषकर उसकी प्राचीन बोलियों में ऊंट तथा उससे संबंधित अन्य शब्दों की संख्या 5744 है। निष्कर्ष यह कि हिंदी भाषा की संरचना में, उसकी शब्द-संपदा में और उसके मुहावरों तथा कहावतों में ब्राह्मणवादी व्यवस्था रची-बसी है। गंगा लाभ होना, तिलांजलि देना, श्रीगणेश करना, छठी का दूध याद आना, यमपुर पहुंचना, शंखनाद करना, मीन-मेख निकालना आदि हिंदी के अनेक मुहावरे ब्राह्मणवाद की कोख से जनमे हैं। इनका भाव हमें तब पता चलेगा, जब उसकी पूरी व्यवस्था से हम वाकिफ होंगे।

गैर-द्विजों को संबोधित अपमानजनक शब्दावली

जैसा कि हम कह आए हैं कि हिंदी के शब्दकोषों में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के अनेक शब्द और शब्दावलियां हैं। स्वाभाविक है कि ऐसे शब्दों और शब्दावलियों में गैर द्विज के प्रति घृणाभाव वाले शब्द भी होंगे। चाईं, चुतिया और चुहाड़ के अर्थ हिंदी में अत्यंत अपमानजनक होते हैं। चोर, उचक्का, जड़-बुद्धि आदि भावों से भरे इन शब्दों में गैर द्विजों के प्रति घृणाभाव साफ झलकता है। ‘चाईं’ एक जाति है। नेपाल में इनकी संख्या ज्यादा है। ऐसे पटना में भी एक ‘चाईं टोला’ है। झारखंड में तो ‘चाईबासा’ एक नगर ही है। पर हिंदी में ‘चाईं’ का अर्थ ‘उचक्का’ होता है। ‘चुहाड़’ झारखंड के आदिवासी हैं तथा ‘चुतिया’ असम के आदिवासी हैं। जाति को लेकर हिंदी शब्दकोष में उनके प्रति अपमान का भाव या अर्थ द्विजवादी व्यवस्था के कारण आया है। ‘चोरी-चमारी’ हिंदी का युग्म शब्द है, मानो चोरी सिर्फ चमार जाति के लोग ही किया करते हैं। बुड़बक जाति है, जिनके अर्थ अपमानजनक हैं। कुछ तो स्थूल हैं और कुछ सूक्ष्म भी हैं। सूक्ष्म शब्दों में एक ‘कुत्सित’ है। इतिहास गवाह है कि ‘कुत्स’ वेद विरोधी थे। कौत्स की वेद-विरोधी विचारधारा को वेदवादियों ने ‘कुत्सित विचारधारा’ कहकर खारिज किया है। आज हम ‘कुत्स’ का अर्थ निंदा या बुराई लेते हैं। हिंदी शब्दकोष में ‘कुत्सित’ का अर्थ अधम या नीच है। ऐसे शब्द गैर द्विजवादी व्यवस्था के सिद्धांतकार कौत्स और उनके पिता कुत्स को गलियाते हैं।

द्विजवादी है त्रयी की अवधारणा

द्विजवादी व्यवस्था में ‘तीन’ एक तिलस्मी संख्या है। संस्कृत में तीन वचन होते हैं, तीन पुरुष होते हैं, तीन लिंग होते हैं तथा तीन काल होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीन देवता हैं। तीन लोक हैं। सत्व, रज और तम तीन गुण हैं। तीन अवस्थाएं हैं- बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था। तीन ऋ तुएं हैं-वर्षा, जाड़ा और गर्मी। धन की तीन गतियां हैं-भोग, दान और नाश। दिन के तीन भाग हैं-सुबह, दोपहर और सांझ। हिंदी साहित्य में तीन काल हैं-आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल। हिंदी साहित्य में ‘त्रयी’ निर्माण की परंपरा है-छायावाद की त्रयी-प्रसाद, पंत और निराला। नई कहानी की त्रयी-मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव। तीन की अवधारणा द्विजवादी है। लेकिन लोक में तीन अशुभ है। तीन टिकट, महाविपत्त। ग्रामीण अंचल की महिलाएं तीन रोटी खाने को नहीं देती हैं। यदि देती हैं तो एक को खंडित कर देती हैं। लोक में न तो तीन-तेरह होना अ’छा है और न तीन-पांच करना अ’छा है। यही अशुभ भाव ‘ढाक के तीन पात’ में है। लोक मानस में जो तीन का विरोध है, वह एक प्रकार से द्विजवादी व्यवस्था का प्रतिकार है। भोजपुरी में ऐसी अनेक कहावतें हैं जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के प्रतिकार में रची गई हैं। एक कहावत है-घरी भर में घर जरे, नौ घरी भद्रा। तात्पर्य यह है कि मेरा घर तो घड़ी भर में ही जल जाएगा। इसे पानी से बुझाना है। मुझे ‘पत्रा’ दिखाने का मौका नहीं है। कारण कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था कह उठेगी कि अभी नौ घड़ी भद्रा (अशुभ) है। फि र तो मेरा घर जल जाएगा। जाहिर है कि ऐसी अनेक कहावतें लोक बोलियों में मौजूद हैं जो द्विजवादी व्यवस्था के विरोध में रची गई हैं। दलित विमर्श का आरंभ युगों पहले लोकमानस कर चुका है। हिंदी में दो लिंग और दो वचन का होना एक प्रकार से द्विजवादी व्यवस्था की संख्या तीन के तिलिस्म का टूटना है। हिंदी में पुरुष अभी तीन ही हैं। मध्यमपुरुष में तीन प्रकार के पुरुष हैं : एक तू, दूसरा तुम और तीसरा आप। कहना न होगा कि ‘आप’ ब्राह्मण-क्षत्रियों के लिए है, ‘तुम’ वैश्यों के लिए है और ‘तू’ शूद्रों के लिए सुरक्षित हैं। हिंदी समाज बोलने में स्तर-भेद करता है। हिंदीभाषी क्षेत्र में तीन प्रकार के लोग रहते हैं-एक तू, दूसरा तुम और तीसरा आप। ऐसा आदिवासी समाज में नहीं है। वहां समाज समतामूलक है। इसलिए वहां किसी आदरसूचक सर्वनाम की परिकल्पना भी नहीं है। इस सामाजिक स्तर-भेद की चपेट में हिंदी का पूरा भाषा-संस्थान है। क्रियाएं भी अछूती नहीं हैं। कहीं आप जा रहे हैं तो कहीं तुम जा रहे हो। फ र कहीं इससे भी बदतर स्थिति है कि तू जा रहा है। हिंदी के संबोधन भी स्तर-भेद से प्रभावित हैं। किसी को ‘अजी’ तो किसी को ‘अहो’ कहने का संबोधन हिंदी में है। वह क्या सोचता होगा जिसके लिए संबोधन ‘अरे’ है।

किसी को गंदी चीजों के ढेर पर फेंककर उसका ‘फेंकू’ या ‘फेंकन’ कर दिया जाता है तो किसी को घूर (कूड़ा) पर फेंककर उसका नाम ‘घुरहू’ अथवा ‘घूरफेंकन’ कर दिया जाता है। बच्चों को तरह-तरह से जीवित रखने के लिए उपक्रम किया जाता है। यदि दूसरों के हाथों बेच दिया गया तो उसका नाम ‘बेचू’ अथवा ‘बेचन’ रख दिया गया और यदि उसे तौल दिया गया तो उसका नाम ‘जोखू’ अथवा ‘जोखन’ रख दिया गया। यदि बच्चा डोम के हाथों बेचा गया तो उसका नाम ‘डोमा’ अथवा ‘डोमन’ रख दिया जाता था। कहना न होगा कि ऐसे नामकरण सिर्फ दलित-पिछड़ों के लिए आधारित रहा है। परंपराएं अब टूट रही हैं। चेतना जग रही है। डोम-चमार गाली नहीं रहेगा। साहित्य जाग चुका है। समाज जाग चुका है। भाषा विज्ञान को भी जागना होगा। हिंदी के अस्मितामूलक भाषाविज्ञान को इस मामले में पहल करनी होगी।

 

(फारवर्ड प्रेस के सितम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

राजेन्द्र प्रसाद सिंह

डॉ. राजेन्द्रप्रसाद सिंह ख्यात भाषावैज्ञानिक एवं आलोचक हैं। वे हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार एवं सबाल्टर्न अध्ययन के प्रणेता भी हैं। संप्रति वे सासाराम के एसपी जैन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं

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