h n

भोजपुरी श्रम गीत

यह साफ़ है कि द्विज संस्कृति की परजीविता के विपरीत श्रम और उत्पादन श्रमण संस्कृति के जीवन मूल्य रहे हैं

बहुजन संस्कृति को श्रमण संस्कृति या अर्जक संस्कृति का नाम दिया जाता है। भारत के लगभग सभी हिस्सों में इस श्रमण संस्कृति का सौंदर्य उन श्रमगीतों में दिखता है, जिन्हें बहुजन समाज की विभिन्न जातियां पारंपरिक रूप से गाती आ रही हैं। इन गीतों को इन्होंने श्रम से उपजी थकान को मिटाने या विस्मृत करने के लिए इजाद किया होगा।

भोजपुरी क्षेत्र में प्रचलित कुछ प्रमुख जातीय और श्रम गीतों का परिचय यहां दिया जा रहा है।

अहीरों के प्रमुख गीत

भोजपुरी क्षेत्र में निवास करने वाली अहीर अर्थात् यादव जाति में कई प्रकार के गीत, नृत्य और गाथाएं प्रचलित हैं। बिरहा, फ रूवाही (अहिरऊ नाच), लोरिकाइन या चनैनी आदि इनके गीत-नृत्य और गाथाएं हैं, जिन्हें आज भी भोजपुरी इलाके में देखा-सुना जा सकता है।

बिरहा : ‘बिरहा’ का नामकरण उसकी विषयवस्तु ‘बिरह’ के कारण पड़ा होगा। पारंपरिक रूप से यह चरवाही के समय गाया जाता है। चरवाहे जब एक कान में अपनी उंगली डाल कर स्वर की लंबी तान लेते हैं तो जैसे पूरे समाज का दर्द फू ट पड़ता है। एक बिरहा में एक बूढ़ी स्त्री नवयुवतियों को उपदेश देते हुए कहती है-‘पिसना के परिकल मुसरिया तुसरिया, दूधवा के परिकल बिलार। आपन जोबनवा संभरिहे ए बिटियवा, रहरी में लागल बा हुॅंड़ार।’ यानी, ‘जिस प्रकार घर में रखे आटा को चूहा-चुहियों से और दूध को बिल्ली से संभालकर रखा जाता है, उसी प्रकार तुम अपने यौवन को संभालकर रखो क्योंकि दुष्ट लोग भेडिय़े की भांति तुम्हारे यौवन के लिए घात लगाए हैं।’

वर्तमान में विभिन्न घटनाओं पर आधारित गाथात्मक बिरहा का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। गाजीपुर, आजमगढ़ और बनारस के ग्रामीण इलाके बिरहा के प्रमुख केन्द्र हैं।

फरुवाही गीत : यादव जाति से जुड़ा मुख्यत: करतब (खेला) गान है। इसके गवैया गाने के साथ साथ विभिन्न प्रकार के करतब दिखाते रहते हैं। यह ‘करतब’अहीर जाति की पहलवानी से जुड़ा हुआ है। यह मुख्यत: वीर रस प्रधान गीत है। इसमें लगभग 10 लोगों का समूह होता है। कुछ लोग वाद्य यंत्र नागारा, करतार एवं लोहे से बना फ ार बजाते हैं। बीच के बड़े घेरे में कई फ रुवाह गाना गाते व नृत्य करते हुए बीच-बीच में करतब दिखाते हैं।

लोरिकायन : यह यादवों का पारंपरिक कथात्मक गीत है। इसके तीन नाम प्रचलित हैं। मैथिली और मगही क्षेत्र में प्राय: इसे लोरिकायन कहते हैं। भोजपुरी क्षेत्र में लोरिकी और लोरिकायन तथा अवधी क्षेत्र में इसे चनैनी कहते हैं। यह गाथा यादव नायक लोरिक और चंदा के प्रेम प्रसंग पर आधारित है।

धोबियऊ गीत : कपड़ा साफ करने वाली जाति धोबी जिस गीत को गाती है उसे धोबियऊ गीत कहते हैं। एक गीत में धोबी अपनी पत्नी से कह रहा है कि कल घाट (नदी के किनारे का वह स्थान जहां धोबी कपड़ा धोता है) पर चलना है। अत: खाने के लिए मोटी लिट्टी (रोटी का ही मोटा रूप) बना लेना और साथ में टिकिया, तंबाकू और थोड़ी सी आग लेना मत भूलना। यह गीत इस प्रकार है – ‘मोटि मोटी लिटिया लगैहे धोबिनियां कि बिहिने चले के बा घाट। तीनहिं चीजें मत भूलिहै धोबिनियां कि टिकिया, तमाकू, थोड़ा आग।’

धोबी जाति के लोग अपने उत्सवों में समूह में नाचते और गाते हैं। इस गाने में ‘हुडका’ नामक बाजा बजाते हैं इसलिए कुछ लोग इसे ‘हुडका’ नाच भी कहते हैं।

कहरूवा : कहार डोली या पालकी ढोने के पेशे से जुड़ी जाति है। इनके गाने को ‘कहरूवा’ कहते हैं। पति के घर जा रही नव-व्याहता दुल्हन की गमक से सराबोर होता हुआ कहार रास्ते में भार को हल्का करने और अपनी थकान को मिटाने के लिए श्रृंगार रस का मधुर गीत टेरता है – ‘बुढ़वा कंहरवा के आई बुढ़इया तौ फेके तलौने में जाल।’ यानी, बूढ़े कहार को बुढ़ापा आ गया है परंतु अभी भी वह पोखर में मछली पकडऩे के लिए जाल डालता है।

तेलियों का गीत : तेली जाति पारंपरिक रूप से तेल पेरती है। पहले बैल से चलने वाले मशीन से तेल निकाला जाता था, जिसे ‘कोल्हू’ कहा जाता है। तेली बैलों के आंखों पर पट्टी बांधकर आधी रात से ही कोल्हू शुरू कर देता था। रात में अकेले बैलों के पीछे घूमते हुए वे बहुत ही मर्मभेदी गीत गाते थे। इन गीतों में श्रृंगार रस के साथ-साथ इनके कार्य का भी उल्लेख है। एक गाने में तेलिन के ‘घानी’ गाने और तेली के तेल पेरने का उल्लेख है – ‘कौनी की जुनिया तेलिन घनिया अरे लगावे। अरे कौनी जुनिया ना। कोइलरि सबद सुनावै कि कौनी जुनिया ना। आधी की रतिया तेलिनि घनिया लगावै, कि पिछली रतिया ना। कोइलरि सबद सुनावै कि पिछली रतिया ना। अर्थात् – ‘ए’ तेलिन तुमने किस समय ‘घानी’ लगाई और किस समय कोयल की कूक सुनाई पड़ी। आधी रात में ही तेलिन ने घानी लगाई और पिछली रात ही कोयल अपना कूक सुनाई पड़ी।’

गोंड़ों के गीत : गोंड जाति का कार्य मुख्यत: पानी भरना, लकड़ी चीरना है। इनकी स्त्रियां भाड़ झोककर अन्न भूजने का कार्य करती हैं। ये लोग विभिन्न अवसरों पर नृत्य भी करते हैं जिन्हें ‘गोड़ऊ नाच’ कहा जाता है। यह लोक नृत्य का उत्कृष्ट नमूना है। एक गीत में गोडिऩ कहती है कि पिया के रूप धर करके चोर आया और मेरा कंगन चोरी कर के ले गया : ‘खुर खुर खुर खुर टाटी बोले, हम जानि पियवा मोर। पियवा के भेसे अइले, कंगना ले गइले चोर।’

जतसार : कुछ दशक पहले तक गांवों में गेहूं ‘हाथ चक्की’ से ही पीसा जाता था जिसे ‘जांता कहते हैं। जांता पीसते वक्त महिलाएं इन गानों को गाती हैं इसी कारण इन गीतों को जंतसार कहा जाता है। एक ‘जंतसार गीत’ में ‘जांता’ चला रही एक महिला कहती है : ‘ए राम हरि मोरे गइले बिदेसवा, सकल दु:खवा देइ गइले हो राम। ए सासु, ननदिया बिरही बोलेली, केकर कमइया खइबू हो राम।’ अर्थात मेरा पति किसी दूसरे शहर में चला गया है। इसके कारण मेरी सास और ननद कहती है कि मैं किसकी कमाई खाऊंगी। ज्ञातव्य है कि लोक कलाकार भिखारी ठाकुर ने अपने नाटक ‘बिदेसिया’ में ‘जंतसार’ के गीतों का व्यापक प्रयोग किया है।

रोपनी-सोहनी के गीत : यह मुख्यत: खेत-मजदूर स्त्रियों का गीत है। इसे महिलाएं खेत में रोपनी-सोहनी करते समय सामूहिक रूप में गाती है। इन गानों में पारिवारिक नोंक-झोंक का बड़ा सुरूचिपूर्ण चित्रण होता है। इन गीतों में अपने प्रिय से बिछुडऩे की पीड़ा देखिए – ‘ननदी झगरवा कइली, पिया परदेश गइले। किया हो रामा, भउजी रोवेली छतिया फाटे हो राम।’ यानी, ननद झगड़ा कर रही है। पति परदेश चला गया है और ऐसी स्थिति में उसकी भौजी रो रही है। नायिका ऐसी प्रतिकूल स्थितियों में बेचैन है।

इन गीतों से गुजरते हुए हम देखते हैं कि इनमें श्रम के विभिन्न रूपों के चित्रण के साथ-साथ बहुजन जातियों के प्रकृति से सहचर्य को भी रेखांकित किया गया है। भोजपुरी क्षेत्र से बड़े पैमाने पर हुए श्रम-प्रवसन की पीड़ा भी इन गीतों, विशेषकर महिलाओं द्वारा गये जाने वाले गीतों में, बड़े मार्मिक ढ़ंग से अभिव्यक्त हुई है। दरअसल, इन गीतों का अगर सुनियोजित अध्ययन हो तो यह साफ होते देर न लगेगी कि द्विज संस्कृति की परजीविता के विपरीत श्रम और उत्पादन श्रमण संस्कृति के जीवन मूल्य रहे हैं।

(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2014 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

 

लेखक के बारे में

जितेंद्र कुमार यादव

संबंधित आलेख

केवल भारत में ही नहीं, दक्षिण एशिया में जातिगत जनगणना की दरकार
यह बात केवल भारत के बारे में ही आवश्यक नहीं है, बल्कि यह दक्षिण एशिया के एक बड़े हिस्से में भी अनिवार्य रूप से...
उत्तर प्रदेश में बसपा : राजनीतिक फलक पर दलित प्रतिनिधित्व की वैचारिक भूमि (चौथा भाग) 
बहुजन से सर्वजन की राजनीति में मुस्लिम समुदाय मायावती के साथ आ तो रहा था, लेकिन मायावती का भाजपा के साथ संबंध ऐसा था...
Shouldn’t the courts lead the way in shaking off patriarchal mindset?
Instead of perpetuating and fueling the patriarchal mindset prevalent in society, the judiciary should mindfully assume greater responsibility for bringing about structural progressive changes...
Christmas signifies hope, love, peace and joy in uncertain times
Like the shepherds, I understand the significance of that birth over two thousand years ago when God entered this world, in the flesh. He...
SAD-BSP alliance in Punjab: Farm-laws wound is too raw and Dalit disaffection too deep
The SAD is reeling from the Jat-Sikh anger against the new farm laws and, despite a third of Punjab’s population being Dalit, it has...