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ब्राहम्णवादी प्रभुओं पर चोट दलितबहुजन विभूतियों का निर्माण

राधाकृष्णन, जो कि एक ब्राह्मण थे, के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में नहीं मनाया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने नीची जातियों और वर्गों के भारत के बहुसंख्यक लोगों के शैक्षणिक उन्नयन के लिए कुछ नहीं किया

सन् 1962 से, भारत के स्कूल व अन्य शैक्षणिक संस्थायें, 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाती चली आ रही हैं। 5 सितंबर, स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति व दूसरे राष्ट्रपति डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1888-1975) का जन्मदिन है। पिछले कुछ वर्षों से, दलितों के एक तबके – जिसमें मुख्यत: कुछ विश्वविद्यालयों के छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता व बुद्धिजीवी शामिल हैं – ने 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाये जाने का विरोध प्रारंभ कर दिया है। उनका कहना है कि राधाकृष्णन, जो कि एक ब्राह्मण थे, के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में नहीं मनाया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने नीची जातियों और वर्गों के भारत के बहुसंख्यक लोगों के शैक्षणिक उन्नयन के लिए कुछ नहीं किया। वे चाहते हैं कि राष्ट्रीय शिक्षक दिवस, 3 जनवरी को मनाया जाए जो कि 19वीं सदी की समाज सुधारक व शिक्षिका सावित्रीबाई फुले (1831-97) का जन्मदिन है।

शिक्षाविद के रूप में सावित्रीबाई फुले

सावित्रीबाई के जीवनी लेखक एम.जी. माली (क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले, 2005) के अनुसार, सावित्रीबाई फुले को उनके युवा पति जोतिबा ने आम के पेड़ की छांव में चलने वाले एक स्कूल में शिक्षा दी। शिक्षित हो जाने के कारण उन्हें दुनिया में चल रहे समतावादी आंदोलनों की जानकारी मिल सकी। उन्होंने थॉमस क्लार्कसन (1760-1846) की जीवनी पढ़ी, जिन्होंने अश्वेत अमरीकियों को मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष किया था। आगे चलकर, जब उन्होंने पढ़ाना शुरू किया तो इसका प्रतिक्रियावादी ब्राह्मणों ने जबरदस्त विरोध किया। उन पर पत्थर और गोबर फेंके गये और यह सब किया गया ‘धर्मरक्षा के नाम पर’। जब ब्राह्मण अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी युवा फुले दंपत्ति को उनकी राह से विचलित नहीं कर सके तो उन्होंने सावित्रीबाई के ससुर गोविंद राव को इतना भड़काया कि उन्होंने फुले दंपत्ति को अपने घर से निकाल दिया। परंतु सावित्रीबाई और उनके पति ने सभी को शिक्षा उपलब्ध करवाने के अपने मिशन को त्यागने की बजाय, वह घर त्यागना बेहतर समझा।

विरोध के बावजूद वे अभिभावकों को इस बाबत प्रेरित करने के अपने अभियान में जुटे रहे कि उन्हें लड़कियों को फुले दंपत्ति द्वारा संचालित स्कूलों में पढऩे भेजना चाहिये। उनकी कठिन मेहनत के चलते, सन् 1848 से 1852 के बीच 18 स्कूलों की स्थापना हुई। शिक्षा के प्रसार और विशेषकर दलित-बहुजनों को शिक्षित करने के अभियान के प्रति सावित्रीबाई की प्रतिबद्धता का भान उनकी कविता की इन चंद पंक्तियों से होता है, ‘ज्ञान के बिना सब खो जाता है…विवेक के बिना हम पशु बन जाते हैं…इसलिये सीखो और जाति की जंजीरें तोड़ दो…ब्राह्मणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो’।

सावित्रीबाई फुले

जेएनयू, एचसीयू में दलित बहुजनों ने उठाई आवाज

यद्यपि यह दावा किया जाता है कि उग्र दलित पैंथर्स, सन् 1970 के दशक से ही सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते रहे हैं परंतु इस अभियान ने पिछले कुछ वर्षों में ही गति पकड़ी है। विश्वविद्यालयों में इस अभियान का जोर ज्यादा है। इस लेख में हम भारत के दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) व हैदराबाद सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी (एचसीयू) में दलित-बहुजन राजनीति के ऊँचे होते स्वरों की चर्चा करेंगे।

एचसीयू में ‘बहुजन स्टूडेंट्स फ्रंट’ (बीएसएफ) नामक एक दलित संगठन, सन् 2007 में विश्वविद्यालय की स्थापना के समय से ही सक्रिय है। यह संगठन पिछले कुछ वर्षों से सावित्रीबाई फु ले के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाता आया है। सन् 2013 में जारी अपने एक पर्चे में बीएसएफ ने इसका औचित्य बताते हुये लिखा कि ‘बर्बर ब्राह्मणवादी शासन में बहुजन समाज को शिक्षित नहीं होने दिया जाता था। इसके बाद भी सावित्रीबाई फु ले ने मूल निवासियों के बीच ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिये अथक प्रयास किये। उन्होंने शिक्षा का इस्तेमाल, मुक्ति के हथियार के रूप में किया।’

दलित विचारधारा, ब्राह्मणवाद को दलितों की मुक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा और शिक्षा को उनकी मुक्ति का सबसे प्रभावकारी तरीका मानती है। वह एक ब्राह्मण के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाये जाने की विरोधी है क्योंकि ऐसा आरोपित है कि तुलनात्मक धर्मशास्त्र के अध्येता के तौर पर डाक्टर राधाकृष्णन, हिंदू धर्म/ब्राह्मणवाद के तरफ दार थे।

इसी तरह, एचसीयू के एक छात्र एस. स्वरूप सिरापंगी, जो अपनी दलित-बहुजन विचारधारा के लिये जाने जाते हैं, ने सन् 2012 में अपने ब्लॉग पर लिखा कि शिक्षा के क्षेत्र में राधाकृष्णन की तुलना में सावित्रीबाई फु ले का योगदान कहीं अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वे 19वीं सदी के मध्य में महिलाओं और नीची जातियों में शिक्षा के प्रसार के के हाथों शोषण और अपमान का शिकार होना पड़ता है। यही कारण है कि पसमांदा मुसलमानों ने हिन्दू नीची जातियों के साथ संयुक्त मोर्चा बना लिया है।

जेएनयू में इसी तरह का अभियान ‘यूनाईटेड दलित स्टूडेंट्स फोरम’ (यूडीएसएफ) द्वारा चलाया जा रहा है। इस अभियान के अंतर्गत गोष्ठियां, आम सभायें और जुलूसों आदि का आयोजन किया जाता है। शनै: – शनै: विश्वविद्यालय का माहौल इतना बदल गया है कि वहां हमेशा से शक्तिशाली रहे वामपंथी छात्र संगठनों के नेता-जिन पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वे दलित-बहुजन विभूतियों को नजरअंदाज करते हैं-भी अब अपनी बांह पर फु ले का बेज लगाने में शर्माते नहीं हैं। लब्बोलुआब यह कि ब्राह्मणवादी प्रभुओं पर चोट करने के अतिरिक्त, दलित-बहुजन अपनी विभूतियों की स्थापना भी कर रहे हैं।

(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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