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ओबीसी नायकों की प्रेम व शौर्य गाथाएं

कोई आश्चर्य नहीं कि इतिहास और धर्म में उनके लिए कोई स्थान नहीं है परन्तु वे हमारी परंपरा में जीवित हैं

ब्राह्मणवादी धर्मग्रंथों में जिन्हें शूद्र कहा गया है, वे ही आज साधारणतया ओबीसी के नाम से जाने जाते हैं। इस तबके के अधिकांश नायक-नायिकाओं के यशस्वी कार्य इतिहास-पुराणों के पन्नों में नहीं बल्कि लोकगाथाओं की वाचिक परंपरा में जिंदा है। द्विज नायक-नायिकाओं की भांति ओबीसी नायक-नायिकाएँ मंदिरों में स्थापित नहीं हैं बल्कि इनका वास गाँव के बाहर डीह-डिहवारों में है और इनकी वीरांगनाएँ सती मैया के चौरों में जीवित है।

मैं बिहार के छोटे से शहर सासाराम में रहता हूं। इससे सटा कोइरी जाति का एक गाँव है-करपुरवा। वहाँ के खेत-खलिहानों में न जाने कितने ऐतिहासिक वीर पुरुष ईंट-माटी के ढंहों पर स्थापित हैं-साँवरा वीर बाबा, नुनवा वीर बाबा और बन्हवा वीर बाबा। भारत के जब एक गाँव के खेत-खलिहानों में ओबीसी के इतने वीर हैं तो इसके असंख्य गाँवों में कितने वीर पुरुष होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है। कहीं बंजारा जाति के ‘शोभा नयका बनजारा’ का प्रणय आख्यान है, कहीं यादव जाति के मनस गोप और बुलाकी गोप की शौर्य गाथाएँ हैं तो कहीं गांगो तथा लचिया पनेरिन का सौंदर्योपाख्यान है।

लोरिक :

लोरिक यादव जाति के हैं। इनकी कहानी समस्त उत्तर भारत, बंगाल और दक्षिण भारत तक में प्रचलित है। दाऊद कृत ‘चंदायन’ (179 ई.) और साधन कृत ‘मैनासत’  से लेकर गव्वासी रचित ‘मैनासतवंती’ (दक्खिनी) तथा बंगला में दौलत काजी रचित ‘लोर चंद्रानी’ तक लोरिक की गौरवगाथा का विस्तार है। मैथिली प्रदेश में लोरिक और हरवा-हरवा की गाथा अधिक गाई जाती है। भोजपुरी में इसे ‘लोरिकी’ कहते हैं। इसके मिर्जापुरी रूप को डब्ल्यू. क्रूक ने एकत्र किया हैै। इस लोकगाथा के छत्तीसगढ़ी रूप का फादर वैरियर एल्विन ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। इस प्रकार हिंदी की प्राय: सभी बोलियों में लोरिक के चरित्र का वर्णन है। लोरिक भारतीयता से ओतप्रोत एक प्रेमी और वीर पुरुष है।

विजयमल :

भोजपुरी की वीरगाथात्मक लोकगाथाओं में ‘विजयमल’ अथवा ‘कुँवर-बिजई’ का प्रमुख स्थान है। विजयमल तेली जाति के थे। वीर लोरिक के समान विजयमल भी मध्ययुगीन वीरता और उदारता के प्रतीक हैं। विजयमल की कहानी में विवाह प्रसंग गौण और युद्ध प्रधान बन जाता है। केवल भोजपुरी प्रदेश में गाये जाने वाले इस गीत में वीर रस और शृंगार रस का बेजोड समागम है। कुँवर विजयमल भारतीय वीरता के उस आदर्श को प्रस्तुत करते हैं, जिसे ‘धीरवीर’ कहा जाता है।

बाला लखंदर :

बाला लखंदर लोकगाथा ‘सती बिहुला’ के प्रमुख चरित्र हैं। बंगाल तक विस्तारित यह लोकगाथा समस्त भोजपुरी प्रदेश, अंग प्रदेश व मिथिलांचल से लेकर बस्ती, गोंडा एवं गोरखपुर जिलों तक गाई जाती है। ‘सती बिहुला’ की लोकगाथा में केंद्रीय चरित्र बिहुला है जो अपने पति बाला लखंदर के पुनर्जीवन के लिए अनेक प्रयास करती है। बिहुला का चरित्र सावित्री और सत्यवान की पौराणिक कथा के सावित्री पात्र से मेल रखता है। बाला लखंदर के पिता का नाम चंदू साह है, जाहिर है कि बाला लखंदर साहू परिवार से आते हैं। मिथिलांचल में यह लोकगाथा ‘बिहुला विशहरी’ के नाम से ख्यात है और इसके रचयिता केशो साव बताए जाते हैं। बंगाल की इस लोकगाथा में चंदू साह को बिहुला से अधिक महत्व मिला है। ‘सती बिहुला’ में बिहुला के अलौकिक लावण्य से आकर्षित होकर बाला लखंदर का उसके प्रेम को पाने का प्रणयाख्यान है।

गुलिया माई :

उत्तर प्रदेश के वर्तमान गाजीपुर जिले की गुलिया माई ओबीसी तबके से थीं। गुलिया माई की स्मृति में सम्राट अशोक द्वारा विशालकाय स्तंभ स्थापित किया गया। आप सोच सकते हैं कि गुलिया माई कितनी प्रतापी वीरांगना होंगी कि सम्राट अशोक ने उनकी स्मृति में स्तंभ स्थापित करवाया।

सोहणी :

सोहणी पंजाब की प्रेम गाथा ‘सोहणी महीवाल’ की नायिका है। देवेन्द्र सत्यार्थी ने लिखा है कि सोहणी एक कुम्हार की कन्या है और चिनाव के तीर पर एक गाँव में रहती है। वहीं महीवाल एक राजकुमार है और सोहणी के रूप-रंग पर मुग्ध होकर उसके गाँव के ठीक सामने धूनी रमाकर बैठ जाता है। ‘सोहणी महीवाल’ सात्विक प्रेम की अमर गाथा है। सोहणी नित्यप्रति घड़े पर तैरकर अपने प्रियतम महीवाल के पास जाया क रती थी। सोहणी अपना पक्का घड़ा चिनाव के किनारे झाड़ी में छिपाती थी। एक दिन उसकी ननद ने पक्के घड़े की जगह कच्चा घड़ा रख दिया। उस कच्चे घड़े के सहारे नदी पार करते सोहणी अपने प्रियतम का नाम लेते हुए डूब गई। सोहणी अनन्य प्रेम की मिसााल है।

दयाल सिंह :

मैथिली लोकगाथा ‘दुलरा दयाल’ के नायक दयाल सिंह हैं। इस लोकगाथा में दयाल सिंह आत्मपरिचय देते हुए कहता है कि मेरा नाम दुलरा दयाल, घर भरौड़ा, पिता का नाम विश्वंभर सहनी और माता का नाम गजमोती है। यह दयाल सिंह दरअसल निषाद कुल के वीर गाथानायक एवं मल्लाहों के लोकदेवता भी हैं। वे जाति के मल्लाह हैं पर नृत्य निपुणता के कारण उन्हें ‘नटुआ’ (नर्तक) भी कहा जाता है इसीलिए अंगिका में उन्हें ‘नटुआ दयाल’ के नाम से जाना जाता है। उनका विवाह अंगिका लोकगाथा में भौरा गोढिऩ की बेटी अमरौतिया से हुआ है। अमरौतिया के विवाह से पूर्व उसकी जितनी बहनों के विवाह हुए हैं, सभी के दूल्हों को बहुरा गोढिऩ खा चुकी है इसीलिए दयाल सिंह ‘गवना’ के पूर्व सिद्धि के लिए कामरूप कामाख्या जाते हैं। सिद्धि प्राप्तकर पुन: विविध बाधाओं को पार करते हुए पत्नी को घर ले आते हैं। इसमें दयाल सिंह का पराक्रम उद्घाटित हुआ है।

राँझा :

पंजाबी प्रेम गाथा ‘हीर-राँझा’ के नायक राँझा है। राँझा का जन्म चिनाव नदी के किनारे तख्त हजारे नामक स्थान पर एक मुस्लिम जाट के घर हुआ था। चिनाव के दूसरे किनारे स्थित झंग नामक स्थान की सियाल जाति की एक अनुपम सुंदरी हीर से उनका प्रेम था। हीर भी उससे प्रेम करती थी, इसीलिए हीर ने पिता से कहकर राँझा को भैंस चराने का काम दिलाया। हीर स्वयं उसके लिए नाना पकवान जंगल में ले जाती। हीर का विवाह रंगपुर निवासी खैडा जाति के युवक सैदा के साथ हो जाता है लेकिन हीर अपना सतीत्व सुरक्षित रखती है। राँझा साधु वेश में जाकर छल-बल से हीर को मुक्त कराता है। हीर पिता के घर वापस लौटती है। हीर का पिता रांझा से शाादी का झूठा वादा कर उसे बारात लाने के लिए भेज हीर की हत्या कर देता है। इस खबर से दुखी राँझा की मृत्यु हो जाती है। भारतीय जनमानस में रांझा का प्रेम अमर है।

सोरठी :

कौरवी प्रेमगाथा की अनुपम सुंदरी कुम्हारिन नायिका सोरठी है। सोरठी पहले तपसी नामक बंजारे पर मुग्ध होकर उसके साथ चली जाती है। बाद में इस गाथा में राजा ओड़ का प्रवेश होता है। राजा सोरठी से विवाह करने को इच्छुक है। राजा अपने भाँजे को तपसी बंजारे के पास भेजकर सोरठी को ‘मुक्त’ कराता है। राजा ओड़ सोरठी के साथ विवाह करने का प्रयास करता है पर सोरठी राजा के भाँजे को पसंद करने लगती है। इस बात को लेकर राजा ओड़ व उसके भांजे के बीच हुये युद्ध में भांजा मारा जाता है। लेकिन सोरठी राजा से विवाह करने के बजाए सती हो जाना पसंद करती है। भोजपुरी के अतिरिक्त मैथिली और मगही में भी सोरठी की लोकगाथा गाई जाती है। इस लोकगाथा में आदर्श और स्फूर्ति का केंद्र सोरठी का जीवन चरित्र है।

कलार सुंदरी :

कलार सुंदरी या बहादुर कलारिन का कथा-गीत छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की बालौद तहसील में स्थित सोरर से जुड़ी एक लोकगाथा है। सोरर में ‘बहादुर कलारिन’ और उसके पुत्र को ग्राम देवी और ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। कलार सुंदरी जाति की कलार और अद्वितीय सुंदरी थी। उसके अनुपम सौंदर्य पर मुग्ध होकर एक राजपुत्र ने उससे गंधर्व विवाह कर लिया। गर्भवती होने पर उसने कलार सुंदरी को त्याग दिया। इस विवाह से उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम ‘छछान छोरा’ था। बालिग होने पर उसने मां का दर्द समझा और प्रतिक्रियास्वरूप सामंतवर्ग की बेटियों का अपहरण कर विवाह करने लगा। बताया जाता है कि उसने आठ कोरी कन्याओं का अपहरण किया। बावजूद इसके वह संतुष्ट नहीं था। कलार सुंदरी अपहृत स्त्रियों की वेदना से दुखी थी। एक दिन उसने अपने पुत्र को कुँए में ढकेलकर कटार से आत्महत्या कर ली। इस कथा को देखने का एक नजरिया यह है कि, जहां माँ ने समाज-धर्म निभाया वहीं पुत्र ने मातृ-धर्म का पालन करते हुये समाज के समक्ष आदर्श स्थापित किया।

ये वीर योद्धा और रूमानी ओबीसी नायक-नायिकाओं पर आधारित चुनिन्दा लोककथाएँ हैं। इनमें से अधिकांश केवल वाचिक परंपरा में जीवित हैं। बहुजन शिक्षाविदों के सामने चुनौती यह है की मीडिया के अनवरत हमले के चलते इन कथाओं के जनमानस से विस्मृत होने के पहले इन्हें लिखित स्वरुप दे दिया जाये। बल्कि मीडिया और शोध संस्थानों का इस्तेमाल हमारी सांस्कृतिक विरासत के इस खजाने को संरक्षित और प्रचारित करने के लिए किया जाये।

 

(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ख्यात भाषावैज्ञानिक एवं आलोचक हैं। वे हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार एवं सबाल्टर्न अध्ययन के प्रणेता भी हैं। संप्रति वे सासाराम के एसपी जैन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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