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अभिव्यक्ति की आजादी सबका अधिकार है

अभिव्यक्ति की आज़ादी संवैधानिक अधिकार है। बहुजन या अल्पजन सभी को हमारा संविधान यह अधिकार देता है। फारवर्ड प्रेस पर प्रतिबन्ध संविधान की अवहेलना है

फारवर्ड प्रेस पर हुई पुलिस कार्रवाई की देश भर से बुद्धिजीवियों व विभिन्न संगठनों ने निंदा की है। उनमें से कुछ अंश :

एशियाई मानवाधिकार आयोग, हांगकांग

फारवर्ड प्रेस पत्रिका के नेहरू प्लेस स्थित कार्यालय पर पुलिस का छापा, अभियक्ति की स्वतंत्रता पर निंदनीय हमला है। फारवर्ड प्रेस एक प्रगतिशील पत्रिका है जो भारतीय समाज के वंचित और हाशिए पर पड़े तबकों के हितों की रक्षा हेतु प्रतिबद्ध है। पत्रिका ने बहुजन-श्रमण (मोटे तौर पर वे बहुसंख्यक लोग जो अपने श्रम से जीवनयापन करते हैं, दूसरों का शोषण करके नहीं) परंपरा पर फोकस किया था। किसी भी प्रतिष्ठित पत्रिका के कार्यालय पर छापा डालना और उसके ताजा अंक को बिना किसी अदालती आदेश के जब्त करना यह दिखाता है कि भारत में वह सहिष्णु संस्कृति खतरे में है, जो बौद्धिक विमर्श और बहस को प्रोत्साहित करती है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार बल का इस्तेमाल कर सभी प्रकार की असहमतियों को कुचलना चाहती है। आयोग पुलिस के बर्बर छापे और फारवर्ड प्रेस के कर्मचारियों की गिरफ्तारी की कड़ी निंदा करता है। आयोग पत्रिका के सलाहकार संपादक व मुख्य संपादक की सुरक्षा को लेकर चिंतित है।

जनवादी लेखक संघ

फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के नेहरु प्लेस स्थित दफ़्तर पर दिल्ली पुलिस द्वारा 9 अक्टूबर को छापा मार तथा पत्रिका के अक्टूबर अंक, जो बहुजन-श्रमण विशेषांक के रूप में प्रकाशित था, की प्रतियां जब्त करना, निंदनीय घटनाक्रम है। जनवादी लेखक संघ इस प्रवृत्ति की भत्र्सना करते हुए सभी धर्मनिरपेक्ष और जम्हूरियतपसंद लोगों से इसके खि़लाफ़ एकजुट होने की अपील करता है। हम सरकार से यह मांग करते हैं कि फॉरवर्ड प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित करे, उस पर हुए ग़ैरकानूनी पुलिसिया हमले की सख्ती से जांच हो।’

जर्नलिस्टस् यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस)

जर्नलिस्टस् यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) ने फॅारवर्ड प्रेस के दिल्ली कार्यालय पर दिल्ली की बसंतनगर थाना पुलिस द्वारा 9 अक्टूबर को छापा मारने की घटना की कठोर निंदा की। जेयूसीएस ने मासिक पत्रिका के अक्टूबर, 2014 के अंक ‘बहुजन श्रमण परंपरा विशेषांक’ को भी पुलिस द्वारा जब्त करने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए इसे मुल्क में फासीवाद के आगमन की आहट कहा है। फारवर्ड प्रेस के दिल्ली कार्यालय पर छापे का विरोध करते हुए जेयूसीएस के नेता लक्ष्मण प्रसाद और अनिल कुमार यादव ने कहा कि देश का संविधान किसी भी नागरिक को उसके न्यूनतम मूल अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।

रेवोल्यूशनरी कल्चरल फ्रंट

नौ अक्टूबर को दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा ने दलितों और बहुजनों की हिन्दी-अंग्रेजी द्विभाषी मासिक फारवर्ड प्रेस के दिल्ली कार्यालय पर निर्लज्जता पूर्वक हमला किया और बहुजन-श्रमण परंपरा पर केन्द्रित पत्रिका के अक्टूबर विशेषांक की प्रतियों को जबरदस्ती जब्त कर लिया। राज्य किसी विशेष विचारधारा को मानने वालों या हिंसा का इस्तेमाल करने वालों का दमन नहीं कर रहा है कर रहा है। वह उन लोगों का भी दमन कर रहा है जो प्रजातांत्रिक ढंग से अपनी असहमति व्यक्त कर रहे हैं और संसदीय प्रजातंत्र व भारतीय संविधान में आस्था रखते हैं। फारवर्ड प्रेस पत्रिका पर हमला भारतीय राज्य के असली चरित्र को

उजागर करता है जोकि हिन्दुत्व के दमनकारी एजेन्डे को लागू करना चाहता है। हम कड़े शब्दों में फारवर्ड प्रेस पर पुलिस के दमन की निंदा करते हैं।

वीरेंद्र यादव, आलोचक

फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के अक्टूबर अंक को जब्त कर इसके संपादकों के विरुद्ध पुलिसिया कारवाई की जा रही है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है इसके विरुद्ध जनमत बनाया जाना चाहिए। यह कृत्य अत्यंत निंदनीय है इसके विरुद्ध एकजुट होने की आवश्यकता है।

कविता कृष्णचन, सचिव, आल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेन अशोसिएशन

यह शर्मनाक है कि बहुजन मिथ महिषासुर के प्रकाशन के कारण फॉरवर्ड प्रेस के दफ्तर पर पुलिस ने छापेमारी की, जबकि जे एन यू में एक पब्लिक मीटिंग को रोकने की हिंसक कोशिश करने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के छात्रों पर कोइ कार्रवाई नहीं की। भारत में कुछ दमित जातियां रावण और महिषासुर की पूजा करती हैं। संघियों और दिल्ली पुलिस की हिंसक करवाई किसी एक पत्रिका या एक पब्लिक मीटिंग को लक्ष्य कर के नहीं संचालित की गई थी, बल्कि यह पिछड़े समुदायों के अस्तित्व को नकारने की कारवाई थी। कैसे एक विभिन्नताओं वाले देश में एक वैकल्पिक मिथ या परम्परा एक अपराध हो सकते हैं! फॉरवर्ड प्रेस को भडकाऊ बताया जा रहा है, जिसने दुर्गा के स्थापित मिथ के बरक्स महिषासुर के वैकल्पिक मिथ को प्रकाशित किया। जबकी पाञ्चजन्य और ऑर्गनाइजर को भड़काऊ नहीं माना जाता।

उदय प्रकाश, कथाकार

अगर हम सभ्य हैं तो हमें दमित अस्मिताओं के पक्ष में खडा होना चाहिए। यदि हम अपने को सभ्य, आधुनिक और लोकतांत्रिक समझते हैं तो हम सब को सभी दमित समुदायों के पक्ष में खडा होना चाहिए।

गिरिराज किशोर, उपन्यासकार व गांधीवादी लेखक

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आक्रमण लोकतंत्र के आदर्श को आहत करता है। यह तानाशाही मानसिकता है।

वीर भारत तलवार, आलोचक

पिछले दिनों फॉरवर्ड प्रेस पर हुआ दमन हर तरह से निंदनीय है। बहुजन और उत्पीडि़त जनों के स्वरों को नष्ट करने के लिए दमन के ऐसे प्रयास बहुत पुराने ज़माने से होते आ रहे हैं। प्राचीन काल में बौद्ध, आजीवक और जैन धर्मों को नष्ट करने के लिए राज्य की मदद से हिंसात्मक दमन का सहारा लिया गया। मध्यकाल में भी बहुत से विचारों को नष्ट करने के प्रयास हुए। अंग्रेजी राज के दौरान क्रातिकारी विचारों और आन्दोलनों के दमन का इतिहास तो जगजाहिर है। शासक या वर्चस्वशाली वर्गों ने अपने समय में घटी घटनाओं की व्याख्या अपने हित में करने के लिए उत्पीडि़त और अधीनस्थ वर्गों के पक्ष को हमेशा तोड़-मरोड़ कर विकृत ढंग से पेश किया। बाद में ये अधीनस्थ वर्ग उठ खड़े हुए तो उन्हों ने अपने इतिहास को भी फिर से लिखने की कोशिश की। उनका ऐसा करना बिल्कुल स्वाभाविक हैं लेकिन, बहुजन वर्गों द्वारा अपना इतिहास फिर से लिखने का प्रयास बिना संघर्षों के सफल नहीं होता। शासक वर्ग हमेशा उसके दमन का प्रयास करता है। बहुजन के विचारों और सत्य को स्थापित करने की लड़ाई सैंकड़ों वर्षों तक चलती है। आनेवाली पीढिय़ों को वह सहज ही स्वाभाविक लगता है लेकिन उसके पीछे हुआ लंबा संघर्ष उनकी आँखों के सामने नहीं होता।

कँवल भारती, दलित लेखक

लोकतंत्र में हिन्दू फासीवाद सत्ता के बल पर चाहे जितना आतंक मचा ले, वह चलने वाला नहीं है। दलित-पिछड़ा जाग रहा है और उसे अपने इतिहास को जानने तथा पुनर्पाठ करने का पूरा हक है, हालाँकि मैं महिषासुर-अवधारणा का समर्थक नहीं हूँ, पर दुर्गा पूजा का भी समर्थक नहीं हूँ। मैं विचारों की इस लड़ाई में प्रमोद रंजन के साथ हूँ। हम लोकतंत्र में फासीवाद नहीं चलने देंगे।

कुमार प्रशांत, समाजवादी लेखक

फारवर्ड प्रेस के साथ की गई इस शैतानी की खिलाफत में मैं पूरी तरह आप सबके साथ हूं। जिन नई ताकतों ने भारतीय राजनीति में अपने पांव जमाए हैं। वे पुरानी ताकतों की सारी बीमारियों के साथ.साथए संकीर्ण असहिष्णुता की यह बीमारी भी साथ ले कर आये हैं। करेला और नीम चढ़ा वाली बात है यह!! पछतावा है तो यही कि इसी पंक में उतर कर अपनी जगह बनाने की होड़ में आज सभी शामिल हैं – क्या तथाकथित दलित और क्या ब्राह्मणवादी ताकतें! भारतीय समाज के इस सच को हम लोग पहचान सकें और इससे सीख सकें तो आज का अभिशाप भी कल का वरदान बन जाएगा।

शिवानंद तिवारी, पूर्व सांसद, जदयू

अभिव्यक्ति की आज़ादी संवैधानिक अधिकार है। बहुजन या अल्पजन सभी को हमारा संविधान यह अधिकार देता है। फारवर्ड प्रेस पर प्रतिबन्ध संविधान की अवहेलना है। जिस अंक को लेकर विवाद पैदा किया गया, उसके सारे आलेख मैंने पढ़े हैं। वास्तव में विरोध करने वालों को भारतीय संस्कृति और इतिहास की समझ नहीं है। यह देश सिर्फ सामाजिक बहुलता का ही नहीं, सांस्कृतिक बहुलता का भी देश है। दरअसल सदियों से समाज पर जिनका वर्चस्व रहा है, वे समझते हैं कि उनकी ही संस्कृति ‘भारतीय संस्कृति’ है। वैसे लोंगो को दलित साहित्य और विशेषरूप से काँचा आयलैया के ‘मैं हिन्दू क्यों नहीं हूँ’ से पढऩे की शुरुआत करनी चाहिये। अपनी मान्यता और संस्कृति आरोपित करना देशहित में नहीं है।

पप्पू यादव, सांसद, राष्ट्रीय जनता दल

भारत में विचारों की अभिव्याक्ति संवैधानिक अधिकार है। हम अपने विचार, मत, अभिमत व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं। परंपराएं मान्यता और मिथकों की व्याख्या करना भी अभिव्यक्ति की आजादी में शामिल है। फॉरवर्ड प्रेस ने हमारी सांस्कृतिक मान्यताओं की नये सिरे से व्यायख्या करने की शुरुआत की है। यह व्याख्या मान्य विचारों से अलग है। इसलिए कुछ लोगों को असहज लगना स्वाभाविक है। लेकिन कुछ लोगों की संतुष्टि के लिए पत्रिका के वितरण पर रोक लगा देना किसी भी नजरिए से सही नहीं है। हमारा यह मानना है कि केंद्र की भाजपा सरकार हर लोकतांत्रिक मान्यताओं और मर्यादाओं को ध्वस्त करना चाहती है, यह उसकी वैचारिक अवधारणा में शामिल है। फॉरवर्ड प्रेस ने समाज के बहुजन हितों और उनके पक्ष में लगातार खड़ा होने का प्रयास किया है, साहस किया है। इसके लिए उसे कई बार प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ा है। फिर भी वह अपने लक्ष्यों की ओर निर्बाध गति से आगे बढ़ रही है। इसके लिए मैं पत्रिका की पूरी टीम को बधाई देता हूं और भरोसा दिलाता हूं कि अभिव्यक्ति की आजादी के लिए फॉरवर्ड प्रेस के साथ मैं हमेशा खडा रहूंगा।

(फारवर्ड प्रेस के नवम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

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एफपी डेस्‍क

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