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फारवर्ड विचार, नवम्बर 2014

दलितबहुजनों के ही क्यों न हों क्योंकि तथाकथित मुख्यधारा का अधिकांश मीडिया उन्हें उपलब्ध है और यह, अक्टूबर में उनके द्वारा एफपी पर किए गए हमले से स्पष्ट है। इन तत्वों द्वारा बहुजनों, एफपी व उसके संपादकों के बारे में झूठ, अफवाहें और जहर फैलाने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग किया गया

हां, फारवर्ड प्रेस इस बार कुछ देरी से प्रकाशित हुई है परंतु ब्राह्मणवादी दक्षिणपंथी ताकतों के प्रयासों के बावजूद, हम जिंदा है-कम से कम अब तक। दलितबहुजनों की आवाज मरी नहीं है। जब तक एफपी जिंदा है तब तक वह खामोश बहुंसख्यकों को स्वर देने के प्रति प्रतिबद्ध है। अभी एफपी का केवल मुद्रित संस्करण निकलता है और हम ऑनलाईन होने वाले हैं। परंतु हम संविधान-प्रदत्त अभिव्यक्ति की सभी स्वतंत्रताओं के समर्थक हैं जिनमें शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार शामिल है। यह अंक भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को समर्पित है।

हमारी आवरणकथा ‘‘मोदी के अधीन प्रेस स्वतंत्रता’’ के लेखक प्रभु गुप्तारा, प्रेस व अन्य प्रजातांत्रिक अधिकारों पर हमलों से अपरिचित नहीं हैं। वे स्वयं इंदिरा गांधी के आपातकाल के शिकार रहे हैं। गहन अनुसंधान पर आधारित उनका लेख, जो मूलतः दक्षिण एशिया पर केंद्रित एक जर्मन पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, हमें चेताता है कि पिछले एक दशक में भारत में प्रेस की स्वतंत्रता में काफी कमी आयी है। नई सरकार आने के पहले, पिछले साल, भारतीय पत्रकारों पर पाकिस्तान से भी अधिक संख्या में हुए हमले और उनकी हत्यायें अत्यंत चिंताजनक हैं।

विद्या भूषण रावत से हमारे पाठक परिचित हैं। ‘‘आंबेडकरवादी स्वतंत्र चिंतक’’ के रूप में वे एफपी पर हमले के संदर्भ में पूरी बौद्धिक ईमानदारी से अपने विचार रख रहे हैं। जैसा कि वे लिखते हैं, वे एफपी में प्रकाशित हर सामग्री से सहमत नहीं हैं परंतु वे इसे एक ऐसे मंच के रूप में देखते हैं जो दलितबहुजन परिवार के परस्पर विरोधी विचारों को जगह देता है। मैं इस अवसर पर उन गैर-ब्राह्मणवादी दलितबहुजनों, जो एफपी के फुले-आंबेडकरवादी परिप्रेक्ष्य से सहमत नहीं हैं, को हमें और हमारे लिए लिखने के लिए आमंत्रित करता हूं। हम ब्राह्मणवादी विचारों का स्वागत नहीं करते-चाहे फिर वे

दलितबहुजनों के ही क्यों न हों क्योंकि तथाकथित मुख्यधारा का अधिकांश मीडिया उन्हें उपलब्ध है और यह, अक्टूबर में उनके द्वारा एफपी पर किए गए हमले से स्पष्ट है। इन तत्वों द्वारा बहुजनों, एफपी व उसके संपादकों के बारे में झूठ, अफवाहें और जहर फैलाने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग किया गया।

यद्यपि अंग्रेजी और हिंदी के प्रिंट मीडिया ने एफपी पर हमले की खबरें छापीं परंतु इस संबंध में संपूर्ण तथ्य अभी भी सामने नहीं आ सके हैं। इसलिए पृष्ठ 21-23 पर हम पुलिस कार्यवाही का एफपी न्यूज डेस्क द्वारा संकलित विस्तृत घटनाक्रम प्रकाशित कर रहे हैं। प्रिय पाठकों, आप स्वयं निर्णय करें कि राज्यतंत्र की शक्ति का एफपी जैसी पत्रिका के खिलाफ इतना गैर-अनुपातिक प्रयोग कहां तक उचित है।

फेसबुक को छोड़कर, पूरे देश में एफपी के समर्थन में आयोजित छोटे-बडे़ विरोध प्रदर्शनों और बैठकों के समाचार मीडिया द्वारा मुख्यतः नजरअंदाज किए गए। इनमें से कुछ की झलकियां हमारे फोटो फीचर में प्रकाशित की जा रही हैं। हम उन सभी लोगों को धन्यवाद देते हैं जिन्होंने इस कठिन दौर में एफपी का साथ दिया।

अपने पिछले संपादकीय में मैंने भारत के द्वैतवादी झुकाव की चर्चा की थी। 1985 से लेकर आज तक, 31 अक्टूबर इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि के रूप में मनाया जाता रहा है। इस वर्ष मोदी राज में सरदार पटेल की जयंती को राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में मनाया गया और ‘रन फाॅर यूनिटी’ का आयोजन हुआ। इस बात पर जोर दिया गया कि आवश्यकता पड़ने पर ‘पुलिस कार्यवाही’ कर ‘लौह पुरूष’ ने देश को एक किया। जवाहरलाल नेहरू की 125वीं वर्षगांठ के अवसर पर मोदी शासन के अंतर्गत नेहरू की विरासत के विभिन्न पहलुओं पर दो लेखक प्रकाश डाल रहे हैं। विशाल मंगलवादी मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान की तुलना नेहरू के औद्योगिक भारत के निर्माण के स्वप्न से कर रहे हैं तो राम पुनियानी नेहरू की बहुवादी विरासत पर मंडरा रहे खतरे की चेतावनी दे रहे हैं। बहस जारी है।

हम उत्तर भारत के सबसे पहले दलित कवियों में से एक हीरा डोम की कविता ‘‘अछूत की शिकायत’, इसके प्रथम प्रकाशन की शताब्दी के अवसर पर प्रस्तुत कर रहे हैं।

अगले माह तक…सत्य में आपका

आयवन कोस्का

 

(फारवर्ड प्रेस के नवम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

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