h n

अभिव्यक्ति की आजादी के मायने

हम सब, जो इस काले दौर से लड़ रहे हैं, उन्हें यह जानना होगा कि एक तानाशाह को सबसे ज्यादा डर किस बात से लगता है। वह डरता है अभिव्यक्ति की आजादी से। अगर ऐसा न होता तो एक अखबार के दफ्तर पर छापा क्यों पड़ता? एक बच्ची की फेसबुक पर टिप्पणी से कोई क्यों घबराता? और एक कार्टून उसके भीतर डर क्यों पैदा करता?

इस दौर में मुझे महान अभिनेता चार्ली चैप्लिन बेतहाशा याद आ रहे हैं, जिनकी कला ने उस समय के सबसे बड़े तानाशाह को चुनौती दी थी। गरीबी और अभाव से उपजी कला ने मूक अभिनय से इंसानी भावों को अमरता दी। जब बोले तो तनाशाह थर्रा उठा। चार्ली चैप्लिन से किसी ने एक बार पूछा कि ‘आप इतने नाजी विरोधी क्यों हैं?’ चैप्लिन ने कहा, ‘क्योंकि नाजी मनुष्य विरोधी हैं।’ ‘यानी आप यहूदी हैं?’ चैप्लिन ने कहा- ‘नाजी विरोधी होने के लिए यहूदी होना जरुरी नहीं है। अगर आप जागरुक इंसान हैं, तो आप नाजी विरोधी ही होंगे’। चार्ली की कही बात को आज समवेत स्वर में कहने की जरुरत है। हमें यह कहना होगा कि हम अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमले के खिलाफ खड़े हैं । हम सब, जो इस काले दौर से लड़ रहे हैं, उन्हें यह जानना होगा कि एक तानाशाह को सबसे ज्यादा डर किस बात से लगता है। वह डरता है अभिव्यक्ति की आजादी से। अगर ऐसा न होता तो एक अखबार के दफ्तर पर छापा क्यों पड़ता? एक बच्ची की फेसबुक पर टिप्पणी से कोई क्यों घबराता? और एक कार्टून उसके भीतर डर क्यों पैदा करता?

इन घटनाओं को किस तरह देखा जाना चाहिए? मेरे जैसे लोगों के लिए ये घटनायें आने वाले समय की चेतावनी हैं। जब सत्ता निरंकुश होती है तो जनता के सारे अधिकार खत्म हो जाते हैं। तानाशाह खुद को आजाद कर लेते हैं लेकिन जनता को गुलाम बना देते हैं। क्या यह भारतीय लोकतंत्र कि विडंबना नहीं है कि देश में एक ऐसी सरकार लोकतांत्रिक तरीके से आती है जिस पर साम्प्रदायिकता के गंभीर आरोप हैं, जो दबे-छुपे ढंग से ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ की राजनीति को प्रश्रय दे रही है।

‘नरेन्द्र मोदी : द मैन द टाइम्स’ किताब के लेखक अंग्रेजी पत्रकार नीलांजन मुखोपाघ्याय ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘अगर 2002 के दंगे नहीं हुए होते तो नरेन्द्र मोदी आज इतिहास के किसी खंडहर में पड़े होते। मेरा मानना है कि गोधरा के दंगे नहीं होते तो भाजपा कभी गुजरात का चुनाव जीत नहीं पाती। मोदी आज जहां हैं, गोधरा कांड की वजह से हैं ।’ नीलांजन मुखोपाघ्याय का दावा बेमानी नहीं है। आज देश का हर हिस्सा भीतर ही भीतर सुलग रहा है।

हमारे देश में आजादी के बाद साम्प्रदायिकता का जबरदस्त उभार हुआ है। धार्मिक स्थलों और प्रतीकों को लेकर जहरीला और हिंसक वातावरण बनाया जा रहा है। प्रेम को घृणा में तब्दील किया जा रहा है। ‘लव जेहाद’ जैसे शब्दों के जरिये साम्प्रदायिक तनाव भड़काया जा रहा है । लव जेहाद के बहाने आक्रामक राजनीति को दक्षिण भारत के साथ-साथ उत्तर भारत में भुनाने की तैयारी कर ली गयी है। विभिन्न संगठनों, अखबारों, पत्रिकाओं और कला के विभिन्न माध्यमों पर नजर रखी जा रही है। ग्रीनपीस जैसी संस्था, जो दुनियाभर में पर्यावरण पर काम कर रही है, पर अंकुश लगाए जा रहे हैं। और भी संगठन हैं,जिन्हें विकास के नाम पर तंग किया जा रहा है। विकास का मतलब होना चाहिए कि इस देश का कोई नागरिक भूखा न सोए, बेघर न रहे, उसे उसके श्रम का पूरा भुगतान मिले, जाति धर्म के आधार पर भेद-भाव ना हो, किसी को अपनी बात कहने के लिए सजा नहीं भुगतनी पड़े। क्या हमारा विकास नागरिकों को उनके इन मूल अधिकारों की गारंटी देता है? अगर हम यह सुनिश्चित नहीं कर रहे हैं तो विकास की हमारी अवधारणा बेमानी है।

एक विकसित देश को अभिव्यक्ति की आजादी भी सुनिश्चित करनी होगी। हमें अपने इतिहास से सबक लेनी चाहिए। हमें खतरा मोल लेने के लिए तैयार रहना होगा। गैलीलियो जैसे महान वैज्ञानिक ने अरस्तु के अनुयायियों की इस घोषणा की आलोचना की थी कि पृथ्वी, आंतरिक्ष में स्थिर है और सूरज उसके इर्द-गिर्द घूम रहा है। इसके विपरीत, गैलिलियो ने सिद्ध किया कि पृथ्वी, सूर्य के इर्द-गिर्द घूमती है। इस के पक्ष में वे खडे रहे। चर्च से लोहा लिया, जो इस सिद्धांत के विरुद्ध था। गैलीलियो की इस वैज्ञानिक खोज से कैथलिक चर्च नाराज़ था और चाहता था कि गैलिलियो को सजा मिले। उसके विचार से गैलीलियो ने ईशनिंदा की थी, जिसस चर्च की सत्ता के लिए खतरा पैदा हो गया था। इसके लिए चर्च उन्हें मृत्यु दंड देना चाहता था।

दुनिया के इतिहास में ऐसी घटनाएं भरी पड़ी है जब व्यक्तियों ने सत्य की खातिर सत्ता से लोहा लिया, अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में फांसी का फंदा चूमा। यह दुनिया हमारी है, जिसे हमने संजोया है, संवारा है। मैं बहुत यकीन के साथ कहना चाहती हूं कि एक तानाशाह हमेशा मनुष्यता के हाथों हारा है। इस मुश्किल समय में मेरे जैसे लोगों के लिए ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ जैसी फिल्में उम्मीद हैं। उनके लिए भी, जो अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में खड़े हैं।

(फारवर्ड प्रेस के नवम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

निवेदिता

संबंधित आलेख

यूपी में हार पर दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों ने पूछे अखिलेश और मायावती से सवाल
पौने पांच साल की ‘लंबी छुट्टी’ के बाद सिर्फ ‘तीन महीने की सीमित सक्रियता’ से भला पांच साल के लिए कोई नयी सरकार कैसे...
बहस-तलब : दलितों के उपर अंतहीन अत्याचार और हम सवर्ण
जातिगत भेदभाव भारतीय समाज को आज भी खोखला कर रहा है। इसकी बानगी राजस्थान के सुरेन्द्र गागर नामक एक दलित युवक की आपबीती के...
बहस-तलब : उड़ीसा के इन गांववालों पर क्यों जुल्म ढा रही सरकार?
जब गांववालों ने गांव में ही रहकर इसका सामना करने का निर्णय लिया तो पुलिस और कंपनी के लोगों ने मिलकर गांव के बाहर...
पानी की बुंद-बुंद को तरसते बुंदेलखंड में आरक्षित सीटों का हाल
अपनी खास सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक विशेषताओं के लिए जाना जानेवाला बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में विस्तारित है। इस इलाके में बड़ी समस्या...
चुनावी मौसम में किसका पक्ष रख रहे हैं यूपी के हिंदी अखबार?
बीते 5 फरवरी को दैनिक हिन्दुस्तान के प्रयागराज संस्करण के पृष्ठ संख्या 9 पर एक आलेख नजर आया– ‘आगरा मंडल : असल मुद्दे जाति...