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आम्बेडकर और अन्य शोषित वर्ग

Even today, the OBCs and non-Dalit, non-Brahmin communities are not able to comprehend the significance of this role of Ambedkar. He never confined himself to any caste or castes and never founded any caste-based organization. He wanted to take everyone along

बाबा साहेब आम्बेडकर ने जिन तीन महान आत्माओं को अपना गुरु माना था, वे हैं, महात्मा बुद्ध, महात्मा कबीर और महात्मा फुले। इन तीनो में से एक भी दलित नहीं है। डॉ आम्बेडकर का सारा जीवन लोकतंत्र और रिपब्लिकन आदर्शों को प्रतिष्ठित करने में बीता ताकि भारतीय गणराज्य का हर नागरिक समता, बंधुत्व और स्वतंत्रता के मूल्यों के साथ जी सके। किन्तु इन दिनों उन्हें केवल एक दलित नेता बताने की और यह सिद्ध करने की प्रवृति चल पड़ी है कि उन्होंने सिर्फ दलितों के लिए ही काम किया और केवल दलित ही उनके समर्थक और अनुयायी थे। मुझे लगता है कि यह आम्बेडकर को संकीर्ण दायरे में समेटने का षडयंत्र है।

आम्बेडकर (पहली पंक्ति में दांए से तीसरा) समाज समता संघ के साथ, बम्बई 1927

डॉ आम्बेडकर द्वारा 25 दिसम्बर 1927 को किये गए मनुस्मृति दहन का विशेष महत्व है। मनुस्मृति, ‘चातुर्वण्र्य’ के तर्कों पर जाति व्यवस्था का बोझ शूद्रों (ओबीसी) पर डालती है। इसका निषेध करते हुए बाबा साहेब ने दलित, ओबीसी, विमुक्त जातियों सहित सभी के लिए समतावादी समाज व्यवस्था का मूल्य सामने रखा। इस अभियान में उनके साथ दो सत्यशोधक थे – दिनकरराव जवळकर व केशवराव जेधे। ये दोनों, उन तीन व्यक्तियों में शामिल थे, जिनका पूना के ब्राह्मणों द्वारा दायर किये गए मानहानि के मुक़दमे में, बाबा साहेब ने अक्तूबर 1926 में बैरिस्टर के रूप में बचाव किया था। ये दोनों गैर-ब्राह्मण थे। यह छिपा इतिहास नहीं है कि महात्मा फुले प्रणीत सत्यशोधक आन्दोलन ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ था।

इस तथ्य को सबसे पहले बताने का उद्देश्य है कि यह स्पष्ट किया जाए कि बाबासाहब ने इस देश में व्याप्त विषमता, जो जातिप्रथा के कारण आई और जिसे मनुस्मृति ने क़ानूनी जामा पहनाया, को ख़त्म करने की दिशा में कदम उठाये और मनुस्मृतीय कायदे – कानून को दिलो दिमाग से निकाल देने के लिए वे दलितों के अलावा ब्राह्मणेत्तर समुदायों को साथ लाए, खासकर सत्यशोधकों को, जो मराठा-माली, धनगर या अन्य शूद्र ओबीसी जातियों से थे।

आम्बेडकर ने महामानव जोतिबा फुले को यूं ही अपना गुरु नहीं बनाया। फुले ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को ठोस चुनौती देते हुए 24 सितम्बर 1874 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उन्होंने इस देश की गुलामी के कारणों की पड़ताल करते हुए इसे सिर्फ धर्म- जातिव्यवस्था का परिणाम बताया। ‘किसानों का कोडा’,’गुलामगिरी’, ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ आदि ग्रंथ लिखकर किसान-मजदूर-पिछड़ों में जागृति लाई।

उन्होंने स्पष्ट किया कि धर्मव्यवस्था, धार्मिक ग्रंथों की मूर्खतापूर्ण कथाओं पर आश्रित है। उन्होंने पिछड़ों को समझाया कि भगवान (निर्मिक) ने सभी मानवों को बराबर बनाया है। उन्होंने कहा कि, ‘मांग, महार, महम्मद, ब्राह्मण, इन सबको गले से लगाओ। अपनी बातें कहने के लिए उन्होंने अखंडों (काव्य पंक्तियों) का सहारा लिया और शूद्रातिशूद्रों को बंधुत्व, समानता और शिक्षा का मार्ग दिया। उन्होंने स्थापित किया कि गुलामी से बाहर निकलने का यही मार्ग है। महात्मा फुले और उनकी सहधर्मिणी सावित्रीबाई फुले ने 1848 में लड़कियों और 1851 में दलितों को शिक्षा देने के लिए स्कूल स्थापित किए।

महात्मा फुले के इन्ही विचारों और कार्यों से प्रेरित हो आम्बेडकर ने ‘शिक्षा लो, संगठित हो और संघर्ष करो’ का मन्त्र दिया ताकि ब्राह्मणेत्तर जनता गुलामी से निकल सके। बाबा साहब भी खुद को ‘सत्यशोधक’ मानते थे। बाबासाहब की भूमिका को आज भी ओबीसी या दलित्तेतर समाज समझ नहीं पा रहा है। उन्होने कभी एक जाति का विचार नही रखा और ना ही कोई जति-आधारित संगठन बनाया। वे सबको साथ चलना चाहते थे। उन्होंने कोंकण में किसानों से लगान वसूली की ‘खोद पद्धति’ के विरुद्ध आंदोलन किया।

ओबीसी समुदाय का मुख्य पेशा किसानी रहा है, जिसके लिए आम्बेडकर के सुचिंतित विचार थे। उन्होंने खेती के राष्ट्रीयकरण का विचार रखा था। समुचित सिंचाई के लिए बाँध बनाने की योजना के स्वप्नद्रष्टाओं में बाबा साहब एक थे। आजादी के बाद भाखड़ानंगल सहित बाद के 6 बांधों के निर्माण की योजनाओं में डा आम्बेडकर की दृष्टि काम कर रही थी। नदियों को जोडऩे की बात भी पहली बार उन्होंने ही की थी।

1935 में आम्बेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी की स्थापना की। उसके माध्यम से भी उन्होंने पिछड़ी जातियों और दलितेत्तर लोगों के हित की बात की। इस दौरान डा. पंजाबराव देशमुख, एक सामाजिक कार्यकर्ता व किसान नेता, जो आगे चलकर स्वतंत्र भारत के पहले कृषि मंत्री बने, उनके साथ थे। इस पार्टी ने जातिगत अत्याचार, सामाजिक बहिष्कार आदि के खिलाफ और कृषि और औद्योगिक कामगार आदि के लिए संघर्ष किया। 1937 के सितम्बर में कोंकण के सभी जिलों से आये कुनबी समाज के सदस्यों ने फटे कपड़े पहने हुए और रोटी हाथ में लेकर जमीन पर अपने हक के लिए आम्बेडकर के नेतृत्व में आन्दोलन किया।

सभी जाति-धर्म की महिलाओं के लिए आम्बेडकर ने सबसे पहले 1938 में परिवार नियोजन की बात रखी, लेकिन उनकी इस बात को मानने के लिए इस देश को 1951 तक इन्तजार करना पड़ा। यह क्रांतिकारी पहल सिर्फ दलित वर्ग की महिलाओं के लिए नहीं थी। 19 अप्रैल 1948 को उन्होने ‘हिन्दू कोड बिल’ संविधानसभा के सामने रखा। यह हिन्दू महिलाओं को ब्राह्मणवादी व्यवस्था से निकलने के लिए क्रांतिकारी बिल था। उनके प्रयासों के बावजूद 1951 में हिन्दू कोड बिल पारित नहीं हो सका और उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।
आम्बेडकर ने ओबीसी के लिए क्या किया?

डा आम्बेडकर ने संविधान की धारा 15(4) और 16(4) के तहत एससी, एसटी, अन्य पिछडा वर्ग और महिलाओं के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया। यह आरक्षण मूलभूत अधिकार माना गया। मतलब यह कि संसदीय आरक्षण की तरह हर दस साल में समीक्षा का प्रावधान इसमें नहीं था। इसी के अंतर्गत ओबीसी समाज को मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर आरक्षण मिला। उन्हें स्कॉलरशीप मिली, रोजगार मिला। पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना का प्रावधान भी उसमें है। 6 हजार जातियों में विभाजित ओबीसी समाज को एक वर्ग माना गया।

अंग्रेजों के जाने के बाद 1952 के चुनाव में काँग्रेस ने 60 प्रतिशत ब्राह्मणों को खडा किया। शेष को 40 प्रतिशत जगह दी। इसमें से 56 प्रतिशत ब्राह्मण चुनकर आए और बाकी 6 हजार जातियों से 44 प्रतिशत लोग चुनकर आए। यह तत्कालीन राजनीति थी, जिसने ब्राह्मण समाज को संसद पर कब्जा करने का मार्ग खोला, जिसे डा. आम्बेडकर बखूबी समझते थे। यही कारण था कि उन्होंने बहुजन समाज के लोगों के लिए अलग प्रतिनिधित्व की मांग की थी। हालांकि यह मांग गाँधी को स्वीकार्य नहीं थी और ‘पुणे समझौता’ (1932) के अंतर्गत संसदीय आरक्षण के पर सहमति बनी। आम्बेडकर द्वारा किये गए संवैधानिक प्रावधानों के चलते आज एससी,एसटी वर्गों के 119 सांसद और 1060 विधायक चुने जाते हैं।

अभी हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं कि धीरे-धीरे ब्राह्मणवादी ‘पेशवाओं’ की सी शासन व्यवस्था हम पर थोप दी जाएगी। इससे सावधान रहने की जरूरत है। बहुजन समाज के लिए निश्चित ही एक ही मार्ग है – फुले-शाहू-आंबेडकर के द्वारा दिखाया गया मार्ग।

 

(फारवर्ड प्रेस के  दिसम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

नूतन मालवी

नूतन मालवी सत्यशोधक महिला प्रबोधिनी की सक्रिय कार्यकर्ता हैं। जाति और महिला उत्पीडऩ के खिलाफ सक्रिय नूतन मालवी की मराठी भाषा में 10 से अधिक किताबें प्रकाशित हैं, जिनमें 'विद्येची स्फूर्ति नायिका : सरस्वती कि सावित्री’ और ' स्त्रियाँ देव काय मानता’ प्रमुख हैं

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