h n

फारवर्ड विचार, दिसम्बर, 2014

फारवर्ड प्रेस में हम दो चीजों को ध्रुवसत्य मानते हैं-पहला यह कि 'भारतीय प्रमुखत: अ-ऐतिहासिक हैं' और दूसरा यह कि 'पत्रकारिता इतिहास का पहला मसौदा है'। हम इन तथ्यों की सत्यता से पूर्णत: भिज्ञ तब हुए जब हम आम्बेडकर विशेषांक की तैयारी कर रहे थे।

फारवर्ड प्रेस में हम दो चीजों को ध्रुवसत्य मानते हैं-पहला यह कि ‘भारतीय प्रमुखत: अ-ऐतिहासिक हैं’ और दूसरा यह कि ‘पत्रकारिता इतिहास का पहला मसौदा है’। हम इन तथ्यों की सत्यता से पूर्णत: भिज्ञ तब हुए जब हम आम्बेडकर विशेषांक की तैयारी कर रहे थे। यद्यपि 20वीं सदी का यह ज्ञानी नेता शौकिया परंतु श्रेष्ठ इतिहासविद् था परंतु एक कार्यकर्ता के रूप में वह इतना व्यस्त था कि वह अपनी डायरियां या अपनी गतिविधियों का कोई ब्यौरा दर्ज नहीं कर सका। इसलिए हम उसके पत्रों, भाषणों और लेखों पर निर्भर हैं, जिनमें से अनेक अनुवादित हो चुके हैं। फिर भी, आम्बेडकर के जीवन, विचारों और उनके कार्यों के बारे में कई ऐसी बातें हैं, जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते।

आम्बेडकर स्वयं 19वीं सदी के लिओपाल्ड वान रेंके के ‘एक किन्नर की वस्तुनिष्ठता’ से आगे जाकर एक ऐसे सत्य की तलाश में थे, जो उपयोगी हो। अर्थात वह सत्य, जिसका इस्तेमाल किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जा सके। परंतु अंतत:, जैसा कि उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हू वर शूद्राज़’ की भूमिका में लिखा था, ‘एक इतिहासज्ञ को यथार्थवादी, ईमानदार व निष्पक्ष होना चाहिए-उसे जुनून से मुक्त होना चाहिए, उसका अपने हितों से जुड़ाव नहीं होना चाहिए और उसे राग-द्वेष से परे हटकर केवल सत्य के प्रति वफादार होना चाहिए-सत्य, जो कि इतिहास की जननी है…’। वे कल्पना और व्याख्या को ऐतिहासिक शोध का भाग मानते थे, विशेषकर तब, जब इतिहास की कुछ कडिय़ां गायब हों। ये वे कसौटियां हैं, जिन पर आपको इस अंक में आम्बेडकर पर केन्द्रित लेखों को कसना चाहिए।

जब हमने आम्बेडकर और ओबीसी पर आवरणकथा प्रकाशित करने का निर्णय लिया तब हमें इसके लिए लेखक ढूंढने में बहुत कठिनाई हुई। अंतत: महाराष्ट्र की सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक नूतन मालवी आगे आईं। उनका लेख आम्बेडकर के गैर-ब्राहम्ण व गैर-दलित साथियों पर प्रकाश डालता है, जो राजनेता व कार्यकर्ता के तौर पर उनके शुरूआती दिनों से उनके साथ रहे। परंतु साथ ही, वह अन्य शोधार्थियों के लिए कई प्रश्नों को जन्म भी देता है।

आम्बेडकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और अर्थशास्त्री के रूप में उनके लेखन और कार्य अब तक अंधेरे में ही रहे हैं। अर्थशास्त्र का उन्होंने गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया था और उस पर शोध भी किया था। उनकी तीन विद्वतापूर्ण पुस्तकें मौद्रिक अर्थशास्त्र पर केन्द्रित हैं। अतिफ रब्बानी ने आम्बेडकर के अर्थ-चिंतन पर प्रकाश डाला है और इसमें से कुछ चीजें आज के भारत में भी समीचीन हैं। बोनस के रूप में हमने आम्बेडकर के अर्थशास्त्री के रूप में विकास के मील के पत्थरों का वर्णन किया है। इससे यह साफ है कि अर्थशास्त्री के रूप में उनका जीवन, 1920 के दशक में समाप्त हो गया, यद्यपि उन्होंने बंबई विधानपरिषद् में आर्थिक मसलों पर सन् 1930 के दशक के अंत तक अपना योगदान देना जारी रखा। उसके बाद वे सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में अपने काम में इतने व्यस्त हो गए कि अर्थशास्त्र के ज्ञाता के रूप में उनका योगदान लगभग शून्य हो गया।

हम आम्बेडकर अध्येता गेल ऑमवेट की बाबा साहेब के मुक्ति संघर्ष एजेन्डा के दर्शन की सीमाओं और संभावनाओं पर संक्षिप्त टिप्पणी भी प्रकाशित कर रहे हैं। इस लेख को कई बार पढि़ए, क्योंकि इससे आपको आम्बेडकर के शोध, उनके विचारों और कार्यों का निचोड़ मिलेगा। मुझे विश्वास है कि यह आपको विचारोत्तजक और चुनौतीपूर्ण लगेगा।

इसके अलावा, हमारे सामने प्रोफेसर एमएसएस पांडियन हैं, जिन्होंने आम्बेडकर की तरह कृषि अर्थशास्त्र में अपनी विशेषज्ञता से आगे बढ़कर, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया और बाद में ऐसे इतिहासविद् बने, जिन्होंने सभी अकादमिक श्रेणियों और सीमाओं को पार किया। उनको श्रद्धांजलि देने के लिए अभय कुमार से बेहतर उनका कौनसा शिष्य हो सकता था? पांडियन उनके शोध प्रबंध के गाईड होने से कहीं ज्यादा, उनके गुरू थे।

अंत में बिहार के मुख्यमंत्री मांझी के आर्य उच्च जातियों के बाहरी होने के बारे में उत्तेजक बयानों की चर्चा एक रपट में है जोकि ‘इतिहास का पहला मसौदा’ है। प्रेमकुमार मणि के विचार हमेशा की तरह ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हैं और ऐसे राजनैतिक बयान, जिन्हें अधिकांश इतिहासविद् तथ्य के रूप में स्वीकार करते हैं, के संबंध में दलित-बहुजन परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करते हैं।

(फारवर्ड प्रेस के दिसम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

संबंधित आलेख

सामाजिक आंदोलन में भाव, निभाव, एवं भावनाओं का संयोजन थे कांशीराम
जब तक आपको यह एहसास नहीं होगा कि आप संरचना में किस हाशिये से आते हैं, आप उस व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा...
दलित कविता में प्रतिक्रांति का स्वर
उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस...
पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी
डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि...
कबीर पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक 
कबीर पूर्वी उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर के जनजीवन में रच-बस गए हैं। अकसर सुबह-सुबह गांव कहीं दूर से आती हुई कबीरा की आवाज़...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...