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गुजरात की चमक सिर्फ मीडिया में

सीएजी की रिपोर्ट जब आती है तो हम सरकार की कथनी, करनी और उसके दावे की पोल खुलते देख लेते हैं। लेकिन सीएजी की रिपोर्ट को एक आईना मानकर मीडिया की हकीकत की भी पड़ताल करनी चाहिए। मीडिया की नजरों से क्या छूट जाता है और जो छूटता है उसके कारण क्या है?

हमदाबाद के एक कार्यकर्ता नथुभाई परमार ने 13 नवंबर, 2013 को गुजरात के सुरेन्द्रनगर, वधवां और सयाला में कई तस्वीरें उतारी जिसमें ये देखा जा रहा है कि शौच के मैला को ढोने वाले पुरूष महिला अपने काम में लगे हुए हैं। देश में मैला ढोने की प्रथा पर पाबंदी लगी दी गई हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार ने अपने चमकते गुजरात में सदियों से मैला ढोने वाले महिलाओं और पुरूषों को उसी काम में लगाए रखा। 11 नवंबर को सरकार के बही खातों में दर्ज आमदनी और खर्चों के दावे की जांच करने वाली संस्था सीएजी की रिपोर्ट को गुजरात के विधान सभा में रखा गया। उसी रिपोर्ट में सीएजी ने यह दावा किया है कि गुजरात में दलित समाज की महिलाएं और पुरूषों के द्वारा मैला उठाने और फेंकने की प्रथा बनी हुई हैं। सीएजी ने राज्य सरकार के अधिकारियों से ये भी कहा था कि वे मैला उठाने व ढोने वाले प्रथा के तहत जहां जहां महिलाएं और पुरूषों को मैला उठाने के लिए मजबूर किया जा रहा है, उनकी जांच करें और कार्रवाई करें। लेकिन सीएजी ने दुख के साथ कहा कि राज्य सरकार का संतोषजनक जवाब नहीं मिला।

ये बात उसी वक्त की है जब नरेन्द्र मोदी राज्य के मुख्यमंत्री थे और पूरे देश में चमकते-दमकते गुजरात की तस्वीर पेश की जा रही थी। देश भर के लोगों को ये बताया जा रहा था कि कैसे गुजरात की तकदीर को नरेन्द्र मोदी ने बदल डाला है और भविष्य में उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए। मीडिया में ये अभियान सा चला। अब भी मीडिया में देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के झाडु से सड़क सफाई अभियान को उछाला जा रहा है। सफाई अभियान के बजट बन रहे हैं। सफाई अभियान के विज्ञापन तैय़ार हो रहे हैं। गुजरात में भी सफाई अभियान का बजट बना था और सरकार ने ये दावा पेश कर दिया कि जितने का बजट बना वह खर्च कर दिया गया और सदियों से मैला ढो रहे दलित उन गैरइंसानी काम से आजाद हो गए हैं। लेकिन एक ही सच सामने आया कि दलित अब भी मैला ढो रहे हैं। दलित सफाई के काम से आजाद नहीं अलग किए जा रहे हैं क्योंकि बड़ी-बड़ी कंपनियां सफाई के धंधे में आने लगी है। जैसे कपड़े सिलने का काम, बाल काटने का काम, कपड़े धोने का काम बड़ी-बड़ी कंपनियां करना चाहती है। जिन जातियों को उनके काम से अलग किया जा रहा है तो इसीलिए नहीं कि वर्ण व्यवस्था को खत्म करना है। वर्ण व्यवस्था का दलित वर्ग-व्यवस्था में दलित बना रहे, इसका इंतजाम किया जा रहा है।

हमें इस पहलू पर विचार करना चाहिए कि गुजरात में जो मैला ढोने की प्रथा चली आ रही है उसे मीडिया ने छिपाया क्यों? मीडिया का मतलब यह नहीं होता है कि जब सीएजी बताएं तभी उसे दलितों की बदत्तर हालात नजर आएं। मीडिया का मतलब यह हैं कि वह अपनी नजरें सभी पर एक सामान दौड़ाये और सत्ता के साथ समाज को बताएं कि कौन बदत्तर हालात में जीने को मजबूर हैं। आखिर मीडिया की नजर दलितों के हालात की तरफ खुद ही क्यों नहीं जा पाती हैं? सीएजी की रिपोर्ट के आने के बाद नथभाई परमार ने तस्वीरें दिखाकर आंकड़ों की सच्चाई को उजागर कर दिया। लेकिन ये तो तस्वीरें तब भी गुजरात के शहरों व उसकी गलियों में मौजूद थी जब मीडिया गुजरात के साफ आईना को लेकर देश भर में घूम रहा था। गुजरात में सरकारी बजट से जो शौचालय बन रहे थे वे किसी काम के नहीं थे।

सीएजी की रिपोर्ट जब आती है तो हम सरकार की कथनी, करनी और उसके दावे की पोल खुलते देख लेते हैं। लेकिन सीएजी की रिपोर्ट को एक आईना मानकर मीडिया की हकीकत की भी पड़ताल करनी चाहिए। मीडिया की नजरों से क्या छूट जाता है और जो छूटता है उसके कारण क्या है? सामाजिक कारणों से मीडिया की नजरों में जो हालात और लोग नहीं आ पाते हैं, वे हमारे अध्ययन के विषय होने चाहिए। सामाजिक क्षेत्र में गुजरात सरकार के दावे पर भी सीएजी की रिपोर्ट हैं। मार्च 2012 तक के दावे और सच का आमना सामना इस रिपोर्ट में किया जा सकता हैं। इसमें दलित विद्यार्थियों के छात्रावासों में खाने पीने की सुविधाओं का एक अध्ययन मिलता हैं। उसकी कुछ बातें यहां पेश करते हैं और फिर आगे की बातचीत करेंगे।

गुजरात में 64 दलित छात्रावास हैं, जिनमें 4923 विद्यार्थी रह सकते हैं लेकिन 31 मार्च 2012 तक 4044 विद्यार्थी रह रहे थे। 2009-12 के दौरान उन्हें खाना मुहैया कराने के लिए 8.53 करोड़ रूपये खर्च करने का दावा किया गया।16 जिलों में 39 छात्रावासों के मेस (खाना बनने और परोसे जाने के स्थान) को जनवरी 2012 से अप्रैल 2012 के बीच जाकर देखा गया। इस जांच-पड़ताल की आखिरी पंक्ति है कि छात्रावासों में पीने के साफ पानी की व्यवस्था भी सुनिश्चित नहीं की जा सकी। रिपोर्ट में बेहद रोचक विवरण है कि दलित विद्यार्थियों के भोजन और पानी के लिए खर्च किए जाने वाले पैसे कैसे इधर-उधर चले गए। एक पंक्ति है कि ठेकेदार ने अनाज की सफाई और पिसाई के लिए जो मशीनें किराये पर दी उस मशीन में 2009-11 के दौरान 11, 945 किलोंग्राम गेहूं का नुकसान हो गया। इतने गेहूं की कीमत 1.90 लाख रूपये आंकी गई। इसके साथ पिसाई के लिए 1.05 लाख रूपये भी दिए गए। सरकार ने कहा कि दलित विद्यार्थियों ने मौखिक शिकायत की थी कि जो मिलवाटी आटे की रोटी दी जाती है उसके खाने के बाद पेट खराब हो जाता है। लिहाजा सरकार ने गेहूं की खरीद की और उसकी सफाई- पिसाई करवाने का इंतजाम किया था। लेकिन सीएजी ने पूछा कि पेट खराब होने की शिकायत मिलने का जो दावा किया जा रहा है, यदि वह सही है, तो पहले आटे को जांच के लिए भेजा जाना चाहिए था। दूसरा सप्लाई करने वाले ठेकेदार के खिलाफ क्यों नहीं कार्रवाई की गई और तीसरी बात कि जिसने सफाई पिसाई करने वाली मशीन दी उसके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की गई।

लोकतंत्र में दलित सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर सत्ताधारियों के लिए खेलने और खाने की वस्तु हैं। मीडिया दलितों के जीवन से बेहद दूर है और वह दूर ही रहना चाहता है। उसे दलितों के घरों तक जाने के लिए वैशाखी चाहिए। कभी कभी जब कोई संस्था को दया और सहानूभूति दिखाने की जरूरत लगती है तब मीडिया को दलित याद आ जाते हैं। गुजरात की चमक की खबर फीकी नहीं पड़ जाए, गुजरात में दलितों की तरफ देखना और उन्हें सुनना भी कम हो गया है। यही बात पूरे देश में देखी जा रही हैं। मीडिया सत्ता के सरोकार का हमसफर है।

 

(फारवर्ड प्रेस के  दिसम्बर 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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