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हिन्दुत्व को मजबूत करती एमआईएम

नेहरू ने कहा था कि अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के मुकाबले बहुसंख्यक सांप्रदायकिता ज्यादा खतरनाक है क्योंकि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता, देशभक्ति का चोला ओढे रहती है और भोली-भाली जनता इसमें फंस जाती है

जिस समय देश में हिन्दुत्व की विघटनकारी राजनीति अपने उफान पर है, उसी समय असादुद्दीन ओवैसी की पार्टी ‘मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुसलमीन’ यानी एमआइएम हैदराबाद से निकलकर, पूरे देश में अपना प्रसार करने जा रही है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर मिली अप्रत्याशित सफलता के बाद, एमआइएम अब उत्तरप्रदेश, बिहार, दिल्ली व झारखंड में अपना काम शुरू कर चुकी है। बिहार और दिल्ली में चुनाव बहुत दूर नही हैं, लिहाजा एमआईएम काफी तेजी से इन राज्यों में अपनी जडें ज़माने की कोशिश कर रही है।

भाजपा की उत्तरप्रदेश इकाई के नेतृत्व का यह मानना है कि एमआइएम के सूबे में आने के बाद, उसे अपनी विचारधारा के इर्द-गिर्द घूमने वाला एक मजबूत सांप्रदायिक विपक्ष मिल जाएगा। दरअसल, सिर्फ उत्तरप्रदेश ही नहीं, एमआईएम जहाँ-जहाँ भी जाएगी, वहां वह ‘हिन्दुत्व’ की बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का पोषण करेगी और देश की राजनीति में भाजपा की स्वीकार्यता को बढ़ाएगी।

लगभग 80 वर्ष पुरानी एमआइएम पर जहाँ हमेशा से ही यह आरोप लगते रहे हैं कि इसके नेता अपने भड़काऊ भाषणों से हैदराबाद में मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं वहीं इसके समर्थक इसे भारतीय जनता पार्टी और दूसरे अन्य मुस्लिम-विरोधी उग्र हिन्दू सांप्रदायिक संगठनों को माकूल जवाब देने वाली ताकत के रूप में देखते हैं।

इधर, हाल के राजनैतिक घटनाक्रम से यह साफ हो गया है कि भाजपा और ‘एमआइएम’, देश में सांप्रदायिकता फ़ैलाने में लिए एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं। पिछले साल हुए नागपुर नगर निगम के चुनाव के बाद से दोनों पार्टियां मिलकर नगर निगम चला रही हैं। हालिया निर्वाचित महाराष्ट्र की सरकार द्वारा विधान सभा में रखे विश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान, एमआइएम के दोनों सदस्यों ने अनुपस्थित रहकर देवेंद्र फडऩवीस सरकार की अपरोक्ष रूप से मदद की। आखिर इन दोनों पार्टियों के असली इरादे क्या हैं? सवाल यह है कि क्या भाजपा और एमआइएम के बीच देश की राजनीति को हिन्दू सांप्रदायिकता बनाम मुस्लिम सांप्रदायिकता के ‘द्विध्रुवीय’ आधार पर आगे बढ़ाने के लिए कोई गुप्त’ समझौता हो चुका है?

एमआइएम दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी उतरने की तैयारी कर रही है। अगर ‘एमआइएम’ दिल्ली में चुनाव लड़ती है तो दिल्ली का चुनावी परिदृश्य हिन्दुत्व और निजाम-ए-खलीफा के बीच संघर्ष में बदल सकता है। ध्रुवीकरण की राजनीति के कारण मुल्क की आम जनता की रोटी, कपड़ा, शिक्षा, मकान, स्वास्थ्य, रोजगार आदि से जुड़ी आधारभूत समस्याएं गौण हो जातीं हैं। यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक धार्मिक कट्टरपंथ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों ही लोकतंत्र का गला घोंटना चाहते है। नेहरू ने कहा था कि अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के मुकाबले बहुसंख्यक सांप्रदायकिता ज्यादा खतरनाक है क्योंकि बहुसंख्यक सांप्रदायिकता, देशभक्ति का चोला ओढे रहती है और भोली-भाली जनता इसमें फंस जाती है। जब तक जनता को सच्चाई का एहसास होता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है।

बहरहाल, अगर ‘एमआइएम’ दिल्ली में किस्मत आजमाने जा रही है तो इसमें अप्रत्याशित कुछ भी नहीं है। वर्तमान में जिस तरह से दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हो रही हैं उसे देखते हुए लगता है कि यहां भी कुछ न कुछ तो ‘फिक्स’ है। इन हालातों में मुस्लिम-बहुल इलाकों में एमआईएम का खाता खुल सकता है। इन चुनावों में वह किस रणनीति के तहत मैदान में उतरेगी? क्या वह दिल्ली में मुस्लिम ध्रुवीकरण के बूते ही अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश करेगी या फिर ओवैसी के पास कोई नया फार्मूला है? महाराष्ट्र में ‘जय मीम’ और ‘जय भीम’ नारे के सहारे दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कोशिश की गई थी। एमआइएम की रणनीति है कि जहां मुस्लिम आबादी 20 फीसदी या उससे ऊपर है, वहां ज्यादा ध्यान दिया जाए।

दरअसल भाजपा और एम-आई-एम जैसे पार्टियों की राजनीति और मकसद एक ही हैं। ओवैसी और उनके जैसे अन्यों को समझना चाहिए कि वे देश की धर्मनिरपेक्ष आत्मा के खिलाफ जाकर लंबी पारी नहीं खेल सकते। वे इस्तेमाल हो रहे हैं, भाजपा और हिन्दुत्व के हित में। इससे इतर इनकी कोई हैसियत नहीं है।

सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की हार

मजलिस-ए-इत्तेहाद-अल-मुसलमीन (अर्थात मुस्लिम एकता परिषद्) की स्थापना 1927 में हैदराबाद के तत्कालीन शासक (निज़ाम) को सलाह देने और उनका समर्थन करने के लिए हुई थी। यह सभी मुस्लिम पंथों और बिरादरियों का मिलाजुला संगठन था। निज़ाम के रजाकारों की हार और हैदराबाद के भारतीय संघ में विलय के बाद, ‘एमआईएम’ सन् 1957 तक निष्क्रिय रही। इस साल उसे सुल्तान सलाउद्दीन ओवैसी ने पुनर्जीवित किया ‘ताकि आपके (मुसलमान) तर्कों को राजनैतिक बल मिल सके’। सन् 1960 में एमआईएम ने हैदराबाद नगर निगम की 30 सीटों पर चुनाव लड़ा और इनमें से 19 पर जीत हासिल की। 1967 में एमआईएम के तीन उम्मीदवार विधानसभा सदस्य चुने गए और 1986 में एमआईएम हैदराबाद नगर निगम में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। आंध्रप्रदेश में तेलुगूदेशम पार्टी के उदय के बाद, एमआईएम ने यह भविष्यवाणी की कि हैदराबाद के गैर-मुस्लिम वोट, तेलुगूदेशम और कांग्रेस के बीच बंट जाएंगे। एमआईएम अपने भड़काऊ वक्तव्यों के लिए जानी जाती है। उसे सन् 1984 के आम चुनाव में 35 प्रतिशत मुस्लिम मत प्राप्त हुए और तब से लेकर आज तक वह चुनावों में जीत हासिल करती आई है। सन 1980 के दशक में हुए सांप्रदायिक दंगों और विशेषकर बाबरी मस्जिद अभियान के कारण मुसलमानों में उपजे असुरक्षा के भाव ने उन्हें एमआईएम से जोड़ा।

तेलंगाना के बाहर, ‘एमआईएम’ ने अपनी पहली बड़ी जीत नांदेड़ नगर निगम चुनाव में हासिल की। नांदेड़ में मुसलमान, आबादी का लगभग 30 फीसदी हैं और सन 2012 में हुए चुनाव में एमआईएम ने 81 में से 11 सीटें जीतीं। यह औरगांबाद, मालेगांव आदि के निर्दोष मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी और उन्हें आतंकवाद संबंधी मामलों में फंसाए जाने की प्रतिक्रिया थी। हालिया विधानसभा चुनाव में औरंगाबाद केंद्रीय सीट से इम्तियाज़ ज़लील और मुंबई की बायकुला सीट से वारिस पठान की जीत भी इन्हीं कारणों से हुई।

महाराष्ट्र के दो चुनाव क्षेत्रों में एमआईएम की विजय के बाद एक मुस्लिम युवक ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा, ”हम हिंदू राष्ट्रवादियों के बढ़ते प्रभाव से डरते नहीं हैं, हम सभी परिणाम झेलने को तैयार हैं। जो कुछ हो चुका है उससे बुरा कुछ नहीं हो सकता। अब हमें अपनी मांगे मनवानी ही होंगी”। एमआईएम की आक्रामक और भड़काऊ राजनीति की जीत, दरअसल, सभी ‘धर्मनिरपेक्ष’ पार्टियों की हार है। ये पार्टियां न तो राज्य में कानून के शासन की रक्षा कर सकीं और ना ही राज्य का हिंदूकरण रोक सकीं। एमआईएम, दरअसल, मोदी की भाजपा की प्रतिकृति है। जिस तरह मोदी बहुसंख्यक समुदाय के युवकों की महत्वाकांक्षाओं को भुना रहे हैं उसी तरह एमआईएम मुस्लिम युवकों की इच्छाओं-आकांक्षाओं से खेल रही है। एमआईएम मुस्लिम युवकों को ”मुस्लिम राजाओं के गौरवशाली इतिहास” के झूठे अहंकार से भर रही है। – इरफ़ान इंजीनियर

 

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2015 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

Jaiswal

शरद जायसवाल स्वतंत्र पत्रकार हैं व स्त्री अध्ययन के प्राध्यापन से भी जुडे रहे हैं।

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