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खबरें जो खबर नहीं बन सकीं

यदि कोई संघ और उनके संगठनों की गलत बातों का विरोध करना चाहे तो उसे समाचारपत्रों में दो शब्द भी नसीब नहीं होते। यहां तक कि संघ के लोगों के संविधान की भावनाओं के खिलाफ वक्तव्य भी छप जाते हैं परन्तु उसके विरोध में लोगों की भावनाओं को जगह नहीं मिल पाती

दैनिक जागरण‘, विश्व का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार होने का दावा करता है। 12 नवबंर 2014 को इस अख़बार के जमुई (बिहार) संस्करण के पाठकों को छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में नसंबदी के तुरंत बाद 11 महिलाओं की मौत की खबर नहीं देखने को मिली होगी। अररिया (बिहार) के पाठक भी इस खबर से वंचित रह गए होंगें। ‘दैनिक जागरण’ के सैकड़ों संस्करणों में से कुछ के अध्ययन के आधार पर यह दावा किया जा सकता है कि विश्व में सबसे ज्यादा पाठकों वाले इस अखबार के हजारों पाठकों को यह खबर पढऩे को नहीं मिली। कई संस्करणों में तो यह खबर छपी ही नहीं और जिनमें छपी भी, उनमें इसका प्रस्तुतीकरण एकदम अलग-अलग ढंग से किया गया। अगर ऐसा किसी विशेष कारण के चलते किया गया था, तो यह लेखक उसे समझने में असमर्थ है। दिल्ली शहर संस्करण में यह समाचार पहले पृष्ठ पर है तो अल्मोड़ा के पाठकों के लिए यह खबर चौदह नंबर पृष्ठ पर दी गई है। आसनसोल में 11 नंबर पृष्ठ पर है तो इलाहाबाद में 15 नंबर पर। आजमगढ़ संस्करण में यह राष्ट्रीय समाचारों के पृष्ठ संख्या 13 पर सिंगल कॉलम में हैं। मेरठ में 108 शब्दों में बीच में दबी हुई है यह खबर। झारखंड की राजधानी रांची के संस्करण में देश-विदेश की खबरों की पृष्ठ संख्या 16 पर छपी है। देश के सबसे बड़े राज्य की राजधानी लखनऊ में, जिन्होने 12 नवंबर को ‘दैनिक जागरण’ देखा होगा, वे भी इस बड़ी घटना की जानकारी से वंचित रह गए होंगें।

किसी बड़ी खबर को देने का सिलसिला कई-कई दिनों तक चलता है, जिसे पत्रकारिता की भाषा में फ़ॉलोअप कहते हैं। ‘दैनिक जागरण’ ने यह खबर फॉलोअप के लायक नहीं समझी।

दूसरी मजेदार बात यह है कि ‘दैनिक जागरण’ के लिए इस घटना को ‘नई दुनिया’ के बिलासपुर संवाददाता ने कवर किया था। ‘दैनिक जागरण’ के मालिक ‘नई दुनिया’ के भी मालिक हैं। कोई खबर किस रूप में लाखों पाठको तक जाती है, इसका यह एक उदाहरण है। यदि सम्बंधित संवाददाता किसी तथ्य को छिपा लेता है तो वह लाखों पाठकों को उस तथ्य की जानकारी से वंचित कर सकता है। इससे उसकी ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह महत्वपूर्ण होता है कि कोई समाचारपत्र कौन सा तथ्य छिपा रहा है या उसे अनदेखा कर रहा है। इसके साथ ही, यह भी महत्वपूर्ण होता है कि किस तरह की खबरों व तस्वीरों के पास कोई खबर छपती है। रांची में मिस इंटरनेशनल की भव्य तस्वीर के नीचे नसबंदी के बाद मौतों की खबर छपी है और कई संस्करणों में विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय की तस्वीर के साथ। तीसरी बात यह कि इस समाचार में यह उल्लेख नहीं किया गया है कि जो तेरह महिलाएं मारी गईं, उनमें से बारह पिछड़े वर्ग की थी और एक बैगा आदिवासी थी, जबकि बैगा आदिवासी महिलाओं की नसबंदी पर 1984 से ही रोक है क्योंकि यह आदिवासी जाति विलुप्त होने की कगार पर है।

जब किसी घटना की खबर के साथ ही ऐसा सलूक है तो उससे जुड़ी अन्य ख़बरों का प्रकाशन तो असंभव-सा दिखता है। खबर में यह बात कहीं नहीं आई कि किसी भी केन्द्रीय मंत्री या भाजपा नेता ने घटनास्थल का दौरा क्यों नहीं किया।

केन्द्रीय मंत्री साध्वी निरंजना ज्योति ने जब ‘हरामजादे’ वाली साम्प्रदायिक टिप्पणी की तो उनके दलित होने का प्रचार किया गया परन्तु जब संसद में उनके इस्तीफे की मांग की गई तो समाचारपत्रों ने इस प्रचार में सहायता की कि चूँकि साध्वी दलित हैं, लिहाजा विपक्षी पार्टियां उनके पीछे पड़ी हैं।

समाचारों के प्रकाशन की कसौटी

हम यह जानने के लिए आतुर हैं कि आखिर समाचारपत्रों में समाचारों के प्रकाशन की क्या कसौटी है? क्या पाठकों को खबरों से वंचित रखना या खबर को उचित जगह पर उचित तरीके से प्रस्तुत नहीं करना पत्रकारिता के नैतिक मानदंडों का उल्लंघन नहीं है? आखिर क्या कारण है कि समाज के वंचित तबकों से संबंधित उन खबरों से आम पाठको को महरूम रखा जाता है, जिनमें उनका आर्थिक और सामाजिक शोषण, दमन प्रतिबिंबित होता है?

यह शिकायत आम है कि पिछड़े, दलितों, आदिवासियों, धार्मिक अल्पसंख्यकों व महिलाओं की दुर्दशा और बदहाली से जुड़ी खबरों को समाचारपत्रों में जगह नहीं दी जाती। टीवी चैनलों को तो शुरू से ही ऐसी ख़बरों से परहेज़ रहा है। हर जिले में पाठकों को एक सूची तैयार करनी चाहिए कि कौन से समाचारपत्र किस तरह की खबरों से उन्हें दूर रख रहे हैं। जिले के पाठकों के लिए केवल जिले में होने वाली खबरें ही मायने नहीं रखती हैं। खबरें किसी भी जिले के पाठकों को पूरे देश और समाज से जोड़ती हैं। लेकिन समाचार-पत्र किसी जिले की खबर को केवल उसी जिले के पाठको को परोसकर उनके जुड़ाव को सीमित कर देते हैं। देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से के जुडऩे का अर्थ लोगों के सुख-दुख से जुडऩा होता है लेकिन समाचारपत्र अपने पाठकों के केवल बाजार से जुडऩे को ही देश से जुडऩे के रूप में देखते हैं।

पिछले कई वर्षों से जिस तरह की खबरें नहीं छपती या नहीं दिखाई जाती, उन पर मीडिया स्टडीज ग्रुप लगातार नजऱ रख रहा है। इसके उदाहरण यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं ताकि खबरें छपने और नहीं छपने के अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिक शास्त्र को पाठक समझ सकें।

बनारस से यह जानकारी मिली कि मुकेश अंबानी और उनकी पत्नी नीता अंबानी गंगा के एक घाट पर गए। उस दिन नीता अंबानी का जन्मदिन था। ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ और ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के बनारस संस्करणों में इस खबर को सबसे अधिक महत्व दिया गया। तस्वीरें भी छपीं। दूसरी तरफ, सैकड़ों बौद्ध पदयात्रा पर थे। यह गंगा की सफाई के लिए एक बड़ा आयोजन था। लेकिन मुकेश अंबानी के लिए उन्हें रोक दिया गया। अंग्रेजी के दोनों समाचारपत्रों में बौद्धों के आयोजन की कोई खबर नहीं आई।

भोपाल से पत्रकार और धर्मनिरपेक्षता के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता एल. एस. हरदेनिया ने परेशान होकर मुझे फोन किया और जिन घटनाओं की खबरें नहीं छपीं, उनका विवरण दिया। उनके अनुसार, 3 दिसंबर, 2014 को तीन हजार से ज्यादा लोगों ने जमा होकर शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाने की मांग की। ये लोग मणिपुर, तमिलनाडु, जम्मू कश्मीर और केरल समेत देश के लगभग हर हिस्से से यात्राओं के रूप में भोपाल पहुंचे थे। ये लोग भोपाल में अपनी राष्ट्रीय यात्रा का समापन करना चाहते थे ताकि वे भोपाल गैस के पीडि़तों के साथ अपनी एकता जाहिर कर सकें। इस मौके पर सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हुए। सेमिनार भी हुआ। देश में शिक्षा का ढांचा ऐसा बन गया है कि गरीब परिवारों के बच्चों का पढऩा असंभव सा हो गया है। इस लिहाज से यह यात्रा देश में एक महत्वपूर्ण घटना थी। पूरे देश को जोड़कर शिक्षा के ढांचे में बदलाव की बात ये लोग उठा रहे थे। लेकिन समाचार-पत्रों से यह खबर गायब थी।

इसके कुछ दिन बाद श्रम कानूनों में मालिकों के पक्ष में परिवर्तन करने के सरकार के फैसले के खिलाफ एक बड़ा कार्यक्रम भोपाल में आयोजित किया गया। लगभग सभी मजदूर संगठनों ने उसमें हिस्सा लिया। इनमें आरएसएस से जुड़ा भारतीय मजदूर संघ भी शामिल था। लेकिन इसकी खबर भी समाचार-पत्रों में नदारद थी।

ऐसी ही खबरों की सूची हरदेनिया फोन पर बता रहे थे। उनकी शिकायत है कि यह आम हो चला है। जबकि दूसरी तरफ, राष्ट्रीय सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के सैकड़ों संगठनों के बयान और उनकी गतिविधियों की खबरें इस तरह छपती हैं कि उनपर सबकी निगाहें चली जाए। यही नहीं, यदि कोई संघ और उनके संगठनों की गलत बातों का विरोध करना चाहे तो उसे समाचारपत्रों में दो शब्द भी नसीब नहीं होते। यहां तक कि संघ के लोगों के संविधान की भावनाओं के खिलाफ वक्तव्य भी छप जाते हैं परन्तु उसके विरोध में लोगों की भावनाओं को जगह नहीं मिल पाती।

 

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2015 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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