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महारों और मांगों के हाथों पेशवाई का अंत

आंबेडकर स्वयं एक महार थे और उनका जन्म महू में हुआ था। उनके पिता सेना के सेवानिवृत्त सूबेदार थे। वे 1 जनवरी 1927 को कोरेगांव स्मारक की यात्रा पर गए थे। आज हजारों दलित इस स्मारक पर हर साल इकट्ठा होकर उन महारों के पराक्रम को याद करते हैं जिन्होंने पेशवाओं के अन्यायपूर्ण ब्राहम्णवादी शासन को समाप्त करने में मदद की थी

सन् 1796 में पेशवा बाजीराव द्वितीय, टुकड़ों में बंटे मराठा राज्य के शासक बने। जैसा कि इतिहासकार अनिरूद्ध देशपांडे लिखते हैं, ‘आने वाले समय ने यह साबित किया कि वे एक कलंकित पिता के सच्चे पुत्र थे’। उनके शासनकाल (1796-1818) में मराठों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेनाओं से दो युद्ध किए। इन युद्धों का अंत, मराठा साम्राज्य के अस्त और मध्य व पश्चिमी भारत में ब्रिटिश राज के उदय में हुआ।

बाजीराव द्वितीय

बाजीराव द्वितीय, पुणे में ब्रिटिश शासकों की कठपुतली भर थे और यह उन्हें रास नहीं आ रहा था। वे चुपचाप षडय़ंत्र रच रहे थे ताकि वे अंग्रेेजों को उस धरती से बाहर खदेड़ सकें , जहां पर उनका और उनके ब्राह्मण पूर्वजों का, लगभग एक सदी से निर्वाध शासन चल रहा था-तब से, जब उन्होंने मराठा भोंसले वंश से सत्ता हथियाई थी। परंतु सन् 1817 में उनके वेतनभोगी सैनिक कमांडर कैप्टन फोर्ड अपनी सैनिक टुकडिय़ों के साथ अंग्रेज रेसीडेंट ‘मोंटस्टूआर्ट एलफिन्स्टोन’ से जा मिले और उनकी योजनाएं धरी की धरी रह गईं। वे अपने ब्राह्मण अनुयायियों के साथ अपने पूर्वजों की राजधानी से भाग निकले। उनके ब्राह्मण अनुयायियों को डर था कि पेशवाई के अंत के साथ ही महाराष्ट्र के समाज पर उनका प्रभुत्व समाप्त हो जाएगा। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेनाओं ने पेशवा और उनकी सेना का पीछा करना शुरू किया और खड़की, यरवदा और कोरेगांव में हुए युद्धों में उसे पराजित किया। खड़की के पास एक पहाड़ी से अपनी सेनाओं को बुरी तरह पराजित होते देखने के बाद, बाजीराव ने युद्ध के मैदान से पलायन कर दिया और वे ‘पलपुत्ता’ (भगोड़ा) कहलाए। इन युद्धों में से केवल कोरेगांव के युद्ध की याद अभी बाकी है और यद्यपि इस युद्ध में अंग्रेज विजयी हुए थे, फिर भी, इस जीत का जश्न भारतीय मनाते हैं। अन्यथा तो हमारे देश में आधिकारिक रूप से केवल ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता का जश्न मनाया जाता है।

कोरेगांव की लड़ाई

‘कोरेगांव मध्यम आकार का एक गांव है, जो बीमा नदी के खड़ी चढ़ाई वाले तट के एकदम ऊपर स्थित है। परंतु चूंकि भारतीय नदियों के पाट बहुत चौड़े होते हैं और बारिश के मौसम के अलावा शायद ही कभी भरते हैं, इसलिए दोनों तटों के बीच के केवल थोड़े से हिस्से में पानी बहता था और गांव, पानी से 50 या 60 मीटर दूर था। वहां एक मिट्टी की दीवार भी देखी जा सकती है, जो शायद पहले गांव के चारों ओर थी परंतु अब वह नदी की ओर कई स्थानों पर टूटी हुई है और पूर्व की तरफ पूरी तरह बिखर चुकी है’, बाम्बे नेटिव इन्फेन्ट्री की प्रथम रेजिमेन्ट के कैप्टन जेम्स ग्रांट डफ (1799-1858) ‘ए हिस्ट्री ऑफ द मराठाज’ (खण्ड 3) में लिखते हैं। पाद टिप्पणी में वे जोड़ते हैं, ‘मैं गांव का यह विवरण केवल अपनी स्मृति से दे रहा हूं। मैं वहां सात या आठ वर्षों से नहीं गया हूं। बल्कि उस सुबह के बाद मैंने वह गांव नहीं देखा है, जिस दिन कैप्टन स्टॉन्टन ने वहां से रवानगी डाली थी। उस समय मैंने उस युद्ध स्थल को ध्यानपूर्वक देखा था परंतु तब मेरा इरादा उसका विवरण प्रकाशित करने का नहीं था’।

”बटालियन वर्ष के आखिरी दिन, रात लगभग आठ बजे, सिरूर से रवाना हुई”, डफ लिखते हैं। ”उसमें करीब 500 सैनिक थे और 6 पाउंड की दो तोपें थीं, जिन्हें संचालित करने के लिए एक सार्जेन्ट और एक लेफ्टिनेंट के अधीन मद्रास आर्टिलरी के 24 यूरोपियनों का दल भी था। उसके साथ ही हाल ही में भर्ती 300 सैनिकों का घुड़सवार दस्ता भी था। इन सबकी कमान कैप्टन स्टॉन्टन के हाथों में थी। पूरी रात चलने के बाद, नए साल के पहले दिन के लगभग दस बजे सुबह, यह टुकड़ी बीमा नदी के इस पार, कोरीगांम की चढ़ाई पर पहुंची। वहां उन्होंने देखा कि नदी के उस पार मराठाओं की पूरी सेना, जिसमें लगभग 25 हजार सिपाही थे, उनका इंतजार कर रही है। कैप्टन ने नदी के तट की ओर बढऩा जारी रखा और पेशवा की सेना को ऐसा लगा कि उनका इरादा नदी पार करने का है। परंतु ज्योंही वे गांव में पहुंचे उन्होंने वहीं मोर्चा जमा लिया’।

पेशवा की पैदल सेना, जिसमें ‘नियमित सैनिकों के अलावा अरब और गोसाईं भी शामिल थे’ ने गांव पर हमला कर दिया। राकेटों के लगातार हमले से कई घरों में आग लग गई। ‘गांव को घुड़सवार और पैदल सैनिकों ने घेर लिया और पहला हल्ला बोलने वाली टुकड़ी की सहायता के लिए और सैनिक पीछे से आ गए। नदी तक पहुंचने का रास्ता बंद कर दिया गया। कैप्टन स्टॉन्टन के पास अब खानेपीने की सामग्री प्राप्त करने का कोई रास्ता नहीं था और रात भर चलने से थकी उनकी सेना, बिना खाना या पानी के, कड़ी धूप में फंस गई थी। इसके बाद वह संघर्ष शुरू हुआ, जिसका सामना अंग्रेजों को भारत में कई बार करना पड़ा है। एक-एक फुट जमीन के लिए संघर्ष हुआ। कई गलियों पर कई बार कब्जा करना और छोडऩा पड़ा।’

पेशवा की सेना के अरब सैनिकों ने एक तोप पर कब्जा कर लिया और एक तोपची को मार गिराया। आधे से अधिक यूरोपियन अधिकारी घायल हो चुके थे और उनके पास उनका दर्द कम करने के लिए एक बूंद पानी भी न था। जो लड़ रहे थे, उनमें से कई पानी की कमी के कारण बेहोश होकर गिरते जा रहे थे। परंतु जल्दी ही स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आया। एक घायल ब्रिटिश अधिकारी ने देशी सैनिकों की एक टुकड़ी के साथ वीरतापूर्वक तोप पर पुन: कब्जा कर लिया।’जिन सिपाहियों ने यह काम किया उन्हें रोकना किसी के बस की बात नहीं थी। तोप पर पुन: कब्जा हो गया और एक के ऊपर एक पड़ी अरब सैनिकों की लाशें इस बात का सुबूत थीं कि तोप को बचाने के लिए कितना जबरदस्त प्रयास किया गया था’।

अंधेरा हो जाने के बाद, पेशवा की सेनाओं का आक्रमण कुछ हल्का पड़ा और कंपनी के सैनिकों को अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी उपलब्ध हो गया। जल्दी ही गोलीबारी बंद हो गई और अगली सुबह तक पेशवा की सेना का कहीं अतापता नहीं था। सुबह कैप्टन स्टॉन्टन ने अपने सिपाहियों से उन लोगों पर गोलियां चलाने को कहा जो ‘गांव के आसपास भटक रहे थे।’ पेशवा की सेना अंधेरे का लाभ उठाकर पीछे हट गई थी। कैप्टन स्टॉन्टन घायलों को अपने साथ लेकर अगली सुबह सिरूर पहुंच गए। कंपनी के 175 सैनिक मारे गए जबकि पेशवा की सेना के पांच-छ:ह सौ सैनिकों ने अपनी जानें गवांई।

कोरेगांव की विरासत

बाद में कोरेगांव के युद्धक्षेत्र में कंपनी सेना की इस सफलता की याद में एक 60 फीट ऊँचा स्मारक स्तंभ बनाया गया। इस स्तंभ के चारों ओर लगी संगमरमर की पट्टिकाओं पर अंग्रेजी और मराठी में लिखा हुआ है, ‘पूर्व में ब्रिटिश आर्मी के सबसे गौरवपूर्ण विजय अभियानों में से एक की याद में’। परंतु इस स्मारक का आज अंग्रेजों के लिए तो छोडि़ए, उनके पूर्व शासितों के लिए भी कोई महत्व नहीं है। जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि इस स्मारक पर उत्कीर्ण मृतक सैनिकों के नामों में से कम से कम 20 का अंत ‘नैक’ से होता है – इस्नैक, राईनैक, गुननैक आदि- ये वे नाम हैं जो ‘अछूत’ महार और मांग सैनिकों के थे।

अपनी पुस्तक ‘द ट्राईब्स एंड कास्टस ऑफ द सेन्ट्रल प्राविंसेस ऑफ इंडिया’ (1916) में सेन्ट्रल प्राविंसेस के नृवंशविज्ञान के अधीक्षक आर. व्ही. रसल, पेशवाओं के राज में सामान्य लोगों के जीवन की झलक दिखलाते हैं। वे लिखते हैं, ‘बंबई में किसी महार को सड़क पर थूकने की इजाजत भी नहीं थी ताकि कहीं ऐसा न हो कि किसी हिन्दू का पैर उस थूक पर पड़ जाए और वो प्रदूषित हो जाए। इसलिए महारों को अपने गले में एक मटकी लटकाकर चलना पड़ता था, जिसमें वे थूकते थे। उन्हें अपने पीछे कांटों भरी पेड़ की एक डाल घसीटते हुए चलना पड़ता था ताकि उनके कदमों के निशान सड़क से मिट जाएं। जब कोई ब्राहम्ण दिखलाई देता था तो उन्हें उससे कुछ दूरी पर मुंह के बल जमीन पर लेट जाना पड़ता था ताकि उनकी छाया तक ब्राहम्ण पर न पड़ सके। अगर किसी महार या मांग की छाया भी ब्राहम्ण पर पड़ जाती थी तो वह तब तक न तो खाना खाता था और न पानी पीता था जब तक कि वह स्नान करके अपनी अशुद्धि को दूर न कर ले।’

आश्चर्य नहीं कि कोरेगांव को आज एक ऐसे युद्ध के लिए याद किया जाता है ,जहां ब्रिटिश कमान में मुट्टी भर महारों ने पेशवाओं द्वारा स्वीकृत क्रूर ब्राह्मणवादी दमन का अंत किया था। अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय मध्यभारत में इधर से उधर भागते फिरे और अंतत: उन्होंने इंदौर के पास महू में 3 जून 1818 को ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। उन्हें कानपुर के निकट बिठूर में निर्वासित कर दिया गया। ‘कोरीगांम’ शब्द और स्मारक स्तंभ को 2/1 बाम्बे नेटिव लाईट इंफेन्ट्री, जो आगे चलकर भारतीय सेना की महार रेजीमेंट बनी, के चिन्ह में शामिल किया गया। बाद में महार रेजीमेंट ने काठियावाड़ (1826), मुल्तान (1846) व द्वितीय अफगान युद्ध (1880) में अपना पराक्रम दिखाया। परंतु 1857 में अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीय सैनिक विद्रोह में महार रेजीमेंट के कुछ सिपाहियों की हिस्सेदारी के कारण महारों की सेना में भर्ती पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अक्टूबर 1910 में बंबई के गर्वनर की कार्यकारी समिति के सदस्य आर. ए. लैम्ब ने डिप्रेस्ड क्लासिस मिशन द्वारा संचालित एक स्कूल के कार्यक्रम में बोलते हुए कहा, ‘कई महारों ने यूरोपीयनों व उन भारतीयों, जो अछूत नहीं थे, के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाईयां लड़ीं और उनमें घायल हुए व मारे गए।’ उन्होंने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि ‘एक सम्मानीय पेशे के दरवाजे उनके लिए बंद कर दिए गए हैं।’

आंबेडकर स्वयं एक महार थे और उनका जन्म महू में हुआ था। उनके पिता सेना के सेवानिवृत्त सूबेदार थे। वे 1 जनवरी 1927 को कोरेगांव स्मारक की यात्रा पर गए थे। आज हजारों दलित इस स्मारक पर हर साल इकट्ठा होकर उन महारों के पराक्रम को याद करते हैं जिन्होंने पेशवाओं के अन्यायपूर्ण ब्राहम्णवादी शासन को समाप्त करने में मदद की थी।

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2015 अंक में प्रकाशित)


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अनिल अल्पाह

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