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समाजवादियों के टीवी पर पूंजीवादी सपने

नीतीश को लगा कि मतदाताओं को खुश करने के लिए उन्हें चौबीस घंटे बिजली देने की व्यवस्था की जाए ताकि वे टेलीविजन देख सकें, मोबाईल चार्ज कर सकें। लेकिन हुआ इसका उल्टा। लोगों ने टेलीविजन देखा और मोबाईल चार्ज किया लेकिन टेलीविजऩ और मोबाइल के जरिये नरेन्द्र मोदी लोगों को मुंगेरीलाल के हसीन सपने दिखाने में कामयाब हुए

गत लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को पहली बार केन्द्र की सरकार चलाने का जनादेश मिला। चुनाव नतीजों के बाद, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार के बयान आए। यदि इन बयानों का विश्लेषण करें तो यह साफ़ हो जाता है कि इन दोनों नेताओं का मानना है कि इस लोकसभा चुनाव में जनसंचार माध्यमों की निर्णायक भूमिका रही। यह भी कहा गया कि यह मीडिया का, मीडिया के लिए और मीडिया के द्वारा चुनाव था।

मीडिया के तमाम माध्यमों का अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए नरेन्द्र मोदी ने अपनी गोटियाँ कुछ इस तरह बैठाई कि तमाम विपक्षी पार्टियां भौचक्की रह गईं। नरेन्द्र मोदी का चुनाव अभियान सबसे महँगा था। प्रचार के तौर तरीकों पर नजर रखने वाले पर्येवेक्षकों की मानें तो नरेन्द्र मोदी की टीम ने अपनी रणनीति से व्यवस्था तक को अंगूठा दिखा दिया। चुनाव आयोग का नियम है कि मतदान से 48 घंटे पहले प्रचार बंद होना चाहिए। लेकिन नरेन्द्र मोदी की टीम ने प्रचार के लिए अपने कानून व नियम बनाए। जिस समय असम में मतदान हो रहा था, दिल्ली में टेलीविजन चैनलों व इंटरनेट पर मोदी के विज्ञापन चल रहे थे। दिल्ली में मतदान के दौरान समाचारपत्रों में छपे बड़े बड़े विज्ञापनों से भाजपा मतदाताओं को प्रभावित करती रही।

मीडिया को ऐसी सामग्री चाहिए थी, जिससे वह मोदी के पक्ष में अपने अभियान को जायज ठहरा सके। इसके लिए नरेन्द्र मोदी की टीम ने घटनाएं पैदा कीं। जनसंचार माध्यमों के लिए घटनाएं पैदा करने के लिए कंपनियों को ठेके दिए गए। अनुमानित है कि मोदी द्वारा दसियों हजार करोड़ रूपये चुनाव प्रचार पर खर्च किए गए।

इस तरह, चुनाव मैदान में दो तरह की सोच वाले नेता दिखाई देते हैं। एक तरफ वे नेता थे, जो मतदाताओं को चीजें भेंट कर अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रहे थे। अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार ने उत्तरप्रदेश में विद्यार्थियों को लैपटॉप बांटे। सरकार को लगा कि इससे उसे युवा मतदाताओं का समर्थन हासिल हो जाएगा। नीतीश कुमार की सरकार के दौरान एक चुटकुला चलता था। किसी से पूछा गया कि इस समय सबसे ज्यादा खुशियां मनाने वाले लोग कहां रहते हैं? जवाब मिला बिहार में। सवाल पूछने वाला आश्चर्य प्रकट करता है और जवाब को स्पष्ट करने का अनुरोध करता है। तब जवाब आता था कि बिहार के लोग दिनभर में कई बार खुशियां मनाते हैं। जब-जब घरों में बिजली आती थी तब-तब लोग उछल-उछल कर खुश होते थे। नीतीश कुमार ने उनकी ये खुशियां छीन लीं। नीतीश को लगा कि मतदाताओं को खुश करने के लिए उन्हें चौबीस घंटे बिजली देने की व्यवस्था की जाए ताकि वे टेलीविजन देख सकें, मोबाईल चार्ज कर सकें। लेकिन हुआ इसका उल्टा। लोगों ने टेलीविजन देखा और मोबाईल चार्ज किया लेकिन टेलीविजऩ और मोबाइल के जरिये नरेन्द्र मोदी लोगों को मुंगेरीलाल के हसीन सपने दिखाने में कामयाब हुए। नीतीश कुमार का यह दु:ख चुनाव नतीजों के महीनों बाद प्रगट हुआ।

जनसंचार माध्यमों को लोगों में बांटने और उसके इस्तेमाल की रणनीति को समझना, इस दौर की राजनीति के औजारों को समझना है। तीसरी दुनिया के देशों में जन-संचार माध्यमों का इस्तेमाल, पूंजीवादी कार्यक्रमों और विचारधारा को बढावा देने के लिए किया जाता रहा है। हमारे देश के संविधान के अनुसार हम एक समाजवादी गणतंत्र हैं। लेकिन राजनीतिक पार्टियां, पूंजीवादी कार्यक्रमों को लागू करने में एक दूसरे से होड़ लगा रहीं हैं। जो खुद को सामाजिक न्याय और समाजवादी पार्टियां कहती हैं, वे भी पूंजीवादी कार्यक्रमों के जरिये समाजवाद को लागू करने की बात करती हैं! जनसंचार माध्यमों को लोगों में बांटना उन्हें समाजवादी कार्यक्रम लगता है। इंदिरा गाँधी ने रंगीन टेलीविजन शुरू किया। टेलीविजन चैनलों की भीड़ जब बढऩे लगी तो तमिलनाडु में समाजवादी पार्टियों को लगा कि रंगीन टेलीविजन सेट बांट दिए जाएँ तो यह सामाजिक न्याय होगा। वहां की पार्टियों ने टेलीविजन सेट भी बांटे और टेलीविजन सेटों में चैनलों को पहुंचाना वाले केबल नेटवर्क पर भी कब्जा कर लिया। लेकिन तमिलनाडु में छुआछूत खत्म नहीं हुई। देश में हर साल छुआछूत और दलितों पर अत्याचार की सैकड़ों घटनाएं होती हैं। पिछड़ी व दलित जातियों के नई उम्र के लड़के-लड़कियां शादी करने का फैसला करते हैं तो दलितों पर हमले होते हैं। दलितों के गांव और घरों को तहस नहस कर दिया जाता है।

मुलायम सिंह व नीतीश कुमार सामाजिक न्याय की राजनीति का इस्तेमाल पूंजीवादी विचारों व कार्यक्रमों के लिए करते हैं। लिहाजा उनका जोर सामाजिक न्याय की सामग्री तैयार करवाने के लिए एक मुहिम की जरूरत पर नहीं हो सकता। सामाजिक न्याय की वैचारिक जमीन को तैयार करने का कार्यक्रम उनके पास नहीं है लेकिन वे पूंजीवादी कार्यक्रमों का प्रचार प्रसार करने वाले माध्यमों को घरों तक पहुंचा ज़रूर रहे हैं। जाहिर है कि जो जनसंचार माध्यमों के लिए सामग्री तैयार करने में लगा है, उसने अपनी ऱणनीति को और मांज लिया है। वह जनसंचार माध्यमों के लिए खर्च आपसे करवाता है और उसका इस्तेमाल खुद करता है। आपको भ्रम यह है कि आप जनसंचार माध्यम के मालिक हैं क्योंकि आपने उसे खऱीदा है। असली मालिक कहता है कि आप केवल संदेशवाहक हैं।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2015 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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