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बंदियों के अधिकारों के प्रति जागा भारत

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436, विचाराधीन कैदी के हिरासत की अधिकतम अवधि निर्धारित करने के बारे में है। इसमें प्रावधान है कि यदि ऐसा कैदी उसके अपराध की अधिकतम सजा की आधी अवधि जेल में गुजार चुका हो, तो अदालत उसे निजी मुचलके पर या बगैर किसी जमानती के रिहा कर सकती है

देश की जेलों में विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या का मसला समय-समय पर उठता रहा है, लेकिन इस समस्या के सुलझाव की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। एक अनुमान के मुताबिक, देश की जेलों में फिलहाल करीब 3081 लाख कैदी हैं, जिनमें से 2071 लाख विचाराधीन हैं। यानी लगभग दो-तिहाई कैदी ऐसे हैं, जिनके विरुद्ध कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ है। इस संबंध में कानून कहता है कि अधिकतम संभावित सजा की आधी अवधि काट चुके कैदियों को रिहा किया जाए। लेकिन इस कानून का पालन कभी-कभार ही होता है। निचली अदालतें इस मामले में संवेदनशील नहीं होतीं। इसीका नतीजा है कि जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या में दिन-प्रतिदिन इजाफा होता जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि इस कानून का गंभीरता से पालन किया जाए। अदालत ने अपने एक फैसले में निचली अदालतों के न्यायिक अधिकारियों को आदेश दिया कि वे अपने अधिकार क्षेत्र की प्रत्येक जेल का दौरा करें और ऐसे विचाराधीन कैदियों का पता लगाएं, जो उनके खिलाफ लगे आरोपों के लिये निर्धारित अधिकतम सजा की आधी अवधि पूरी कर चुके हैं। जानकारी मिलने के बाद वे तत्काल उनकी रिहाई सुनिश्चित करें।

न्यायिक अधिकारियों को इसके लिए दो महीने दिए गए हैं। अलबत्ता इस आदेश का लाभ मृत्युदंड और उम्रकैद की सजा का सामना कर रहे आरोपियों को नहीं मिलेगा। आरएम लोढा, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ और न्यायमूर्ति रोहिन्टन एफ नरीमन की खंडपीठ ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि ऐसे कैदियों की रिहाई के लिये न्यायिक अधिकारियों द्वारा फैसला किये जाते वक्त किसी वकील की मौजूदगी जरूरी नहीं है। न्यायिक अधिकारी यह काम पूरा करने के बाद संबंधित उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल के पास अपनी रिपोर्ट दाखिल करेंगे। इसके बाद उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरल, उच्चतम न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल के पास रिपोर्ट भेजेंगे। अदालत की इस क्रांतिकारी पहल से देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में भी सुधार आएगा व निचली अदालतों और जेलों पर बोझ कम होगा।

कानून केवल कागज़ पर
विचाराधीन कैदियों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में कुछ नया नहीं है। भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में ऐसे कैदियों की रिहाई का प्रावधान पहले से ही मौजूद है, लेकिन सरकारों ने अभी तक इसकी पूरी तरह से अनदेखी की है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436, विचाराधीन कैदी के हिरासत की अधिकतम अवधि निर्धारित करने के बारे में है। इसमें प्रावधान है कि यदि ऐसा कैदी उसके अपराध की अधिकतम सजा की आधी अवधि जेल में गुजार चुका हो, तो अदालत उसे निजी मुचलके पर या बगैर किसी जमानती के रिहा कर सकती है। कानून में स्पष्ट प्रावधान होने के बाद भी इस पर अमल न के बराबर हुआ।

विभिन्न विधि आयोग और नागरिक अधिकार संगठन सरकार से इस बात की पैरवी कई बार कर चुके हैं कि एक खास अवधि जेलों में गुजार चुके विचाराधीन कैदियों को रिहा किया जाए। लेकिन उनकी इस बात पर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया।

अदालत के इस आदेश से पहले केंद्र सरकार ने भी कहा था कि वह सभी मुख्यमंत्रियों को इस कानून का पालन करने के लिए पत्र लिखेगी। इस सिलसिले में गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद से मुलाकात भी की थी। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि कई बार न्यायपालिका कुछ सोचती है, और कार्यपालिका कुछ और। इन दोनों के बीच अनावश्यक टकराव की वजह से गतिरोध पैदा हो जाता है।

साधारण आरोपों में गिरफ्तार कैदी यदि सालों तक जेल में पड़े रहे तो यह उनके संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों का घोर उल्लंघन है। मानव अधिकारों के लिहाज से भी यह गलत है। हमारे यहां इंसाफ की रफ्तार इतनी धीमी है कि मुक़दमे कई साल चलते रहते हैं और कैदियों को न तो निर्दोष घोषित किया जाता है और न दोषी। वे बीच में ही लटके रहते हैं। गरीब विचाराधीन कैदी इसलिए जेलों में पड़े रहते हैं, क्योंकि उनकी जमानत लेने वाला कोई नहीं होता। आदिवासियों, अनुसूचित जनजातियों और दूसरे कमजोर तबकों के बहुत से लोगों को पुलिस झूठे मामलों में फंसा देती है। एक बार वे जेल में गए, तो फिर उनके लिए कानूनी कठिनाइयों से पार पाना और अपनी रिहाई का रास्ता साफ करना आसान नहीं होता। मानवाधिकारों की इससे ज्यादा दुर्दशा और क्या होगी ! जाहिर है कि यह मसला सिर्फ न्यायिक सुधार से ही जुड़ा हुआ नहीं है, बल्कि इसके लिए सरकार को बड़े पैमाने पर पुलिस सुधार भी करने होंगे।

अदालतों में खाली पड़े पद
अदालतों में जजों की कमी इस पृष्ठभूमि में सर्वोच्च अदालत की ताजा पहल उम्मीद बंधाती है। सर्वोच्च न्यायालय ने विचाराधीन कैदियों की रिहाई के अलावा अदालतों में लंबित मुकदमों का मुद्दा भी उठाया। अदालत ने सरकार को एक बार फिर याद दिलाया कि देश की विभिन्न अदालतों में फिलवक्त तीन करोड़ मामले लंबित है।अदालतों में न्यायाधीशों की बेहद कमी है। देश में जज मुकदमे का अनुपात काफी असंतुलित है। अदालत ने इस संबंध में केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह तीन महीने में रोडमैप तैयार कर बताए कि मुकदमों का तेजी से निपटारा कैसे किया जा सकता है। अदालत का गुस्सा वाजिब भी है। हमारी अदालतें सिर्फ न्यायाधीशों की कमी से ही नहीं जूझ रही हैं बल्कि इनमें अन्य कर्मचारी भी नहीं हैं । दुखद है कि जनता को जल्द से जल्द न्याय मिले, यह सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं है।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

जाहिद खान

ज़ाहिद खान स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनकी दो किताबें, 'आजाद हिन्दुस्तान में मुसलमान' और 'संघ का हिन्दुस्तान' प्रकाशित हैं

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