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छूट नहीं रहा छुआछूत

भारतीय संविधान को लागू हुए 64 साल हो गए हैं। संविधान में भले ही छुआछूत का निषेध किया गया हो, लेकिन समाज में यह बीमारी अब भी मौजूद है। यह सर्वेक्षण इस कटु सच्चाई को उद्घाटित करता है। यह सचमुच चौंकाने वाली बात है कि हर चार भारतीय में से एक छुआछूत को मानता है

हमारे समाज में सामाजिक बहिष्करण, भेदभाव और छुआछूत इस क़दर आम हैं कि ये हमारे मानस का हिस्सा बन चुके हैं। हम मानो इस ग़ैरइंसानी चलन व बरताव के प्रति अंधे हो गए हैं।

मैंने अपनी स्कूली शिक्षा जवाहर नवोदय विद्यालय से पूरी की। यह एक आवासीय स्कूल था जहाँ विद्यार्थी और अध्यापक मेस में एक साथ खाना खाते थे। मुझे याद है कि जब हम लोग खाना खा चुके होते थे, उसके बाद स्कूल के दो सफाई कर्मचारी अपने-अपने बर्तन लेकर आते थे और मेस के कर्मचारी उनके बर्तनों में खाना डाल दिया करते थे। उन लोगों ने कभी हमारे साथ खाना नहीं खाया। वे लोग ख़ुद खाना नहीं निकालते थे, जब कि वे मेस के कर्मचारियों से ज़्यादा साफ़-सुथरे रहते थे। उनके बर्तनों में मेस कर्मचारी या कोई छात्र खाना डालता था। एक शिक्षा संस्थान में पढ़े-लिखे शिक्षकों व मेधावी विद्यार्थियों की मौजूदगी में जब छुआछूत का व्यवहार चल रहा था, तो व्यापक समाज में क्या हाल होगा, यह कल्पना ही की जा सकती है!

हाल ही में एक सर्वेक्षण के नतीजे प्रकाशित हुए हैं, जो समाज के सूरतेहाल का ख़ुलासा करते हैं। ये हमें आईना दिखाते हैं, बतलाते हैं कि भले हम ‘विश्वगुरु’ होने का दंभ भरते हों, लेकिन हम अब भी छुआछूत जैसी बर्बर सामाजिक बुराई के वाहक बने हुए हैं। यह सर्वेक्षण नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च और अमेरिका की मेरीलैंड यूनिवर्सिटी ने मिलकर किया है। देश भर के 42,000 घरों को इसमें शामिल किया गया था। सर्वेक्षण का शीर्षक है, ‘भारतीय मानव विकास रिपोर्ट’ (आईएचडीएस)। इस रिपोर्ट के प्रारंभिक आंकड़े बताते हैं कि भारतीय समाज में बहिष्करण और छुआछूत किस हद तक व्याप्त है।

छुआछूत सामाजिक बहिष्करण का जघन्यतम रूप है
भारतीय संविधान को लागू हुए 64 साल हो गए हैं। संविधान में भले ही छुआछूत का निषेध किया गया हो, लेकिन समाज में यह बीमारी अब भी मौजूद है। यह सर्वेक्षण इस कटु सच्चाई को उद्घाटित करता है। यह सचमुच चौंकाने वाली बात है कि हर चार भारतीय में से एक छुआछूत को मानता है।

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इस सर्वेक्षण में लोगों से सवालों के जवाब हां या ना में देने को कहा गया था। दैनिक जीवन से संबन्धित कई प्रश्न पूछे गए। मसलन क्या आपके घर में छुआछूत को माना जाता है, अगर इस सवाल का जवाब ना में आया तो फिर अगला सवाल पूछा गया कि क्या आप किसी अनुसूचित जाति-जनजाति के व्यक्ति को अपने किचन में प्रवेश की अनुमति देंगे।

इस सर्वे से यह भी पता चला कि छुआछूत ना सिर्फ हिन्दू बल्कि सिक्ख, ईसाई और इस्लाम धर्मावलम्बियों में भी आम है। लगभग हर तीसरा हिन्दू और हर चौथा सिक्ख छुआछूत मानता है। आम तौर पर माना जाता है कि मुस्लिम समुदाय में छुआछूत नहीं है। यह सर्वे मुस्लिम समाज को भी आईना दिखाता है। तकरीबन हर पाँच में एक मुसलमान छुआछूत में विश्वास करता है। (तालिका-2 देखें)

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इस सर्वेक्षण से यह बात भी पुख्ता हुई कि सबसे ज्यादा छुआछूत ब्राह्मण समाज मानता है। लगभग 52 फीसदी ब्राह्मण छुआछूत में विश्वास करते है। (तालिका-3)

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छुआछूत के व्यवहार को क्षेत्रीय आयाम से देखने पर हम पाते है कि मध्यप्रदेश में 53 फीसद लोगों ने कहा कि वे छुआछूत को मानते हैं। चौंकाने वाली बात यह थी कि उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्य, जो कि जातिवाद के गढ़ माने जाते हैं, इस मामले में मध्यप्रदेश से पीछे हैं। हिमाचल प्रदेश दूसरे स्थान पर रहा, जहां हर दूसरा व्यक्ति छुआछूत को मानता है। इसके बाद हैं छत्तीसगढ़, (48 प्रतिशत) राजस्थान और बिहार (47 प्रतिशत) उत्तरप्रदेश (43 प्रतिशत) और उत्तराखंड (40 प्रतिशत)। जिन राज्यों में बेहतर स्थिति देखी गई, उनमें पश्चिम बंगाल पहले स्थान पर रहा। यहां केवल एक फीसद लोगों ने कहा कि वे छुआछूत मानते हैं। इसके बाद केरल (2 फीसद) महाराष्ट्र (4 फीसद) और अरुणाचल प्रदेश (10 फीसद) रहे।

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तालिका 4 के परिणाम स्पष्ट इशारा करते है कि भारतीय समाज में अभी भी जाति महत्वपूर्ण बनी हुई है। समाज भले ही आधुनिकता की ओर अग्रसर हो लेकिन वह सामंती मूल्यों से भी चिपका हुआ है। दोनों का सहअस्तित्व भी बना हुआ है।

कहना न होगा कि यह सामाजिक बहिष्करण, दलितों-पिछड़ों-बहुजन की संसाधनों तक की पहुँच को सीमित करता है। अगर नोबल पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन के शब्दों में कहें तो सामाजिक बहिष्करण ‘वास्तविक स्वतंत्रता’ को घटाता है। तथ्य यह है कि विकास और वास्तविक स्वतंत्रता के बीच सीधा संबंध है। बल्कि विकास को वास्तविक स्वतंत्रता के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। वैयक्तिक या मानवीय स्वतंत्रता को विकास के परंपरागत मानकों से नहीं आंका जाना चाहिए, मसलन सकल राष्ट्रीय उत्पाद यानी जीडीपी या प्रति व्यक्ति आय से। जीडीपी में वृद्धि या व्यक्तिगत आय में इज़ाफ़ा स्वतंत्रता के विस्तार में इस अर्थ में महत्वपूर्ण हो सकते हैं कि इनसे समाज के लोग खुशहाल होते हैं लेकिन ‘वास्तविक स्वतंत्रता’ अन्य महत्वपूर्ण तत्वों पर भी निर्भर करती है, जैसे सामाजिक-आर्थिक ढांचे विशेषकर शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच, राजनीतिक और नागरिक अधिकारों की उपलब्धतता आदि। जातिगत भेदभाव, सामाजिक, आर्थिक और नागरिक अधिकारों को संकुचित करता है। इसीलिए वंचित समूहों, दलित-बहुजन की स्थिति कमज़ोर है। इन समूहों की दशा में सुधार के लिए आवश्यक है कि इनकी वास्तविक स्वतन्त्रता को बढ़ाया जाए। और वास्तविक स्वतन्त्रता तभी विस्तारित होगी जब जाति की जकडऩ कमज़ोर होगी। सामाजिक बहिष्करण से निजात पाए बिना विकास की बातें बेमानी है।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2015 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

आतिफ रब्बानी

लेखक आतिफ़ रब्बानी भीमराव आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। स्वास्थ्य अर्थशास्त्र और विकास के अर्थशास्त्र में शोध के अलावा हिंदी-उर्दू साहित्य में भी दिलचस्पी रखते हैं।

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