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उरांव परंपराओं को निगलते चाय बागान

मध्यभारत के इन आदिवासियों ने पहले अपनी ज़मीन और अपने जंगल खोये और अब उनकी विशिष्ट संस्कृति भी गुम होती जा रही है। उनके पास अपना कहने को कुछ बचा ही नहीं है

आदिवासियों की सामाजिक.सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के लिए यह जरूरी है कि उन्हें उनके पारंपरिक परिवेश में ही जीवनयापन के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवाएं जाएँ। दुर्भाग्यवश, हमारे देश में यह नहीं हो रहा है। मध्यभारत की एक प्रमुख जनजाति उरांव का उदाहरण लीजिये। यह जनजाति इन दिनों पहचान के संकट से जूझ रही है। चाय बागान इस जनजाति की संस्कृति के लिए खतरा बन कर उभरे हैं। साम्यवादी सामाजिक संरचना के लिए चिर-परिचित उरांव लोग, पीढ़ियों पहले पेट भरने के लिए चाय बागानों में गए थे। लेकिन आज उनके सामने पेट के साथ-साथ पहचान का संकट भी खड़ा हो गया है। उनकी भाषा, संस्कार, त्योहार सभी लुप्त होने की कगार पर हैं।

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पश्चिम बंगाल और असम के कोई दो हजार चाय बागानों में दस लाख आदिवासी पत्ती तोड़ने में लगे हुए हैं

छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और ओडिसा के लगभग दो दर्जन जिलों में उरांव रहते हैं। उनका यह दुर्भाग्य ही था कि उनके पुश्तैनी गांवों के आसपास दुर्लभ खनिजों के अकूत भंडार थे। विकास के नाम पर अंधाधुंध खनन शुरू हुआ और खानों ने उनकी पुश्तैनी जमीनें निगल लीं । मजबूरन, वनपुत्र पेट भरने के लिए या तो खदानों में काम करने लगे या फिर अन्यत्र चले गए। इस तरह, धीरे-धीरे उनका जमीन और खेती से नाता टूट गया। आज हालत यह है कि उरांवों की जनजातीय अस्मिता बाहरी प्रभाव की चपेट में आकर खंडित हो रही है। पश्चिम बंगाल और असम के कोई दो हजार चाय बागानों में लगभग दस लाख आदिवासी पत्ती तोड़ने में लगे हुए हैं। इनमें अधिकांश महिलाएं हैं, जो उरांव जनजाति से हैं। उन्हें दिन भर में १२ किलो (25 पाउंड) पत्ती तोड़ना अनिवार्य होता है । इससे अधिक मात्रा में पत्ती तोड़ने पर उन्हें मात्र 25 पैसे प्रति किलो मजदूरी दी जाती है। इस प्रकार, पूरे दिन खटने के बादए एक महिला को महीने भर में बामुश्किल पांच सौ रुपए मिल पाते हैं।

छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासियों के भोजन व जीविकोपार्जन का मुख्य जरिया वहां के जंगलों में पैदा होने वाले पत्तीदार साग हुआ करते थे। इसलिए वहां की महिलाएं पत्ते चुनने में माहिर थीं। कोई डेढ़ सौ साल पहले, जब अंग्रेजों ने इस आदिवासी अंचल में खनन शुरू किया तो मुंडा, खड़िया, संथाल, उरांव आदि आदिवासी औरतों की पत्ती चुनने में महारत पर उनकी नज़र पड़ी। सन 1881 से 1891 तक  हर साल औसतन कोई 19 हजार अरण्य श्रमिक दक्षिण बिहार से असम के चाय बागानों में गए। बीते कुछ सालों में 27000 आदिवासी दार्जीलिंग और जलपाईगुड़ी के चाय बागानों में गए। आज इन लोगों की तीसरी या चौथी पीढ़ी वहां काम कर रही है। इनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान पूरी तरह धूमिल हो चुकी है। आर्थिक और शारीरिक शोषण को उन्होंने अपनी नियति मान लिया है।

उरांवों की मातृभाषा ‘कुरक’ है पर बागानों में काम कर रहे उरांव अब ‘सादरी’ बोलते हैं। बागानों में देश के अलग-अलग इलाकों के विभिन्न भाषा-भाषी लोग काम करते हैं। जाहिर है, उरांव बच्चों पर इन सभी का असर पड़ रहा है । आज वहां रह रहे बच्चे शायद ही ‘कुरक’ बोल या समझ सकते हैं। बच्चों को उरांवों के पारंपरिक नाम जैसे चेदों, मंकारी आदि की जगह बंगाली मिश्रित नाम दिए जा रहे हैं।

बागानों की आधुनिकता में उरांवों की सांस्कृतिक गतिविधियां भी गुम हो गई हैं। इनका मुख्य नृत्य ‘करमा’ है। पहाड़ी इलाकों में करमा गाछ (पेड़) नहीं पाया जाता इसलिए वहां करमा का आयोजन संभव नहीं है । ‘जनी शिकार’ को वहां की युवा उरांव महिलाएं जानती ही नहीं हैं। उरांवों ने रोहतासगढ़ में तीन बार मुगलों को हराया था। इसी जीत की याद में हर 12 साल में एक बार उरांव महिलाएं पुरुष वेशभूषा में जंगल जाती हैं और शिकार करती हैं। पर चाय बागानों में पलीं-बढीं लड़कियों को ये समृद्ध परंपराएं कहां नसीब होंगी। पीढ़ियों से चली आ रहीं लोककथाओं को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का सिलसिला टूट गया है क्योंकि बागानों में काम करने वाली औरतों के पास इतना समय ही नहीं होता कि वे अपने बच्चों को कहानियां सुना सकें ।

उरांवों के पारंपरिक गांवों में रात्रिघर हुआ करता है, जिसे ‘धुमकुरिया’ कहते हैं। शाम को उरांव युवक-युवतियां यहां जमा होते है और नाचते-गाते हैं। बागानों में रहने वाले युवाओं को शाम को नाचने-गाने की सुध ही नहीं रहती और उन्हें ऐसे किसी सामाजिक क्लब के बारे में जानकारी भी नहीं है ।

उराँवों में लड़की की शादी की उम्र 21 से 25 साल हुआ करती थी लेकिन चाय बागानों में जवान बेटियों को शारीरिक शोषण से बचाने के लिए 14 साल में ही लड़कियों की शादियाँ की जा रही हैं।

जनजातियों में हाथ से बनी मदिरा (हंडिया) पीने का चलन है । पर बागानों में इसकी जगह चिलैया या दारू ने ले ली है। बागानों के प्रवेश द्वार पर ही दारू का ठेका मिल जाएगा। एक बागान में एक दिन दस हजार रुपए बोनस के रूप में बंटे। उस दिन वहां की चिलैया की दुकान की बिक्री सात हजार रुपये की थी । यहां के दूषित माहौल से बच्चे भी अछूते नहीं हैं। जब पत्ती तोड़ने का चरम सीजन होता है तब ठेकेदार (स्थानीय बोली में सरदार) स्कूल से बच्चों को भी खदेड़ लाता है ।

भारतीय संविधान की यह विडंबना है कि बागान में काम करने वाले लोगों को आदिवासी नहीं माना जाता। यानि जनजातियों को मिली आरक्षण व अन्य सुविधाओं से ये महरूम हैं । बागानों के जीवन की एकरसताए उरांवों के पारंपरिक जीवन के रसए रंग और उत्साह को निगलती जा रही है।

 

फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

पंकज चतुर्वेदी

पंकज चतुर्वेदी घुमक्कड पत्रकार हैं और पानी और समाज से जुड़े विषयों पर लिखते हैं।  बस्तर की लोक बोलियों पर उन्होनें अनुसन्धान किया है।  वर्तमान में नेशनल बुक ट्रस्ट के सम्पादकीय विभाग से जुड़े हैं

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