जैसा कि हमारे पाठक जानते हैं, ब्राह्मणवादी तत्वों की शिकायत पर फारवर्ड प्रेस को 9 अक्टूबर, 2014 को पुलिसिया दमन का शिकार होना पडा था। इस दमन के विरोध में बडी संख्या में बुद्धिजीवियों ने आवाज उठायी थी। यह सिलसिला अब भी जारी है। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इस संबंध में लेख प्रकाशित हो रहे हैं। इसी क्रम में 1 फरवरी, २०१५ को “जनसत्ता”, नयी दिल्ली में प्रकाशित लेख के संपादित अंश हम यहां दे रहे है – संपादक
अपूर्वानंद द्वारा लिखित एक आलेख “मिथक, संस्कृति और इतिहास:फारवर्ड प्रेस के बहाने” लोकप्रिय साहित्यिक हिंदी मासिक “हंस” के दिसंबर, 2014 के अंक में छपा है, जिसकी योजना जातीय दंभ और बौद्धिक चालाकी के साथ बनाई गयी दिखती है. फॉरवर्ड प्रेस पर हुई पुलिस कार्रवाई और दुर्गा–महिषासुर मिथक के बहाने यह आलेख प्रतिबद्धता की खोल से दलित–बहुजन बौद्धिकता पर हमलावार है. कई उद्धरणों के साथ, मूलतः डीडी कौसंबी के हवाले से लिखा गया यह आलेख अकादमिकता के एक विचित्र दावे के साथ लिखा गया है. एक निगाह में तो यह मिथकों के बहुजन पाठ के साथ खडा दिखता है, लेकिन यह फॉरवर्ड प्रेस की अकादामिकता पर सवाल खड़े करते हुए जेएनयू में ‘महिषासुर शहादत दिवस’ के आयोजक की नियत को भी कठघरे में लेने की कोशिश करता है. आयोजकों के इस प्रयास में उत्तेजना फैलाने का लक्ष्य देखता है. इस आलेख के कुछ और रंग हैं, लेखक के खुद के ब्राहमण होने और फिर प्रगतिशील सवालों के साथ ब्राहमण जड़ताओं से मुक्त होने का विस्तृत प्रसंग है यहाँ, किसी छात्रा के बहाने फॉरवर्ड प्रेस में दुर्गा मिथ पर किये गए सवाल (नहले) पर स्त्रीवादी सवाल (दहला) पेश करना आदि.
इस आलेख में अंततः यह भी निष्कर्ष है कि ‘लेकिन किसी प्रभुत्वशाली वृत्तांत को चुनौती देने में कडवाहट पैदा न हो, क्या यह संभव है?’ लेखक जब इसी निष्कर्ष पर है, तो वह किस बिना पर जेएनयू में ‘आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम’ द्वारा आयोजित ‘महिषासुर शाहदत दिवस’ के आयोजको के इरादे में उत्तेजना पैदा करने का उद्देश्य देख लेता है, क्या इसलिए कि आयोजक संगठन के नाम में बैकवर्ड लगा है और यह किसी द्विज की ‘प्रगतिशील चेतना’ से पैदा आयोजन नहीं है! फॉरवर्ड प्रेस घोषित तौर पर ‘बहुजन चेतना’ की पत्रिका है, क्या इसीलिए लेखक को दुर्गा मिथ के खिलाफ इसके प्रतिबद्ध प्रकाशन का उद्देश्य ज्ञानात्मक नहीं राजनीतिक दिखाई देता है! जबकि वे शायद भूल रहे हैं कि जिन डीडी कोसंबी के उद्धरणों से वे ज्ञानात्मक (अकादमिक) चर्चा अपने आलेख में कर रहे हैं, उनकी स्थापनाओं के अलावा, पुराणों के सीधे उद्धरणों सहित दूसरे कई विद्वतापूर्ण आलेखों के उद्धरण फेसबुक पर फॉरवर्ड प्रेस की मुहीम के समर्थक लेकर आ रहे थे, लिंक दे रहे थे और जिनमें से अधिकांश बहुजन समाज के चिन्तक–विचारक थे, इनमें से एक इस पत्रिका के सम्पादक भी थे. अकादमिकता के लिए उद्धरण और विश्विद्यालय की डिग्री के आधार पर तो महात्मा फुले भी इस लेख के लेखक के समक्ष नहीं टिकेंगे. जबकि मिथकों के खिलाफ फुले के विचार अकादमिक शोधों के विषय हैं .
अपनी छात्रा के हवाले से आलेख के लेखक जिन स्त्रीवादी सवालों के साथ उपस्थित हैं, क्या उसके पहले दुर्गा मिथ के खिलाफ देश भर में आयोजनों के समर्थक जिस ड्राफ्ट के साथ उपस्थित हैं, उससे गुजरने की जहमत उन्होंने उठाई है? क्या किसी की ह्त्या का जश्न स्त्रीवाद है? क्या स्त्री का ब्राहमणवादी पितृसत्ता के द्वारा इस्तेमाल के खिलाफ निर्मित मिथ का पुनर्पाठ स्त्रीवाद विरोधी प्रयास है? क्या बंगाल की ‘वेश्याओं’ ( यौनकर्मियों) द्वारा दुर्गा के मिथ से खुद के जोड़ने का पुनर्पाठ स्त्रीविरोधी मुहिम है? क्या पितृसत्ता के द्वारा, जो निश्चित ही भारत के मामले में ब्राहमणवादी पितृसत्ता है, हर निर्मित स्त्री (जैसा कि स्त्रीवाद में सांस्कृतिक निर्मिति सर्वमान्य सिद्धांत है) स्त्रीवादी ही होगी और उसके हर सवाल क्या स्त्रीवाद के सवाल होंगे? क्या ‘पति परायण सती साध्वी स्त्री’ भी ऐसी स्थिति में स्त्रीवादी नहीं मानी जायेगी? पता नहीं क्यों यह आलेख एक मासूम से सवाल को स्त्रीवादी सवाल घोषित कर रहा है. आलेख की तैयारी के पूर्व जितना डीडी कोसंबी के उद्धरणों पर मेहनत की गई है, उससे कम भी यदि फॉरवर्ड प्रेस या महिषासुर शहादत के आयोजकों की मुहीम को समझने के लिए की जाती तो यह मुहीम ‘प्रगतिशील लेकिन अन्ततः द्विज मन’ को स्त्रीवादी कोने से व्यथित नहीं करती. आयोजकों ने शहादत दिवस मनाने की प्रगतिशील पद्धति बतलाई है, जो किसी पुरोहित की पूजा पद्धति नहीं है. इसमें एक प्रावधान है कि एक स्त्री के द्वारा कराई गयी इस ह्त्या के जश्न के खिलाफ शहादत दिवस का आयोजन बौद्धिक बहस के रूप में हो, जिसकी अध्यक्षता कोई स्त्री ही करे.
सवाल है कि इस प्रसंग में में दलित–बहुजन बुद्धिजीवियों या आन्दोलन पर सवाल क्यों खड़े किये जा रहे हैं, क्या विमर्श की डोर द्विज हाथों से छूटती जा रही है! या क्या इसलिए कि पिछले तीन–चार दशकों के आम्बेडकरवादी आन्दोलन और चेतना ने अपने को अनिवार्य बना लिया है, जिसके कारण द्विजों को इसी दायरे से अपनी बात कहना उनकी मजबूरी बन गई है! क्या इसलिए भी नहीं कि अब उनकी आसान प्रगतिशीलता प्रश्नों के घेरे में है, उन्हें पुख्ता संदेहों से गुजरना पड़ रहा है!
फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2015 अंक में प्रकाशित