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प्रतिनिधित्व का आधार जाति क्यों ?

'जाति' आरक्षण का वैध आधार तब बनी जब स्वतंत्र भारत में संसद द्वारा सन 1951 में संविधान का प्रथम संशोधन 'जाति' को 'आरक्षण का आधार' बनाने के लिए किया गया

उच्चतम न्यायालय द्वारा 17 मार्च 2015 को अपने एक निर्णय में यूपीए सरकार द्वारा जाटों को अन्य पिछड़ा वर्गों की केंद्रीय सूची में शामिल करने सम्बन्धी मार्च 2014 की अधिसूचना को रद्द किये जाने के प्रकाश में यह आलेख और महत्वपूर्ण हो गया है. न्यायमूर्ति रंजन गोगोई व न्यायमूर्ति रोहिंटन एफ़ नारीमन की खंडपीठ ने कहा कि, ”पिछड़ापन कई स्वतंत्र परिस्थितियों का प्रकटीकरण होता है, जो कि सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक या राजनैतिक भी हो सकती हैं. ऐतिहासिक कारणों से, विशेषकर हिन्दू समाज में, पिछड़ेपन के निर्धारण को जाति से जोड़ दिया गया है. यद्यपि जाति, किसी सामाजिक समूह के पिछड़ेपन की पहचान करने का एक प्रमुख व विशिष्ठ कारक हो सकती है परन्तु यह न्यायालय समय समय पर किसी समूह के पिछड़ेपन का निर्धारण केवल जाति के आधार पर करने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करता रहा है. अनुच्छेद 16(4) व 15 (4), राज्य द्वारा पात्र समूहों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम उठाने के अधिकार का आधार है. यह स्पष्ट है कि सर्वाधिक पात्र सामाजिक समूह समय के साथ बदलते रहेगें. पिछड़ेपन की जाति-केन्द्रित परिभाषा से परे हट कर, पिछड़ेपन की पहचान के लिए नयी विधियों, मानकों व तरीकों का विकास एक सतत प्रक्रिया होने चाहिये” खंडपीठ की इस टिप्‍पणी के आलोक में देवानंद कुम्‍भारे का यह लेख और महत्‍वपूर्ण हो गया है। कुम्‍भारे के अकाट्य तर्क जाति को आरक्षण का सर्वाधिक वैध आधार साबित करते हैं  – संपादक

‘जाति’ आरक्षण का वैध आधार तब बनी जब स्वतंत्र भारत में संसद द्वारा सन 1951 में संविधान का प्रथम संशोधन ‘जाति’ को ‘आरक्षण का आधार’ बनाने के लिए किया गया भारत के संविधान में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का आधार क्यों बनाई गई, जबकि औपनिवेशिक भारत में उसका आधार धर्म, लिंग, जन्मस्थान और पूंजी था। रूढ़ संदर्भ में जिसे ‘आरक्षण’  कहा जाता है, उसके लिए भारत के सम्पूर्ण संवैधानिक इतिहास में ‘प्रतिनिधित्व’  शब्द का उपयोग किया गया था। ‘प्रतिनिधित्व’ मूल संवैधानिक शब्दावली है और ‘आरक्षण’, गैर-संवैधानिक और वैकल्पिक। इस वैकल्पिक शब्दावली का इस्तेमाल संविधान में कहीं नहीं है फिर भी आज यही शब्द बुद्धिजीवी, छात्र, शोधार्थी, प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया और सारी जनता प्रयोग में लाती है। संवैधानिक शब्द ‘प्रतिनिधित्व’ को दफनाकर वैकल्पिक शब्द ‘आरक्षण’ क्यों गढ़ा गया, यह अनुसन्धान का विषय हो सकता है।

विश्व में भारत की पहचान ‘जातियों के देश’ के रूप में है। वर्तमान में देश में छह हजार से भी ज्यादा जातियां हैं, जिनकी अपनी-अपनी विविधताएं और विशेषताएं हैं।

औपनिवेशिक काल में देश के सभी मुसलमानों, पंजाब के सिक्खों, मद्रास के गैर-ब्राह्मणों और बम्बई के मराठों को पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया था। मजदूरों, जमींदारों, विश्वविद्यालयों और निगमों के लिए भी कुछ स्थान सुरक्षित रखे गए थे। लेकिन स्वतन्त्र भारत के संविधान में पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने हेतु केवल ‘जाति’ को दो अनिवार्य शर्तों पर आधार बनाया गया – सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन।

संवैधानिक स्थिति

आरक्षण देने या न देने और आरक्षण का आधार 'जाति’ को बनाने या न बनाने के मुद्दों पर सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों द्वारा कई निर्णय दिए गए हैं। कुछ निर्णय इसके विरोध में थे तो अधिकतर इसके समर्थन में
आरक्षण देने या न देने और आरक्षण का आधार ‘जाति’ को बनाने या न बनाने के मुद्दों पर सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों द्वारा कई निर्णय दिए गए हैं। कुछ निर्णय इसके विरोध में थे तो अधिकतर इसके समर्थन में

संविधान के अनुच्छेद 15(1) में निर्दिष्ट है कि, ‘राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।’ यानी अनुच्छेद 15, भारत के प्रत्येक नागरिक को समता के व्यवहार की गारंटी देता है। इसके बावजूद, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग को ‘जाति’ के आधार पर ही आरक्षण प्रदान किया गया ।
‘जाति’ आरक्षण का वैध आधार तब बनी जब स्वतंत्र भारत में संसद द्वारा सन 1951 में संविधान का प्रथम संशोधन ‘जाति’ को ‘आरक्षण का आधार’ बनाने के लिए किया गया। इस संशोधन के जरिये अनुच्छेद 15(4), जो ‘आरक्षण अनुच्छेद’ के नाम से जाना जाता है, संविधान में जोड़ा गया, जिसमें कहा गया है कि, ‘इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खण्ड (2) की कोई बात, राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।’ यह एक दृष्टि से अनुच्छेद 15 का, अर्थात सभी के साथ समतापूर्ण न्याय करने के तत्व का, उल्लंघन है। उक्त संविधान संशोधन के उदेश्यों को उचित ठहराते हुए ‘पी.राजेंद्रन वि. मद्रास राज्य’ के मामले में मुख्य न्यायाधीश वांचू ने स्थिति को साफ करते हुए कहा कि, ‘अगर प्रश्नाधीन आरक्षण केवल जाति के आधार पर किया जाता और उसके लिए सम्बंधित जाति के सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को आधार नहीं बनाया जाता तो वह अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन होता। परन्तु यह नहीं भुलाया जाना चहिये कि जाति, नागरिकों का एक वर्ग भी है और अगर कोई जाति सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी है, तो उस जाति को इस आधार पर आरक्षण प्रदान किया जा सकता है कि वह अनुच्छेद 15(4) के उपबंधों के अधीन, नागरिकों का सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग है’ (एससीआर पी 790) ।

न्यायाधीश वांचू के इस तर्क से स्पष्ट हो जाता है कि जाति, भारत में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों की पहचान करने का वैध व उचित माध्यम है व ‘जाति,’ भारतीय ‘नागरिकों का समूह’ है । दूसरे शब्दों में, ‘जाति के पिछड़ेपन’ का निर्धारण कराने के दो मापदंड हैं सामाजिक पिछड़ापन और शैक्षिक पिछड़ापन। जो जाति या जातियां, इन दोनों शर्तों को पूरा करती हैं, वे केंद्र तथा राज्यों की सरकारों द्वारा ‘पिछड़ी जाति’ घोषित की जा सकती हैं। भारतीय समाज के यथार्थ को और स्पष्ट करते हुए वांचू आगे कहते हैं कि, ‘यह सच है कि जाति व्यवस्था का हिन्दू समाज में प्राधान्य है और सामाजिक ढांचे के संपूर्ण ताने-बाने में वह व्याप्त है। अत:, जाति की कसौटी को, पिछड़े वर्गों की पहचान करने की अन्य स्थापित व सर्वसम्मत कसौटियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता।’

जाति के बगैर हिन्दू धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हिन्दू धर्म, जातियों से बुना हुआ जाल है। इस जाल में सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि बहुत सारी असमानताएं, विसंगतियां और समस्याएं हैं। इस जाल की अधिकांश जातियां शैक्षणिक तथा सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी हुई थीं और आज भी हैं। अनुच्छेद 14(4) पर संविधानसभा बहस में पिछड़ेपन को तय करने का ‘जाति को एकमात्र मापदण्ड’ बताते हुए संविधान के शिल्पकार और स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री डॉ. बीआर आम्बेडकर ने कहा था कि, ‘पिछड़े वर्ग, कुछ विशिष्ट जातियों के समूह से अधिक कुछ नहीं हैं।’ अगला महत्त्वपूर्ण और केंद्रीय प्रश्न यह है कि क्या जाति, जिसके नाम पर व्यक्तियों के समूह पहचाने जाते हैं, को उस जाति को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग निरुपित करने की कसौटी माना जा सकता है; और यदि हाँ, तो क्या वह सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन के निर्धारण की एकमात्र या सबसे महत्पूर्ण या कई में से एक कसौटी होगी?। डॉ. आंबेडकर ने पूर्णत: स्पष्ट कर दिया कि आरक्षण के लिए पात्र ‘जातियां’, व्यक्तियों के ऐसे समूह हैं, जो सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं व इन समूहों का संग्रह ही ‘पिछड़ा वर्ग’ है। पिछड़े वर्गों में अनुसूचित जातियां, जनजातियां, अन्य पिछड़ा वर्ग या इनसे अतिरिक्त अन्य जातियां भी शामिल हो सकती हैं ।

इन वर्गों के शैक्षणिक पिछड़ेपन का अर्थ एकदम साफ़ है – या तो वे शिक्षा से पूरी तरह वंचित हैं या उनमें शिक्षा का स्तर बहुत कम है। और सामाजिक पिछड़ेपन का क्या अर्थ है? हिंदू धर्म की समाज व्यवस्था में कुछ जातियों को कोई गरिमा प्राप्त नहीं है, जाति के नाम पर उन्हें कोई प्रतिष्ठा नहीं मिलती बल्कि उन्हें अपमानित किया जाता है। ‘निचली जातियां’, परंपरा से अपनी जीविका चलाने के लिए गंदा काम करनेवाली जातियां हैं – जैसे मैला ढोने वाली आदि। इसलिए ‘निचली जाति’, ‘असम्मान की अवस्था’ है और यही ‘सामाजिक पिछड़ापन’ है। ‘असम्मान की अवस्था’ ने जाति विशेष को मानवीय विकास के सभी अवसरों से वंचित कर दिया। परिणामत: जातियों के कुछ सामाजिक समूह उन्नति की दौड़ में अन्य समूहों से कोसो पीछे रह गये। अत: यह स्पष्ट है कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के सन्दर्भ में ‘जाति’ कैसे आरक्षण का आधार बन गयी।

सम्मति निर्माण की प्रक्रिया 
आरक्षण देने या न देने और आरक्षण का आधार ‘जाति’ को बनाने या न बनाने के मुद्दों पर केंद्र और राज्यों की सरकारों के साथ ही सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों द्वारा कई निर्णय दिए गए हैं ।कुछ निर्णय इसके विरोध में थे तो अधिकतर इसके समर्थन में। इस संदर्भ में सरकारों और न्यायालयों के सारे निर्णयों को संज्ञान में लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में स्पष्ट कर दिया कि ‘इस न्यायालय द्वारा, सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान करने में जाति की कसौटी की प्रासंगिकता और महत्व के सम्बन्ध में दिए गए विभिन्न निर्णयों का सार-संक्षेप यह है कि अनुच्छेद 16(4) के उपबंधो के अधीन, नागरिकों के किसी समूह या वर्ग के सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन का निर्धारण कर उसे पछड़े वर्गों में शामिल करने की जाति न तो एकमात्र कसौटी हो सकती है और ना ही जाति को वर्ग के समकक्ष माना जा सकता है। तथापि, हिन्दू समाज में, जाति, नागरिकों के किसी वर्ग के पिछड़ेपन के निर्धारण का मुख्य करक या प्रमुख कसौटी है। अत: जब तक कि जाति सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन, जो कि पिछड़े वर्ग की पहचान के स्थापित आधार हैं, की प्राथमिक कसौटी पर खरी नहीं उतरती, तब तक सामान्यत: उसे अनुच्छेद 16(4) के उपबंधों के अधीन, नागरिकों का पिछड़ा वर्ग नहीं माना जा सकता, सिवाय उन अपवादात्मक परिस्थितियों में जब कि कोई जाति, परंपरागत रूप से निचले दर्जे के ऐसे कार्य से अपनी जीविका चलाती हो, जो सामाजिक पिछड़ेपन का द्योतक हो’।

सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने जाति को आरक्षण का आधार बनाने पर अंतिम मोहर लगा थी । इस प्रकार, जाति को आरक्षण का आधार बनने के लिए विद्वतजनों की चर्चाओं, सरकार के विविध नियम-कानूनों और न्यायालयों के अनेक निर्णयों से गुजरना पड़ा है । उसके बाद कहीं जाकर भारत में ‘जाति’, आरक्षण के आधार के रूप में स्थापित हो सकी । इस अवधारणा के समक्ष अब कोई चुनौती उपस्थित नहीं है।

 

फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

देवानंद कुंभारे

देवानंद कुंभारे अहिंसा एवं शांति अध्ययन में पीएचडी हैं

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