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आम बजट-2015: सामाजिक संतुलन दरकिनार

विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं का बजट बढ़ाने की बजाए उनके लिए आवंटन में (पिछले वित्त वर्ष की तुलना में) भारी कटौती कर दी गयी है

मोदी सरकार का यह बजट दो मामलों में महत्वपूर्ण है। पहला, लगभग तीस साल बाद यह एक ऐसी पार्टी की सरकार द्वारा पेश किया जा रहा बजट है, जिसे लोकसभा में बहुमत प्राप्त है। इसलिए, सरकार को अपनी नीतियों, प्राथमिकताओं और एजेंडे के अनुरूप बजट बनाने की पूरी स्वतन्त्रता थी। दूसरे, सरकार ने योजना आयोग को भंग करके नीति आयोग बनाया है, जो दिशात्मक और नीति निर्धारक थिंकटैंक है। ये देखना दिलचस्प होगा कि इन दोनों परिघटनाओं  ने सरकार के बजट निर्माण की प्रक्रिया को कैसे प्रभावित किया है।

सिकुड़ता सामाजिक क्षेत्र

प्रधान मंत्री जब-तब देश के ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ की बात किया करते हैं। ये ‘डिविडेंड’ मानव पूंजी तभी बन सकेगा जब स्वास्थ्य, शिक्षा सहित विभिन्न सार्वजनिक व लोक कल्याणकारी सेवाओं का पुख्ता इंतज़ाम हो। लेकिन विडम्बना यह है कि विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं का बजट बढ़ाने की बजाए उनके लिए आवंटन में (पिछले वित्त वर्ष की तुलना में) भारी कटौती कर दी गयी है।

ग़ौरतलब है कि पिछले कई वर्षों से योजनागत–ग़ैर-योजनागत व्यय अनुपात लगातार घटता जा रहा है। योजनागत व्यय, मूल रूप से, विकास पर आने वाले खर्च होते हैं जबकि गैर-योजनागत व्यय में रक्षा, अनुदान, सरकारी अमले पर होने वाला खर्च का आदि आता है। ज़ाहिर है, योजनागत–ग़ैर-योजनागत व्यय का घटता अनुपात यह दर्शाता है कि विकास योजनाओं के प्रति सरकार की  प्रतिबद्धता साल दर साल कम हो रही हैं। कल्याणकारी योजनाओं के आवंटन में कटौती कोई नयी परिघटना नहीं है। नब्बे के दशक में कांग्रेस सरकार द्वारा नव-उदारवाद के रास्ते को अख़्तियार करते ही यह प्रक्रिया शुरू हो गयी थी। एनडीए की मौजूदा सरकार ने  उस प्रक्रिया को तेज भर किया है (तालिका-1)।

तालिका –1: योजनागत और ग़ैर-योजनागत व्यय (करोड़ रु)
वित्तीय वर्ष योजनागत ग़ैर-योजनागत अनुपात
2011-12 4,41,547 8,16,182 0.541
2012-13 5.21,025 9,69,900 0.537
2013-14 5,55,322 11,09,975 0.500
2014-15 5,75,000 12,19,,892 0.471
2015-16 4,65,277 12,13,224 0.383
स्रोत: बजट अनुमान

 

सबसे पहले बात करते हैं मनरेगा की। मनरेगा के आर्थिक और सामाजिक फ़ायदे को वर्ल्ड बैंक ने भी स्वीकार किया है। विकास में इसके बहुआयामी योगदान को देखते हुए, वर्ल्ड बैंक की वर्ल्ड डेव्लपमेंट रिपोर्ट २०१४ में इसे ग्रामीण विकास की ‘दरख़्शां मिसाल’ की संज्ञा दी गयी है। लेकिन इस बजट में मनरेगा के लिए आवंटन कुल 34,699 करोड़ रु. रखा है, जो पिछले साल इसके लिए किए गए प्रावधान के लगभग बराबर ही है। मतलब साफ है—इसके दायरे को सीमित  जा रहा है। इतना ही नहीं, ग्रामीण विकास की अन्य योजनाओं में भी 10 प्रतिशत तक की कटौती की गयी है (तालिका-2)।

 

तालिका – 2: सामाजिक क्षेत्रक का घटता आकार (करोड़ रु)
क्षेत्रक बजट 2014-15 बजट 2014-15 अंतर
बाल कल्याण 19,510 8,652 56% कमी
स्कूली शिक्षा 55,115 42,219 23% कमी
एड्स नियंत्रण 1,785 1,397 22% कमी
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण 35,163 29,653 16% कमी
ग्रामीण विकास 80,093 71,695 10% कमी
स्वास्थ्य अनुसंधान 1,017 1,018 0.09% बढ़ोतरी
विकलांगता के मामले 632 636 0.6% बढ़ोतरी
उच्च शिक्षा 27,656 26,855 3% बढ़ोतरी
सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण 6,212 6,524 5% बढ़ोतरी
स्रोत: बजट दस्तावेज़

 

स्वास्थ्य क्षेत्र की उपेक्षा

जनस्वास्थ्य का बजट बढ़ाने की बजाए, इसके आवंटन में पिछले वित्त वर्ष की तुलना में  5.7 फीसदी की कमी कर दी गयी है। इस बजट में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए 35,163 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है,  जो कि पिछले साल के आवंटन 29,653 करोड़ रुपए की अपेक्षा 16 प्रतिशत कम है। वहीं एड्स नियंत्रण विभाग के आवंटन में भी 22 प्रतिशत की कमी की गयी है। पिछले साल यह आवंटन 1,785 करोड था, जो इस साल घट कर 1,397 करोड़ रुपये रह गया है।

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वित्त मंत्री अरुण जेटली

स्वास्थ्य क्षेत्र में ये कटौतियाँ तब हो रही हैं, जब सरकार पहले से ही इस क्षेत्र में बहुत कम खर्च कर रही है। उल्लेखनीय है कि सरकार ने नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2015 का मसौदा प्रस्तुत किया है,  जिसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत व्यय करने का सुझाव दिया गया है। लेकिन इस बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र मिले कम आवंटन को देख कर यह बिलकुल नहीं लगता कि सरकार स्वास्थ्य नीति के प्रति गंभीर है।

स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम के संबंध में कटौती सीमा बढ़ाकर 15,000 से 25,000 रुपये की गयी है। वहीं, वरिष्ठ नागरिकों के मामले में इसे 20,000 रुपये से बढ़ाकर 30,000 रुपये करने का प्रस्ताव किया गया है। यह भी प्रस्तावित है कि अत्यंत वरिष्ठ नागरिक (८० वर्ष या अधिक) के मामले में सीमा 60,000 रुपये से बढ़ाकर 80,000 रुपये कर दी जाए। देखने में तो यह अच्छा प्रयास लगता है लेकिन देश में अभी तक 10 फीसदी से भी कम लोग बीमा के दायरे में हैं। दूसरी तरफ, स्वास्थ्य बीमा जैसे कार्यक्रम तभी सफल होते हैं,  जब देश का स्वास्थ्यतंत्र मजबूत व प्रभावशाली हो। स्वास्थ्यतंत्र की मजबूती के संदर्भ में भी इस बजट में कोई चर्चा नहीं है।

सरकार ने जम्मू-कश्मीर, पंजाब, तमिलनाडु और असम में एक-एक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और बिहार में एम्स-जैसा एक और शीर्ष संस्थान खोलने का फैसला किया है। खास बात तो यह है कि पिछले अनुपूरक बजट में भी ऐसे चार संस्थान खोलने की बात हुई थी लेकिन उन पर अभी तक अमल-दर-आमद न हो सका। एक अच्छा संस्थान बनाने में सरकार कई-कई साल लगा देती है, जबकि वहीं मेदान्ता जैसे कॉर्पोरेट अस्पताल साल भर के ही बन कर तैयार हो जाते हैं। सरकारें अगर ऐसी संस्थाओं को बनाने के लिए एक ‘टाइमफ्रेम’ भी बताएं और उसका पालन करें, तो ज़्यादा अच्छा होगा। ये कदम निश्चित रूप से देश के बड़े होते मध्यम वर्ग, जो निजी क्षेत्र से सेवाएँ हासिल करता है, को खुश करने का प्रयास है।

इस बजट में, स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के आवंटन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। बजट ज्यों का त्यों बना हुआ है। पिछले साल इस मद में 1,017 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे तो इस साल 1,018.17 करोड़ रुपये आवंटित किए गए।

अस्पतालों को सिर्फ चिकित्सकों की ही नहीं पैरामेडिकल स्टाफ की भी आवश्यकता होती है,  जिनकी कमी को भी नए संस्थान खोलकर पूरा किया जा सकता था। साथ ही, जनस्वास्थ्य के क्षेत्र में वैश्विक स्तर के जनस्वास्थ्य संस्थान खोलने की भी आवश्यकता थी, जहां शोध और अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त अनुसंधान कोष हो। इन दो मामलों में इस बजट ने निराशा ही किया है।

भारत की बुजुर्ग आबादी लगभग 10.5 करोड़ है। ऐसा अनुमान है कि 2030 में यह आबादी बढ़ कर 19.८० करोड़  और 2050 तक 30 करोड़ के आसपास पहुंच जाएगी। बुज़ुर्गों की यह बढ़ती आबादी, आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा और चिकित्सा व स्वास्थ्य प्रबंधन के संदर्भ में एक बड़ी चुनौती है। बुजुर्गों की देखभाल में वित्तीय बाधाएँ अक्सर आड़े आती हैं। एक सामान्य परिवार अपने कुल खर्च का लगभग 13 फ़ीसदी स्वास्थ्य और चिकित्सा पर खर्च करता है। ऐसे में वृद्धों के स्वास्थ्य को लेकर कुछ नयी योजनाओं की आवश्यकता थी,  जो इस बजट में नदारद हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े ज़ोरशोर से ‘स्वच्छ भारत अभियान’ प्रारंभ  किया था,  लेकिन इसके कार्यान्वयन के लिए ज़िम्मेदार शहरी विकास मंत्रालय अपने बजट का 33 प्रतिशत ही व्यय कर पाया है। इस बजट में भी इस संकल्प को दोहराया गया है और 6 करोड़ शौचालय बनाने की बात कही गयी है। यह अच्छी बात है। लेकिन सरकार के काम के पिछ्ले अनुभव को देखते हुए इस लक्ष्य के पूर्ण होने में आशंका ज़रूर है।

यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि देश के अधिकतर बच्चे  कुपोषित हैं। इफ़प्री की हाल ही में जारी रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में भुखमरी की मार से पीड़ित 84 करोड़ बच्चों का चौथाई हिस्सा यानी 21 करोड़, भारत में निवास करता है। लेकिन  बजट में कुपोषण व खाद्य सुरक्षा जैसे मुद्दों पर बात ही नहीं की गयी और ना ही स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता व अन्य जनस्वास्थ्य सुविधाओं की बात है।

वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षा के प्रति वचनबद्धता दर्शायी। महिलाओं की सुरक्षा, अधिवक्तृता और जागरूकता कार्यक्रमों के लिए, 1000 करोड़ रुपये अतिरिक्त मुहैया कराने का निर्णय किया गया है। यह एक स्वागतयोग्य कदम है।

कई देशों ने निःशुल्क और सार्वभौम स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए  एकीकृत स्वास्थ्य सेवा-प्रणाली का निर्माण किया है। इनमें धनी देशों (अमरीका को छोड़कर) के साथ-साथ ब्राज़ील, चीन, क्यूबा, मेक्सिको, श्रीलंका, थाईलैंड सरीखी विकासशील अर्थव्यवस्थाएं भी शामिल हैं। भारत ने भी ‘यूनिवर्सल हैल्थ कवरेज’  के प्रति अपनी प्रतिबद्धतता दर्शाई है। प्रस्तावित राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी इसका उल्लेख है। यदि भारत को अगले 10-20 साल में इस लक्ष्य तक पहुंचना है तो इस दिशा में प्रयास अभी से करने होंगे। इसके लिए प्रतिबद्धता जरूरी है। लेकिन बजट में यह चीज सिरे से ग़ायब दिखती है।

इतना ही नहीं, आइसीडीएस, मध्याह्न भोजन योजना तथा सर्वशिक्षा अभियान के लिए आवंटन में कमी की गयी है और आंगनबाड़ी कर्मियों, आशा वर्करों आदि के मानदेय में बढोत्तरी से इंकार कर दिया गया है। कृषि, पेयजल व सेनिटेशन, पंचायती राज, जल संसाधन आदि से लेकर महिला व बाल विकास तक की योजनाओं में भारी कटौती की गयी है।

मुद्रा बैंक का लॉलीपॉप

बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था, “…सामाजिक और आर्थिक जीवन में पसरी विषमता, राजनीतिक समानता को निरुद्देश्य करती रहेगी; जब तक हम सदियों से चली आ रही इस सामाजिक-आर्थिक असमानता को पूरी तरह से मिटा नहीं देते। अगर हम ऐसा निकट भविष्य में नहीं कर पाते हैं तो विषमता-पीड़ित जनता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है…।” लोकतान्त्रिक मूल्यों और सामाजिक न्याय का तकाज़ा है कि विकास में सारे समुदायों की उचित भागीदारी हो। इसी उद्देश्य से योजनाओं में अनुसूचित जाति  एवं अनुसूचित जनजाति  उप-योजना का प्रावधान किया गया। यह प्रावधान  सामाजिक और आर्थिक विषमता को पाटने की प्रक्रिया का अहम हिस्सा है,  जिसके अंतर्गत प्रत्येक मंत्रालय व विभाग को अपने-अपने बजट का 16 एवं 8 प्रतिशत हिस्सा क्रमशः अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति केन्द्रित कार्यक्रमों पर खर्च करना होता है।  लेकिन इस वर्ष के बजट में अनुसूचित जाति/जनजाति उपयोजनाओं के आवंटनों में भारी कटौतियां की गयी हैं (तालिका-3)।

तालिका – 3: अनुसूचित जाति, अनु॰ जनजाति उप-योजना में बजटीय आवंटन (करोड़ रु)
अनुसूचित जाति उप-योजना अनुसूचित जनजाति उप-योजना
बजट 2015-16 30,850 19,980
बजट 2014-15 43,208 26,714
कितना होना चाहिए 77,236 40,014
प्रतिशत कमी 61% 53%

स्रोत: बजट दस्तावेज़

सरकार का कहना है कि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के उद्यमियों को  प्रोत्साहित करने के लिए बजट में ‘सूक्ष्म इकाई विकास पुनर्वित्त एजेंसी (मुद्रा) बैंक’ स्थापित करेगी, जिससे इन उद्यमियों को ऋण आसानी से उपलब्ध हो सके। इस पुनर्वित्त एजेंसी की स्थापना 20,000 करोड़ रुपये के शुरूआती कोष के साथ की जाएगी। इसका ऋण गारंटी कोष 3,000 करोड़ रुपये होगा। यह अच्छी बात है कि सरकार दलितों-बहुजनों में उद्यमिता बढ़ाने की बात तो कर रही है।

बाज़ार-केन्द्रित व्यवस्था में, किसी व्यक्ति/समूह का कल्याण इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी बाज़ार में कितनी हिस्सेदारी है और वे किस हद तक उद्यमशील है। पेनिसिलवेनिया विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया (सीएएसआई) के प्रमुख देवेश कपूर, चंद्रभान प्रसाद, लैंट प्रिशेट और डी श्याम बाबू के एक अध्ययन  में उत्तरप्रदेश के 20,000 दलित परिवारों का सर्वेक्षण किया गया, जिससे पता चला कि 1990 से 2008 के बीच दलितों की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। वे इस सुधार को दलितों में उद्यमिता बढ़ने का प्रतिफल बताते हैं। कल्याण-स्तर को ऊंचा रखने के लिए उद्यमिता को बढ़ावा देना होगा।

सरकार, दलित-बहुजन समुदायों में उद्यमिता बढ़ाने को लेकर कितनी गंभीर है, इसे इन दो दृष्टांतों से जाना जा सकता है। पहला, नीति संबंधी कोई भी निर्णय लेने के लिए आंकड़ों की ज़रूरत होती है। आंकड़े ही वस्तुस्थिति से अवगत कराते है; लेकिन अभी भी दलित-बहुजन उद्यमियों के बारे में कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है। सरकार द्वारा कराए गए सर्वेक्षणों में दलित परिवारों के पास मौजूद परिसंपत्ति और स्वरोजगार अपनाने वाले दलितों से जुड़े आंकड़े मिल जाएंगे  लेकिन दलित उद्यमियों और कारोबारियों के बारे में कहीं कोई जानकारी मौजूद नहीं है। एक मोटे सरकारी अनुमान के मुताबिक देश में लगभग 5.77 करोड़ छोटी कारोबारी इकाइयां, विनिर्माण व प्रशिक्षण कारोबार चला रही हैं। इनमें से 62 प्रतिशत का स्वामित्व अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के पास है।

अलबत्ता, सीएएसआई ने ज़रूर दलित-बहुजन उद्यमियों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने का प्रयास किया। इस संदर्भ में एक देशव्यापी सर्वेक्षण किया गया, जिसमें एक करोड़ रुपये या उससे अधिक का कारोबार करने वाले दलित कारोबारियों की गणना की गयी। इस सर्वेक्षण के अनुसार, देश में ऐसे 1000 उद्यमी हैं। यूं तो यह आंकड़ा देखने में अच्छा लगेगा लेकिन देश में दलितों की जनसंख्या देखते हुए यह अत्यंत कम है। देश में लगभग 16.6 करोड़ दलित हैं। उद्यम, कारोबार, परिसंपत्ति और स्वरोजगार के जातिगत आंकड़े जाति जनगणना से मिल सकते थे लेकिन इसको लेकर न तो कॉंग्रेस-नेतृत्व की यूपीए सरकार गंभीर थी और न ही अब भाजपा-नेतृत्व की एनडीए सरकार।

दूसरा, सरकार ने उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए स्व-रोजगार और प्रतिभा उपयोग (सेतु) कोष बनाया,  जो 1,000 करोड़ रु का है। देश में छोटे कारोबारियों की बहुत बड़ी संख्या को देखते हुए यह राशि अत्यंत कम है।

तीसरा, मोदी सरकार ‘राष्ट्रीय कौशल मिशन’ के बारे में बड़े ज़ोरशोर से प्रचार कर रही है। एक अनुमान के अनुसार 2020 तक देश में 11 करोड़ 3 लाख श्रमबल हो जाएगा। यह श्रमबल तभी ज़्यादा उत्पादक बन सकेगा जब यह कुशल हो। इसको कुशल बनने के लिए पिछली सरकारों ने विभिन्न कार्यक्रम चलाये और कुछ सार्थक प्रयास भी हुए। लेकिन मौजूदा मोदी सरकार युवाओं को प्रशिक्षित करने के इस मिशन के लक्ष्य को प्राप्त करती नहीं दिखती। कम से कम आंकड़े तो ऐसा ही बताते हैं ।

तालिका – 4: राष्ट्रीय कौशल मिशन के लक्ष्य तथा उपलब्धियां
वित्त वर्ष लक्ष्य (लाख में) प्रशिक्षित व्यक्ति (लाख में) उपलब्धियां (%)
2011-12 46.53 45.68 98.2
2012-13 72.51 51.88 72
2013-14 (दिसम्बर,2013 तक) 73.42 76.73 104
2014-15 (दिसम्बर,2014 तक) 105.5 42 40.6

कुल मिलाकर, बिना किसी ठोस कार्यनीति व कार्ययोजना के; आवश्यकता से कम फंड उपलब्ध कराने के साथ-साथ अपेक्षित इच्छाशक्ति की कमी के चलते, दलित-बहुजन तबके को व्यापार में बढ़ावा देने का दावा महज़ एक भुलावा है।

गालब्रेथ ने अपनी एक पुस्तक “इकॉनोमिक्स ऑफ इनोसेंट फ्रॉड: ट्रुथ ऑफ अवर टाइम” में बताया है कि अमेरिकी समाज कैसे ‘पूँजीवाद’ के लिए अब ‘बाजार अर्थव्यवस्था’ शब्द का इस्तेमाल करने लगा है। यथार्थ को छिपाने के लिए मनोहारी शब्दजाल बुना जाता है। गालब्रेथ इसे ‘निरीह कपट’ का सटीक उदाहरण मानते हैं। ‘सबका साथ और सबका विकास’ भी ऐसा ही “इनोसेंट फ्रॉड” है। सच्चाई तो यह है कि एक तरफ तो सम्पत्ति कर को हटाया गया है तो दूसरी तरफ़ कॉर्पोरेट टैक्स 30 से घटा के 25 प्रतिशत किया गया है। पूंजीपतियों के विकास की राहें हमवार की जा रही हैं तो ग्रामीण ग़रीब लोगों से उनके रोजगार की गारंटी छीनी जा रही है जिससे निश्चय ही ‘सामाजिक संतुलन’ बिगड़ेगा। बहरहाल, जो जैसे करेगा, वैसा भरेगा।

 

फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

आतिफ रब्बानी

लेखक आतिफ़ रब्बानी भीमराव आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। स्वास्थ्य अर्थशास्त्र और विकास के अर्थशास्त्र में शोध के अलावा हिंदी-उर्दू साहित्य में भी दिलचस्पी रखते हैं।

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