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‘खड़ी बोली ने बहुजन साहित्य को हाशिये पर डाला’

अम्बेडकरवादी चिन्तक और आलोचक कंवल भारती का कहना है कि अब उसकी वापसी हो रही है और वह ब्राह्मणवादी साहित्य को चुनौती दे रहा है

क्या यह सच नहीं है कि हिन्दी साहित्य की किसी भी प्रगतिशीलधारा के प्रति हिन्दी साहित्य की तत्कालीन मुख्यधारा बेरुखी अपनाती रही है ? भारतेंदु से लेकर अब तक यही हो रहा है। आज भी अस्मिताबोधी साहित्य के प्रति मुख्यधारा काफी प्रतिक्रियावादी है।

जिसे आप मुख्यधारा कहते हैं, वह दरअसल साहित्य की ब्राह्मणवादी धारा है। इस धारा के सभी रचनाकार ब्राह्मण थे, जिन्होंने वर्णव्यवस्था और हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान को साहित्य की मुख्यधारा के रूप में स्थापित किया था। इस धारा ने वर्णव्यवस्था का खण्डन करने वाली किसी भी प्रगतिशील धारा को स्वीकार नहीं किया। बहुजन साहित्य की धारा समतावादी और मौलिक समाजवाद की धारा थी और वह भारतेन्दु से पहले भी और उनके बाद भी , लगभग हर दौर में मौजूद थी। यह धारा लोक में लोक की भाषाओं में अनवरत संघर्षशील थी। पहले लोक भाषाएं ही साहित्य की भाषाएं थीं। बाद में ब्राह्मणों ने खड़ी बोली को साहित्य की भाषा इसलिए बनाया क्योंकि दलित-पिछड़ी जातियां अपना साहित्य लोकभाषा में लिख रही थीं। खड़ी बोली ने उस बहुजन साहित्य को हाशिए पर डाल दिया, जो समतावादी और मौलिक समाजवादी था। किन्तु आज भी, जब बहुजन साहित्य मुख्यधारा के (ब्राह्मणवादी) साहित्य को चुनौती दे रहा है तो उसे खारिज करने की कोशिश की जा रही है। भारत में यह क्रांति और प्रतिक्रांति की वैचारिक लड़ाई है। बहुजन वर्ग की क्रांति के विरुद्ध ब्राह्मण वर्ग ने हमेशा प्रतिक्रांति की है। इसलिए आज भी अगर तथाकथित मुख्यधारा प्रतिक्रियावादी है, तो उसमें क्या आश्चर्य? आश्चर्य तो तब होगा, जब वह प्रतिक्रियावादी नहीं होगी।

अस्मिता की राजनीति के अपने स्वभाव के अनुरूप साहित्य में भी धीरे-धीरे कई धाराएं जन्म ले रही हैं। दलित साहित्य, स्त्री साहित्य, दलित स्त्रीवादी साहित्य आदि। अब ओबीसी साहित्य और बहुजन साहित्य आकार ले रहा है। अभी साहित्य की प्रगतिशील और दलित धारायें एक दूसरे की प्रतिस्पर्धी हैं। क्या आपको लगता है कि साहित्य की इन नई धाराओं को साहित्य की पूर्वस्थापित धाराएं –दलित,  प्रगतिशील धाराएं – स्वीकार कर पाएंगी?

उन्हें स्वीकार करना ही होगा। अगर स्वीकार नहीं करेंगी, तो वे खुद सिमट कर हाशिए पर चली जाएंगी।

Kanwal Bhartiआप बहुजन साहित्य की अवधारणा को दलित साहित्य की अवधारणा से पुरानी मानते हैं, अपने इस मत पर इतिहास सापेक्ष राय दें।  क्या दलित और शूद्र साहित्य से अधिक समन्वयकारी और समग्र बहुजन साहित्य वर्गीकरण नहीं होगा? दलित और शूद्र जैसे विभाजित वर्गीकरण से अधिक असरकारी क्या बहुजन साहित्य वर्गीकरण नहीं है, जिससे प्रतिगामी एवं कलावादी अधिक स्पष्टता से चिह्नित होंगे?

दलित साहित्य के इतिहास लेखक यह मानते हैं कि महाराष्ट्र में दलित पैंथर बनने के बाद ही दलित साहित्य का नामकरण हुआ। यह साहित्य की दृष्टि से सही हो सकता है, परन्तु ‘दलित’ शब्द पहले से प्रचलित था। लखनऊ के भिक्खु बोधानन्द की किताब ‘मूल भारतवासी और आर्य’ में, जो 1928 में लिखी गई थी और रामचरण मल्लाह एडवोकेट के आर्थिक सहयोग से 1930 में प्रकाशित हुई थी, ‘पिछड़ी हिन्दू जातियां’ और ‘दलित हिन्दू जातियां’ नाम से दो उप-शीर्षक मिलते हैं। उन्होंने इन दोनों जातीय समुदायों को भारत की मूलनिवासी जातियां कहा है। आगे उन्होंने लिखा है, ‘यही लोग मूल भारतवासियों की गौरवपूर्ण सभ्यता, संस्कृति और इतिहास के संरक्षक तथा उत्तराधिकारी हैं।’

हिन्दी क्षेत्र में स्वामी अछूतानन्द का ‘आदि हिन्दू सभा’ आन्दोलन दलित-पिछड़ी जातियों के नवजागरण का आन्दोलन था, जिसके मूल में ‘मूल निवासी भारतीयों’ का दर्शन था। अपने ग्रन्थ ‘आदिखण्ड काव्य’ की अन्तिम पंक्तियों में उन्होंने लिखा था – ‘जो आजाद होन तुम चाहो तो अब छांट देउ सब छूत. ‘आदिवंश मिल जोर लगाओ, पन्द्रह कोटि ‘सछूत-अछूत’। इसमें ‘सछूत’ शूद्र हैं। इसीलिए इस आन्दोलन में दलित-पिछड़े सभी शामिल थे। यही बहुजन की अवधारणा थी। निषाद जाति के रामचरण एडवोकेट, जिन्हें जार्ज पंचम ने ‘राय साहब’ की उपाधि दी थी, आदि हिन्दू आन्दोलन के प्रमुख नेता थे। भिक्खु बोधानन्द, शिवदयाल चैरसिया, महादेवप्रसाद धानुक, रामचरण भुर्जी, गौरीशंकर पाल, बदलूराम रसिक, चैधरी हीरालाल और चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु इसी आन्दोलन में सक्रिय थे। बोधानन्द जी की किताब ‘मूल भारतवासी और आर्य’ भी इसी आन्दोलन का परिणाम थी। किन्तु बाद में, 1927 के अन्त में, बकौल चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, ‘कुछ स्वार्थी लोगों ने आदि हिन्दू सभा को संकुचित कर दिया जिसके परिणामस्वरूप लखनऊ में ‘मूल भारतवासी समाज’ की स्थापना हुई। इसका एक नाम ‘हिन्दू बैकवर्ड क्लासेज लीग’ भी था। 1928 में बोधानन्द जी ने, जो एक बंगाली ब्राह्मण थे, ‘नवरत्न कमेटी’ की स्थापना की थी। वस्तुतः यही ‘नवरत्न कमेटी’ आगे चलकर ‘हिन्दू बैकवर्ड क्लासेज लीग’ अथवा ‘मूल भारतवासी समाज’ संस्था में परिवर्तित हो गई थी। इस नवरत्न कमेटी में वही नौ लोग शामिल थे जिनका जिक्र ऊपर किया गया है। इनमें स्वामी अछूतानन्द भी एक रत्न थे। आदि हिन्दू आन्दोलन के संकुचित हो जाने के बाद ‘मूल भारतवासी समाज’ ने ही दलित-पिछड़े वर्गों में जागरण और एकता लाने का काम शुरु किया था। आगे चलकर चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने इसी वैचारिकी को बहुजन वैचारिकी का नाम दिया। उन्होंने ‘बहुजन-कल्याण-माला’ के अन्तर्गत बहुजन साहित्य के प्रकाशन का बीड़ा उठाया। इस माला को उन्होंने कब स्थापित किया था, इसकी जानकारी मुझे नहीं हो सकी परन्तु उनके बहुजन कल्याण प्रकाशन से प्रकाशित ‘आदि वंश का डंका’ ‘बहुजन कल्याण माला’ की पांचवी पुस्तक थी, ‘भारत के आदि निवासियों की सभ्यता’ ग्यारहवीं और उनके द्वारा लिखित ‘बाबासाहेब का जीवन संघर्ष’ इस माला की 17वीं पुस्तक थी, जिसका प्रथम संस्करण 1961 में प्रकाशित हुआ था। 1961 में ही इस माला की 23वीं पुस्तक ‘तुलसी के तीन पात’ प्रकाशित हुई थी, जिसके लेखक भदन्त आनन्द कौसल्यायन थे। इस बहुजन माला की 42वीं पुस्तक कालेलकर आयोग की रिपोर्ट की आलोचना पर थी, जिसका शीर्षक ‘पिछड़े वर्ग के वैधानिक अधिकारों का सरकार द्वारा हनन’ है।

इससे आप समझ सकते हैं कि चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने दलित-शूद्र साहित्य को बहुजन साहित्य के रूप में वर्गीकृत किया था, यह उस दौर की मांग भी थी। किन्तु अस्सी के दशक में हिन्दी में दलित साहित्य के नामकरण के पीछे की क्या परिस्थितियां थीं, इस पर जरूर शोधकार्य होना चाहिए।

आज वामपंथी राजनीति प्रायः सिमटती गई है। बहुजन राजनीति को गैर-दलित और गैर-ओबीसी लेखक जातिवादी राजनीति मानते रहे हैं। अब ऐसे लेखक हैं कहां, उनके सामने क्या विकल्प है?

वामपंथी राजनीति ने सिर्फ आर्थिक सवालों पर राजनीति की और उस सामाजिक व्यवस्था की अनदेखी की, जिससे दलित-पिछड़ा वर्ग शोषित और पीडित था। इसलिए इस देश के विशाल बहुजन समाज में वह अपना जनाधार विकसित नहीं कर सकी। उसे सिमटना ही था।

जो गैर-दलित और गैर-ओबीसी लेखक बहुजन राजनीति को जातिवादी राजनीति मानते हैं, वे दरअसलए स्वयं जातिवादी और वर्णवादी हैं। उन्हें मैं यथास्थितिवादी कहना चाहूंगा क्योंकि वे परिवर्तन-विरोधी हैं। लेकिन इन वर्गों में भी ऐसे लेखक भी हैं, जो वर्णवादी मानसिकता से मुक्त हैं, हांलाकि उनकी संख्या कम है।

क्या भ्रष्टाचार और सुशासन आज के सबसे बडे सवाल हैं?

ये अगर सबसे बड़े सवाल हैं भी तो निजी पूंजीवादी व्यवस्था में हल होने वाले नहीं हैं। ये जनता को भ्रमित करने वाले सवाल हैं। निजी पूंजीवाद मुनाफे पर जीवित रहता है, जिसे शोषण की नीतियां पैदा करती हैं . ऐसी व्यवस्था में भ्रष्टाचार खत्म होने का सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि शोषण भी एक तरह का भ्रष्टाचार है। अब रहा सवाल सुशासन का, तो यह किस तरह आएगा, जब पूरा तन्त्र ही निजी हाथों में जा रहा है, यह मेरी समझ से परे है। निजी पूंजी तन्त्र में अमीरों और गरीबों के बीच खाई बढ़ती है। असमानता की इस व्यवस्था को सुशासन कैसे कहा जा सकता है? हां, कुछ मुट्ठीभर धन्नासेठ जरूर इस सुशासन को महसूस कर सकते हैं। मेरी अपनी अवधारणा तो यह है कि सामाजिक और आर्थिक समानता के बिना सुशासन आ ही नहीं सकता।

जातिमुक्ति का वर्तमान एजेंडा क्या हो इस वक्त ?

मेरी दृष्टि में जाति-मुक्ति का एकमात्र एजेण्डा समाजवादी लोकतन्त्र में ही है, जिसे डा. आंबेडकर ने स्टेट सोशलिज्म कहा है। समान शैक्षिक और आर्थिक विकास ही जातिमुक्ति का पथ है।

(बहुजन साहित्य से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ (हिंदी संस्करण) अमेजन से घर बैठे मंगवाएं . http://www.amazon.in/dp/8193258428 किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र ही उपलब्ध होगा)

लेखक के बारे में

संजीव चन्दन

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। संपर्क : themarginalised@gmail.com

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