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प्यारी हिंदू पवित्र गाय का मृत्युलेख

अगर गौवंश के वध पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया जाएगा तो देश के किसानों की इस पूरक आय पर सीधा असर पड़ेगा, देश के कुल मवेशियों में अनुपयोगी जानवरों का प्रतिशत बढ़ जाएगा और चारा मंहगा हो जाएगा

फिर भी हर आदमी उस चीज को मारता है जिससे वह प्यार करता है …

-ऑस्कर वाइल्ड

भारत के संविधान निर्माताओं ने सवर्ण हिंदुओं की खातिर, संविधान में एक अनुच्छेद (अनुच्छेद 48) डाला, जो कि भाग 14 (राज्य के नीति निदेशक तत्व) का हिस्सा है। सन् 1950 में भारतीय समाज मुख्यत: कृषि-आधारित था। इसके अनुरूप, यह अनुच्छेद ”कृषि और पशुपालन के संगठन’ के संबंध में है। यह कहता है कि ”राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण व सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिशेध करने के लिए कदम उठाएगा।’ इस अनुच्छेद में परस्पर विरोधाभास हैं। स्पष्टत:, जब तक घटिया नस्ल के मवेशियों की संख्या कम नहीं की जाएगी और अच्छी नस्ल के मवेशियों की संख्या बढ़ाई नहीं जाएगी तब तक ”आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों’ से ”नस्लों का सुधार’ संभव नहीं है। पालतू मवेशियों के मामले में हम नस्ल में सुधार के लिए प्राकृतिक चयन पर निर्भर नहीं रह सकते और ना ही प्राकृतिक चयन के लिए भारत में पर्याप्त संख्या में शिकारी पशु उपलब्ध हैं। राज्य के नीति निदेशक तत्वों में ”संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम 1976” के जरिए अनुच्छेद 48ए जोड़ा गया जो कि ”पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा’ के संबंध में है। यह अनुच्छेद कहता है कि ”राज्य, देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा’।

beef-banजैसा कि नीचे दिए गए तथ्यों से स्पष्ट होगा, विभिन्न नस्लों के आवारा पशुओं के बड़े-बड़े झुंड, जो कि अनुच्छेद 48 के परिपालन का स्वाभाविक नतीजा हैं, भारत के ग्रामीण, शहरी व वन्य पर्यावरण के लिए खतरा हैं। इस खतरे के मूल में है अनुच्छेद 48 और अनुच्छेद 48ए में परस्पर विरोधाभास। इसके अलावा, अनुच्छेद 48 को तोड़मरोड़ कर लागू करने से जीवन के मूलाधिकार के जीविकोपार्जन करने के अधिकार वाले हिस्से का उल्लंघन होता है। बूढ़े बैल व सांड न तो दुधारू गायें हैं और ना ही बछड़े। बूढ़े और कमजोर बैल और सांड, भारवाही पशु भी नहीं हैं। गौवध पर देश के कई राज्यों में प्रतिबंध है परंतु महाराष्ट्र पशु संवर्धन (संशोधन) विधेयक 1995, जिसे मार्च 2015 में लागू किया गया व हरियाणा गौवंश संरक्षण व गौसंवर्धन विधेयक (2015), जिनमें गौवध के लिए दस हजार रूपये से लेकर एक लाख रूपये तक के जुर्माने और तीन साल से लेकर दस साल तक की कैद की सज़ा का प्रावधान है, न केवल अत्यंत कठोर हैं वरन् मुस्लिम-विरोधी, ईसाई-विरोधी व दलित-विरोधी भी हैं। दोनों राज्यो में गरीब मुसलमानों और नीची जातियों की खासी आबादी है जिनके लिए बीफ ही एकमात्र सस्ता मांस है। कहने की आवश्यकता नहीं कि गरीबों में कुपोषण एक व्यापक समस्या है। महाराष्ट्र और हरियाणा की भाजपा सरकारों ने अनुच्छेद 48 को तोड़मरोड़ कर उसकी मनमानी व्याख्या की है और पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राईट्स (पीयूडीआर) द्वारा जारी एक वक्तव्य के अनुसार, ये सरकारें, ‘बहुसंख्यकवादी एजेंडा’ लागू कर रही हैं और एक तरह से बीफ पर पूर्ण प्रतिबंध लगा रही हैं। यह शायद अखिल भारतीय स्तर पर गौवध व बीफ पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की शुरूआत है, जिसकी मांग हिंदुत्ववादी सिद्धांतकार व नेता करते आए हैं। महाराष्ट्र का अधिनियम, गाय की परिभाषा में सांडों और बैलों को भी शामिल करता है। यह तो गनीमत है कि अधिनियम में भैंस को मवेशी की परिभाषा से बाहर रखा है। ऐसा माना जाता है कि गौमांस की तुलना में भैंस का मांस कम गुणवत्ता वाला होता है और बीफ के बाजार में इसका हिस्सा केवल 25 प्रतिशत है। बेचारी भैंस! वह तो असुरों की सवारी है और उसे मारकर खाया जा सकता है।

प्रतिबंध के विरूद्ध तर्क

इस कानून के आलोचकों ने अनेक ऐतिहासिक व सामाजिक आधारों पर इसका विरोध किया है। ये सभी तर्क सशक्त और पुराने हैं। सर्वप्रथम, उनका कहना है कि यह दावा कि ‘हिंदू’ कभी बीफ नहीं खाते थे, ऐतिहासिक दृष्टि से गलत और विचारधारा से प्रेरित है-कुल मिलाकर, सवर्ण हिंदू राष्ट्रवाद, एक काल्पनिक, शुद्धतावादी समाज का अस्तित्व सिद्ध करना चाहता है। यह प्रयास 19वीं सदी में ही प्रारंभ हो गया था जब आर्य समाज ने गौवध के विरूद्ध बड़ा आंदोलन शुरू किया था और उसकी गौरक्षा समितियों के निशाने पर मुख्यत: मुसलमान थे।

दूसरे, बीफ पर प्रतिबंध से दलितों, मुसलमानों और ईसाईयों की खानपान की आजादी छिनती है व उनके हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वे सस्ते प्रोटीन का एक बड़ा स्त्रोत भी खो बैठते हैं। हमारे देश में पहले से ही प्रोटीन की प्रति व्यक्ति खपत, अन्य कई देशों की औसत खपत से काफी कम है। इस अर्थ में यह कानून गरीबों के भी खिलाफ है। तीसरे, ऐसा माना जाता है कि कसाई और मांस के व्यवसायियों में से अधिकांश मुसलमान हैं और भाजपा ने जानबूझ कर इन लोगों पर निशाना साधा है ताकि इस मुद्दे का इस्तेमाल तथाकथित हिंदू मत को मजबूत करने के लिए किया जा सके। इसके अतिरिक्त, गौवध पर प्रतिबंध आर्थिक दृष्टि से ठीक नहीं है। बीफ पर प्रतिबंध के संभावित परिणामों के संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाएगा कि हिंदुत्ववादियों ने गाय को अपनी राजनीति का केन्द्र बनाकर, पवित्र गाय के दूरगामी हितों को नुकसान ही पहुंचाया है। आज से लगभग सौ वर्ष पहले, गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ में बड़ी सटीक भविष्यवाणी की थी कि गौरक्षा समितियां, गाय की सबसे बड़ी शत्रु हैं और गौवध पर प्रतिबंध से गौवध घटेगा नहीं बल्कि बढ़ेगा। गांधीजी यह अच्छी तरह से समझते थे कि गाय को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धर्माधारित विवाद का मुद्दा बनाना कितना खतरनाक होगा। वे केवल हिंदुओं को प्रसन्न करने के लिए किसी को बीफ खाना बंद करने पर मजबूर करने के खिलाफ थे क्योंकि उनका कहना था कि मनुष्यों के खिलाफ हिंसा, गाय को मारने और उसे खाने से भी बुरी है। जो कठोर गौरक्षा कानून अभी हाल में बनाए गए हैं, और जिनका आधार भारत का संविधान बताया जाता है, गांधीजी की धार्मिक सहिष्णुता और किसी के साथ जबरदस्ती न करने की उनकी सीख के विरूद्ध हैं।

प्रतिबंध के परिणाम

गौवध और बीफ पर प्रतिबंध से अंतत: भारत के मवेशियों का ही नुकसान होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय मवेशी, मुख्यत:, कृषि कर्म से जुड़े हैं। इस देश के अधिकांश मवेशियों को किसान ही पालते हैं। भारतीय कृषक सदियों से जानवरों का इस्तेमाल खेती में करते आए हैं और उन्होंने मवेशियों की नस्लों में शनै: शनै: सुधार किया है, जिसके नतीजे में आज देश में गायों और बैलों की कई बहुत अच्छी नस्लें उपलब्ध हैं। किसान जानते हैं कि जब गाय, बैल और सांड बूढ़े हो जाते हैं तो वे गैर-कृषक समुदायों के लिए भोजन, चमड़े आदि का स्त्रोत बनते हैं। भारतीय किसान के पास नकदी की हमेशा कमी बनी रहती है और अनुत्पादक या अतिशेष मवेशियों को कसाइयों या मवेशियों का व्यापार करने वालों को बेचकर, उसे नकद धन प्राप्त होता है। अनुपयोगी जानवरों को खत्म करने से चारागाहों और मंहगे चारे का इस्तेमाल उपयोगी, ताकतवार और दुधारू जानवरों के लिए किया जा सकता है। अगर गौवंश के वध पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया जाएगा तो देश के किसानों की इस पूरक आय पर सीधा असर पड़ेगा, देश के कुल मवेशियों में अनुपयोगी जानवरों का प्रतिशत बढ़ जाएगा और चारा मंहगा हो जाएगा। इस तरह के कानून अतार्किक हैं और देश की आर्थिक प्रगति को बाधित करते हैं। जितने आवारा पशु भारत में हैं, उतने दुनिया के किसी दूसरे देश में नहीं हैं। गौवध निषेध कानूनों से आवारा जानवरों की संख्या में और वृद्धि होगी, जिससे खेती को नुकसान होगा। सरकार पहले ही बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण करने की योजना बना चुकी है। इन दोनों कारकों के चलते देश में खेती-योग्य जमीन में भारी कमी आने की आशंका है। मुझे बताया गया है कि हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्यों में आवारा पशुओं के बड़े-बड़े झुंड खेती के लिए बड़ा खतरा बन गए हैं। ये झुंड दिन में जंगलों में गायब हो जाते हैं और रात में फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं और कब जब तो पूरी फसल ही सफाचट कर जाते हैं। आवारा जानवर जंगल में सुरक्षित रहते हैं क्योंकि तेंदुए, शेर व भेडिय़े जैसे शिकारी जंतु लगभग गायब हो गए हैं। जिस देश में वन क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहा हो वहां आवारा पशुओं के बड़े-बड़े झुंड यदि जंगलों में निर्भय होकर घूमेंगे और चरेंगे तो यह पर्यावरण व स्वास्थ्य की दृष्टि से आत्मघाती होगा। अगर आप आवारा पशुओं को किसी स्थान पर रखना चाहें तो यह बहुत खर्चीला और मुश्किल काम होगा। जिस देश में लाखों गरीब और सामाजिक दृष्टि से वंचित लोग, ऐसी मूलभूत सुविधाओं के बगैर जीने को बाध्य हैं जिनके बिना आधुनिक जीवन की कल्पना भी नहीं की सकती, वहां आवारा व अनुपयोगी पशुओं पर देश के सीमित संसाधन बर्बाद करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। अत: गौवध प्रतिबंध कानून, पर्यावरण व स्वास्थ्य विरोधी हैं। कल्पना कीजिए एक स्मार्ट सिटी की जिसमें हर तरफ मीथेन की बदबू आ रही होगी, जिसकी सड़के गाय के गोबर और गौमूत्र से सनी होंगी और कचराघरों में आवारा पशु मुंह मार रहे होंगे। अनुत्पादक जानवर, मांस, चमड़े आदि का स्त्रोत होते हैं। नए कानूनों के बाद, मरे हुए जानवरों को ठिकाने लगाना एक समस्या बन जाएगा। अधिकांश राज्यों में म्युनिसिपल सेवाएं गांवों व अद्र्धशहरी क्षेत्रों में उपलब्ध नहीं होतीं परंतु मवेशी वहां भी मरते हैं। इन कानूनों के कारण, मृत पशुओं की खाल उतारना एक खतरनाक पेशा बन जाएगा। जो लोग या समुदाय मृत पशु की खाल उतारेंगे, उन पर यह आरोप आसानी से लगाया जा सकेगा कि उनके पास बीफ पाया गया। और यह, कानून की दृष्टि में अपराध होगा। मृत पशुओं की खाल उतारने वाले गरीबों पर गौवध का आरोप लगेगा और सांप्रदायिक तत्व तालियां पीटेंगे। कुछ समय के लिए इससे भाजपा-आरएसएस को लाभ हो सकता है परंतु गौमांस की इस नवउत्पादित राजनीति से उपजी हिंसा, अंतत:, राज्य सरकारों के लिए सरदर्द बन जाएगी। वैसे भी हमारी राज्य सरकारें, कानून और व्यवस्था बनाए रखने के मामले में फिसड्डी ही साबित होती आई हैं। प्रतिबंध से बीफ का व्यापार चोरी-छुपे किया जाने लगेगा, ठीक उसी तरह जिस तरह शराबबंदी वाले राज्यों में शराब का व्यापार भूमिगत हो गया है। बीफ का एक बड़ा काला बाजार तैयार हो जाएगा जिसमें सरकारी तंत्र के पुर्जों की मिलीभगत होगी। आश्चर्य नहीं कि कुछ सालों बाद हमें शराब माफिया की तरह ‘बीफ माफिया’ के बारे में भी सामाचार पढऩे को मिलने लगें। यह भी हो सकता है कि इस माफिया के पीछे भारतीय राज्य को ‘विदेशी हाथ’ नजर आने लगे। गौवध पर प्रतिबंध का सबसे अधिक फायदा भारतीय भैंस को होगा जो कि एक मजबूत और उपयोगी जानवर है, जिसे अब तक कम करके आंका जाता रहा है। किसान गाय की जगह भैंस पालने लगेंगे। भैंस का दूध गाढ़ा होता है, भैंसा एक अच्छा भारवाहक पशु है और उसका मांस भी खाया जाता है। गौवध पर प्रतिबंध से गाय एक मुसीबत बन जाएगी और भैंस एक उपयोगी संपत्ति। भैंस की खाल से अच्छी गुणवत्ता का चमड़ा नहीं बनता परंतु उसके मांस की कीमत बढ़ जाएगी क्योंकि गौमांस, खुले बाजार से गायब हो जाएगा। यह किसानों के लिए गाय की जगह भैंस पालने का पर्याप्त कारण होगा। किसान बड़ी संख्या में बकरियां और भेड़ें भी पालने लगेंगे क्योंकि गौवध पर प्रतिबंध से मटन की कीमत तेजी से बढ़ेगी। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि इन कानूनों के बाद भारत में चमड़े का उत्पादन कम हो जाएगा और अच्छी गुणवत्ता का चमड़ा मंहगा हो जाएगा। चमड़े से बनी वस्तुओं के उत्पादकों और निर्यातकों को नुकसान होगा क्योंकि उनकी उत्पादन लागत बढ़ जाएगी। वर्तमान में भारत के चमड़ा और चमड़ा उत्पादों के निर्यातकों की विश्व बाजार में बहुत धाक है। यह समझने के लिए आपको अर्थशास्त्र का पंडित होने की आवश्यकता नहीं है कि भारतीय चमड़े की कीमत बढऩे से उसके निर्यात में कमी आएगी और भारत को मिलने वाली विदेशी मुद्रा घटेगी।

इस प्रतिबंध से मुख्यत: लाभांवित होंगे बीफ और चमड़े के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत के प्रतियोगी देश। गौवध पर प्रतिबंध के पैरोकारों को यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी सन 2014 तक, भारत, ब्राजील के बाद, बीफ का सबसे बड़ा निर्यातक था। भारत में चमड़े के जूते, जैकेट, बैग, पर्स आदि इतने महंगे हो जाएंगे कि भारतीय बाजार, चीन के सस्ते, जहरीले प्लास्टिक से बने सामानों से पट जाएगा, जो चमड़े जैसे दिखते हैं। सन् 1970 के दशक में भारत सरकार ने ”बी इंडियन, बाय इंडियन’ (भारतीय बनो, भारतीय सामान खरीदो) का नारा दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसमें थोड़ा परिवर्तन कर ‘मेक इन इंडिया’ का नारा बुलंद किया है। सिन्थेटिक चमड़े से बने चीनी सामान की भारत के बाजार में बाढ़ से ”मेक इन इंडिया’ अभियान कैसे सार्थक होगा, यह कहना मुश्किल है।

गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ में लिखा

gandhi”सच तो यह है कि दुनिया में जितने व्यक्ति हैं उतने ही धर्म हैं परंतु जो लोग राष्ट्रीयता की आत्मा से वाकिफ हैं वे एक-दूसरे के धर्मों में हस्तक्षेप नहीं करते। अगर वे ऐसा करते हैं तो वे राष्ट्र कहलाने लायक नहीं हैं। अगर हिंदू यह विश्वास करते हैं कि भारत में केवल हिंदुओं को रहना चाहिए तो वे सपनों की दुनिया में रह रहे हैं। हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई, जिन्होंने भारत को अपना देश बनाया है, वे सब देशवासी हैं और उन्हें एक होकर रहना होगा। अगर किसी और कारण से नहीं तो अपने स्वयं के हित के लिए। दुनिया के किसी हिस्से में एक राष्ट्रीयता और एक धर्म पर्यायवाची नहीं हैं और ना ही भारत में कभी ऐसा था…अगर मैं उसे एक ओर खीचूंगा, तो मेरा मुस्लिम भाई मुझे दूसरी ओर खींचेगा। अगर मैं अपने आपको श्रेष्ठ बताउंगा तो वह भी ऐसा ही करेगा, अगर मैं झुक कर उसका अभिवादन करूंगा तो वह शायद और झुक कर उसका जवाब देगा। और अगर वो ऐसा नहीं भी करता तो कोई यह न कह सकेगा कि मैंने झुक कर उसका अभिवादन कर कुछ गलत किया। जब-जब हिंदुओं ने गौवध के मुद्दे पर जोर दिया तब-तब गौवध बढ़ा है। मेरी राय में गौरक्षा समितियां, गौवध समितियां हैं। यह हमारे लिए शर्म की बात है कि हमें इस तरह की समितियों की जरूरत पड़ रही है।’

स्वामी विवेकानंद ने ‘मदुरै में स्वागत भाषण के उत्तर’ में कहा

vivekananda”हममें में से हरेक को यह मानकर चलना होगा कि हमारे अलावा, दुनिया के हर व्यक्ति ने उसका काम खत्म कर दिया है और इस दुनिया को बेहतरीन बनाने के लिए जो भी किया जाना है, वह अब हमें ही करना है। यह जिम्मेदारी हमें अपने ऊपर लेना है। इस बीच भारत में धर्म का पुनरूत्थान हुआ है। यह हमें खतरे की ओर भी ले जा सकता है और महानता की ओर भी क्योंकि पुनरूत्थान से कब-जब कट्टरता भी उभरती है और यह कट्टरता इतनी बढ़ जाती है कि यह पुनरूत्थान शुरू करने वालों के नियंत्रण से बाहर हो जाती है। इसलिए सावधान रहना बेहतर है। हमें अंधविश्वास व कट्टरता की खाई और भौतिकतावाद, यूरोपीयवाद, तंगदिली, तथाकथित सुधार, जो पश्चिमी उन्नत समाज की नींव में पैठ कर गए हैं, के कुएं के बीच से अपना रास्ता ढूंढना है। हमें इन दोनों चीजों से सावधान रहना है…इसी भारत में एक समय था जब बिना गौमांस खाए कोई ब्राहम्ण, ब्राहम्ण नहीं रह सकता था। तुम वेदों में पढ़ो कैसे जब कोई सन्यासी, कोई राजा या कोई महान व्यक्ति किसी के घर आता था तो सबसे अच्छे बैल का वध किया जाता था। कैसे धीरे-धीरे यह समझ में आया कि चूंकि हम खेतिहर नस्ल हैं इसलिए सबसे अच्छे बैलों को मारकर हम अपनी ही नस्ल के उन्मूलन की ओर बढ़ रहे हैं।’

बी. आर. आम्बेडकर ने ‘डिड द हिंदूज नेवर ईट बीफ’ में लिखा

ambedkar”काफी समय से किसी हिन्दू ने बीफ का सेवन नहीं किया है। अगर उस स्पृश्य हिन्दू के उत्तर का यह अर्थ है, तो इस मामले में किसी विवाद की गुंजाइश नहीं है। परंतु जब विद्वान ब्राहम्ण यह तर्क देते हैं कि न केवल हिन्दुओं ने कभी गौमांस नहीं खाया वरन् वे हमेशा से गाय को पवित्र मानते रहे हैं और हमेशा से गौवध के विरोधी रहे हैं तो इस दावे को स्वीकार करना असंभव है…। ऋग्वेद में गाय के लिए अघन्य विशेषण का इस्तेमाल किया गया है, जिसका अर्थ है वह गाय जो दूध दे रही है और इसलिए वध किए जाने के योग्य नहीं है। यह भी सही है कि ऋग्वेद में गाय को पूजनीय बताया गया है। परंतु भारतीय आर्यों जैसे कृषक समुदाय से यह अपेक्षित ही था कि वह गाय का सम्मान और पूजा करेगा। परंतु गाय की उपयोगिता ने आर्यों को भोजन की खातिर गौवध करने से नहीं रोका। बल्कि सच तो यह है कि गौवध इसलिए किया जाता था क्योंकि गाय पवित्र मानी जाती थी… तैत्रेय ब्राहम्ण में जो कामयाष्ठियां दी गईं हैं, उनमें न केवल बैलों और गायों की बलि की चर्चा है वरन् यह भी बताया गया है कि किस तरह के गायों और बैलों को किस देवता को बलि चढ़ाया जाना चाहिए। उदाहरणार्थ, विष्णु को छोटे कद के बैल की बलि दी जानी चाहिए तो इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए ऐसे बैल का वध किया जाना चाहिए जिसके आगे लटकते हुए सींग हों और जिसके माथे पर सफेद निशान हो, कुषाण को काली गाय, रूद्र को लाल गाय आदि। तैत्रेय ब्राहम्ण में एक और बलि की चर्चा है, जिसे पंचसारदीय सेवा कहा जाता है। इसका एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान था पांच वर्ष की आयु वाले बिना कूबड़ के सत्रह ठिगने बैलों और इतनी ही संख्या में तीन वर्ष से कम आयु की ठिगनी बछियाओं का दहन।’

फारवर्ड प्रेस के जून, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

अनिरूद्ध देशपांडे

डा. अनिरुद्ध देशपांडे दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। पूर्व नेहरू फेलो डा. देशपांडे की तीन किताबें प्रकाशित हैं: ‘द ब्रिटिश राज एंड इट्स आर्म्ड फोर्सेज’(2002), ‘ब्रिटिश मिलिट्री पालिसी इन इंडिया 1900-1945’(2005), क्लास,पावर एंड कांशसनेस इन इन्डियन सिनेमा एंड टेलीविजन(2009), कई शोध पत्र, आलेख और समीक्षाएं भी प्रकाशित हैं। वे हाल में ‘तीन मूर्ती’ के लिए ‘मोतीलाल नेहरू सेंटेनरी बायोग्राफी फेलो’ चयनित हुए हैं। उनकी एक किताब: ‘नैवल म्युटिनी एंड स्ट्रीट नेशनलिज्म’ प्राइमस बुक्स से शीघ्र प्रकाश्य है।

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