एक का भोजन, दूसरे का जहर होता है। यह अंग्रेजी मुहावरा पांच सदी पुरानी है और रोम में 2000 साल पहले प्रचलित था। जहां भी दो से अधिक इंसान होंगे उनमें भोजन सहित हर मुद्दे पर घोर असहमतियां होंगी। इसलिए हम जब भाजपा-शासित प्रदेशों में गाय और बछड़े के वध पर प्रतिबंध को बैलों तक बढ़ाने के मुद्दे को उठाते हैं तो हम इस बहस में नहीं पड़ते कि बीफ खाना चाहिए या नहीं और ना ही हम भारतीय नागरिकों के इस अधिकार की बात करते हैं कि वे जो चाहे खाएं और जो चाहे न खाएं। यद्यपि यह एक मुद्दा है।
हमारी पहली चिंता यह है कि क्या ये कानून संविधान-सम्मत हैं? हम उनके औचित्य और तार्किकता पर बात करना चाहते हैं और बहुसंख्यक बहुजनों पर उनके प्रभाव पर भी। मैंने इस मुद्दे को आवरणकथा का विषय बनाने का निर्णय तभी किया जब मुझे यह विश्वास हो गया कि ये सिर्फ खानपान की स्वतंत्रता का मसला नहीं है। यह स्वतंत्रता भी महत्वपूर्ण है और एफपी समय-समय पर हैदराबाद से लेकर नई दिल्ली के जेएनयू तक आयोजित ‘बीफ समारोहों’ की खबरें प्रकाशित करती रही है परंतु अगर मुद्दा सिर्फ यही होता तो एफपी को इसे उठाने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि अनेक धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी पत्रिकाएं यह कर रही हैं।
प्रो. अनिरूद्ध देशपांडे हमारे पाठकों के लिए अजनबी नहीं हैं। एफपी की अपनी पहली आवरणकथा में उन्होंने इन सभी मसलों को उठाया है। उन्होंने संविधान के नीति निदेशक तत्वों के मवेशियों और पर्यावरण से संबंधित अनुच्छेदों की पारस्परिक विसंगतियों बल्कि विरोधाभासों पर प्रकाश डाला है। वे तार्किक ढंग से समझाते हैं कि नए कानूनों के परिणाम, उन उद्देश्यों के बिलकुल उलट होंगे, जिनके लिए उन्हें बनाया गया है। और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इन कानूनों से बीफ खाने वाले अल्पसंख्यक – मुसलमान व ईसाई (17 प्रतिशत) – तो प्रभावित होंगे ही, इनसे अनुसूचित जातियों व जनजातियों (25 प्रतिशत) – जो भले ही बीफ न खाते हों परंतु अपने जीवनयापन के लिए बीफ के व्यवसाय पर निर्भर हैं – के हितों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इनके अलावा, किसान, जिनमें बहुजनों की बड़ी संख्या (33 प्रतिशत?) है, भी प्रभावित होंगे, क्योंकि वे अपने बूढ़े बैलों को बेचकर नए जवान बैल नहीं खरीद पायेंगे।
मैंने महाराष्ट्र के ओबीसी किसानों के साक्षात्कार सुने हैं। एक किसान मवेशियों के एक बाजार से दूसरे बाजार भटक रहा था परंतु उसे अपने बूढ़े बैलों के लिए खरीददार नहीं मिल रहा था। जब तक वे बैल नहीं बिक जाते तब तक न तो वह नई बैल जोड़ी खरीद सकता था और ना ही बूढ़े, रिटायर्ड बैलों को चारा खिला सकता था। वह परेशानहाल किसान कहता है , ‘मैं शाकाहारी हूं परंतु यदि सरकार ये समझती है कि उसने यह मेरे लिए किया है तो सच यह है कि वह मुझे, मेरे परिवार और मेरे बूढ़े बैलों को मार रही है।’ यह सुनने के बाद मुझे यह विश्वास हो गया कि जैन दर्शन से प्रेरित ये ब्राह्मणवादी कानून, जिन्हें समाज को ध्रुवीकृत करने के लिए बनाया गया है, बहुजनों का अहित करेंगे।
कुछ धनी भलेमानुस नई गौशालाएं (रिटायर्ड बैलों को तो छोडिए, बूढ़ी गायों के लिए भी ये पर्याप्त नहीं है) खोलने की बात करते हैं और दिल्ली हाईकोर्ट कहता है कि विदेशी पक्षियों को ‘गरिमा पूर्ण जीवन’ का मूलाधिकार है। यह तब जब हजारों किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं (मुख्यत: सस्ती फसल बीमा योजना के अभाव में)। इस सबसे हम इस उक्ति का निहितार्थ समझ सकते हंकि कोई भी समूह, उससे ऊपर नहीं उठ सकता, जिसकी वह आराधना करता है। जहां तक बहुजनों का सवाल है, ऐसा लगता है कि समाज उन्हें ‘गरिमापूर्ण मृत्यु’ का मूलाधिकार भी नहीं देना चाहता। यह काम मदर टेरेसा और उनकी ननों को करना पड़ता है और फिर आरएसएस कहता है कि उनके परोपकार के पीछे दूसरे उद्देश्य हैं।
अगले माह तक…, सत्य में आपका
आयवन कोस्का
फारवर्ड प्रेस के जून, 2015 अंक में प्रकाशित