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राजनैतिक औजार के रूप में भाषा

भारत का शासक वर्ग बड़ी चालाकी से अंग्रेजी का उपयोग अपनी छवि को चमकाने और आमजनों को अज्ञानी बनाये रखने के लिए कर रहा है

अपनी बात कहने से पहले मैं दो किस्से सुनाता हूं। कुछ महीनों पहले मैं एक कार्यक्रम में बोलने के लिए पटना गया था। वक्ताओं में देश के एक स्थापित अंग्रेजी समाचारपत्र के संपादक भी थे। उन्होने श्रोताओं को हिन्दी में बताया कि वे कई वर्षों से समाचारपत्र के बिहार संस्करणों के संपादक हैं। मालिकों ने हमेशा उन्हें पूरी स्वतंत्रता दी और उनकी तरफ से किसी तरह का कोई दबाव उन्होने महसूस नहीं किया। उनके अनुसारए उन्होने जो चाहा और जैसे चाहाए जनता के हित में छपा। संपादक के बारे में मेरी भी राय है कि वे जनपक्षधर हैं। उन्हें मैं लगभग तीस साल से जानता हूं। अपनी बारी आने पर मैंने उनके सामने एक सवाल रखा कि क्या संपादक के रूप में जिस स्वतंत्रता का दावा वे कर रहे हैंए वैसे ही दावा उनकी कंपनी के हिन्दी के समाचारपत्र के संपादक भी कर सकते हैंघ् बिहार में आम लोगों तक हिन्दी के समाचारपत्रों की पहुँच है। अंग्रेजी के समाचारपत्रों का रिश्ता शासक वर्ग के एक तबके मात्र से है। आम लोगों में उनकी तनिक भी पैठ नहीं है। लिहाजा, बिहार में अंग्रेजी के संपादक को जनपक्षधरता के लिए स्वतंत्र छोड़ देना अर्थहीन है।

indian_newspapersदूसरी घटना की चर्चा सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य, मनीष कुमार झा एवं पुष्पेन्द्र की ‘ट्रेवर्सिंग बिहार’ नामक पुस्तक में करते हैं। इसमें उन्होने डी. बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में बिहार में गठित भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट के संबंध में लिखा है कि आयोग की सिफारिशों को लागू करना तो दूरए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उसकी रिपोर्ट को भी सार्वजनिक नहीं किया। जब सीपीआई (एमएल) ने इस मुद्दे पर आन्दोलन चलाया तो नीतीश सरकार ने विधानसभा के सदस्यों को उस रिपोर्ट की सीड़ी उपलब्ध करवा दी। लेकिन उस सीडी में आयोग की रिपोर्ट अंग्रेजी में थी। सरकार ने हिंदी में उसका अनुवाद तक नहीं करवाया था। इसी तरह अमीर देशों का अंतरराष्ट्रीय मीडिया पर नियंत्रण और मीडिया के जरिये तीसरी दुनिया के देशों पर वर्चस्व कायम करने के उनके तौर-तरीकों का अध्ययन करने के लिए 1970 के दशक में यूनेस्को द्वारा मैकब्राइड कमीशन बनाया गया था। उसकी रिपोर्ट में अनुशंसा की गयी थी कि रिपोर्ट का हिन्दी समेत दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद कराया जाए। लेकिन हिन्दी में आज तक उसका अनुवाद नहीं हो सका है। नई आर्थिक नीति के लागू होने के बाद से ऐसे अनेक उदाहरण देश में सामने आते रहे हैं।

जब हम कहते हैं कि भाषा एक राजनीतिक औजार है तो हम हिन्दी, अंग्रेजी,फारसी या संस्कृत की बात नहीं कर रहे हैं। हिन्दी के बरक्स अंग्रेजी या संस्कृत के बरक्स हिन्दी का जब उल्लेख किया जाता है तो यह किसी भाषा को कमतर बताने के इरादे से नहीं होता है बल्कि भाषा को एक राजनीतिक औजार के रूप में समझने के लिए हिन्दीए अंग्रेजी और संस्कृत को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। मसलनए जब भारत में अंग्रेजी के वर्चस्व की बात की जाती है तो थोड़े से अमीर लोगों के वर्चस्व की बात की जाती है। वे लोग अपनी संपन्नता बढाने के लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं। वे अंग्रेजी का इस्तेमाल समाज में समानता लाने के लिए नहीं करते बल्कि देश के बहुसंख्यकों पर शासन करने के लिए करते हैं। आज जिस तरह से भारत में अंग्रेजी के वर्चस्व की बात की जा रही हैए पहले इसी तरह फारसी और संस्कृत के वर्चस्व की बात की जाती थी।

हमारा इरादा भाषा को एक राजनीतिक औजार के रूप में समझने और समझाने का है। हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू या संस्कृत का समर्थन या विरोध करने का नहीं है।

हिन्दी-भाषी बिहार में अंग्रेजी के समाचारपत्र के संपादक और भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट के उदाहरणों के जरिये हमने यही करने की कोशिश की है। संपादक ने अपनी स्वतंत्रता की बात तो की लेकिन भाषा की स्वतंत्रता की बात नहीं की। हिन्दी-भाषी इलाके में अंग्रेजी के संपादक की स्वतंत्रता का कोई ख़ास मतलब नहीं है। संपादक के मुताबिक कोई भी पत्रकार जनपक्षधरता की भूमिका अदा कर सकता है बशर्ते वह खुद चाहता हो। लेकिन वह जिस भाषा के जरिये जनपक्षधर की भूमिका अदा कर रहा है, वह भाषा जनता की समझ में ही नहीं आती है। संपादक बेशक जनपक्षधर हो सकता है, समाचारपत्र के मालिक लोकतंत्र और संपादकीय स्वतंत्रता में आस्था रखने वाले हो सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र और स्वतंत्रता का संबंध लोगों से हैं। वह स्वतंत्रता या लोकतंत्र जब तक लोगों को नहीं छूती, उनके जीवन में कोई अर्थपूर्ण परिवर्तन नहीं लाती तब तब वह केवल संपादक और मालिक की स्वतंत्रता या लोकतंत्र ही रहेगी।
इसी तरहए नीतीश कुमार ने भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट को अंग्रेजी में जारी कर एक ओर लोकतंत्र और पारदर्शिता का हिमायती होने का अपना दावा मजबूत कर लिया तो दूसरे ओर हिन्दी-भाषी आवाम को उस रिपोर्ट की अंतर्वस्तु से वंचित करने में भी कामयाबी हासिल कर ली।
यहां भाषा की भूमिका को समझने की जरूरत हैं। यहाँ अंग्रेजी का इस्तेमाल संवाद के माध्यम के रूप में नहीं वरन शासकों की छवि, लोकतंत्र और पारदर्शिता में यकीन रखने वालों की बनाने के लिए औजार के रूप में हो रहा है। लिहाजा, यह समझने की जरूरत है कि भाषा का इस्तेमाल कब, कौन और किस उद्देश्य से कर रहा है। यही भाषा को राजनीतिक औजार के रूप में समझने में मदद कर सकता है।
हम किसे संबोधित करना चाहते हैंए यह संवाद की किसी भी रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है और इसी में भाषा के राजनीतिक औजार होने का मर्म भी छुपा होता है। मान लिया जाए कि हमें देश के शासक वर्ग को संबोधित करना है तो जाहिर सी बात है कि वह उनकी भाषा में किया जा सकता है। लेकिन यदि लोगों के बीच चेतना बढाना उद्देश्य है तो लोगों को उस भाषा में संबोधित नहीं किया जा सकता हैए जिसे समझने की उनकी क्षमता ही नहीं है। इस अर्थ में भारत के बहुसंख्यक वर्ग के लिए संस्कृत और अंग्रेजी में कोई फर्क नहीं है।

फारवर्ड प्रेस के जून, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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