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ज्ञान के दुर्ग पर दस्‍तक

राष्ट्रीय स्तर के उच्च शिक्षा संस्थानों में सामाजिक न्याय की डगर खतरों भरी रही है. परन्तु आज हम फुले और आम्बेडकर के सपनों को साकार होते देखने के जितने नज़दीक हैं, उतने पहले कभी नहीं थे

सन २००६ की गर्मियों में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने ज्योंहीं देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी विद्यार्थियों के लिए आरक्षण  (मंडल-2) की घोषणा की, देश भर में आरक्षण विरोध का वही तमाशा शुरू हो गया, जो व्हीपी सिंह के प्रधामंत्रित्व काल में सन १९८९ में ओबीसी को नौकरियों में आरक्षण (मंडल-1)  के निर्णय के बाद हुआ था. इसके कुछ माह पहले, 25 नवंबर को महाराष्ट्र के एकमात्र केन्द्रीय विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में, विद्यार्थियों के एक समूह ने ने CS1‘मनुस्मृति’ की प्रतियां जलाकर ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ मनाया. दहन कार्यक्रम में इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल था. इसके पहले, विश्वविद्यालय की एक ‘वाल मैगजीन’  ‘मूकनायक’ में छपी एक कविता ने माहौल को काफी गर्म कर रखा था. कविता दलित साहित्य के स्तम्भ नामदेव ढसाल की थी, जो आक्रोश के साथ उद्घोष करती है कि “जाति पूछने वाले के अंग विशेष में डंडा डाल दिया जायेगा.” ढसाल स्वयं महाराष्ट्र के आक्रामक  दलित पैंथर आन्दोलन के जनकों में से एक रहे हैं, जिसने सन १९८० व १९९० के दशकों में महाराष्ट्र के विश्वविद्यालयों में निर्णायक हलचल पैदा कर रखी थी.

इस कविता का विरोध करने में सबसे अग्रणी भूमिका ‘स्त्री अध्ययन’ में एमए कर रहीं सवर्ण लडकियों की थी, जिनमें से कई बाद में वहीं प्राध्यापिकाएं हुईं. शिकायत विश्वविद्यालय के कुलपति (जो संयोग से दक्षिण भारत की ओबीसी जाति से थे) तक गई. कुलपति ने क्या निर्णय सुनाया, यह जानने से ज्यादा प्रासंगिक यह है कि इसने लगभग १६ साल पहले, सामजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक पहल (मंडल कमीशन की सिफारिशों के तहत नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू किया जाना), जो भारत का भविष्य बदलने वाली थी, के विरोध में उतरी लडकियों की याद दिला दी. तब दिल्ली के प्रतिष्ठित कॉलेजों की सवर्ण लडकियों ने आरक्षण के विरोध में नारा दिया था, ‘हमारे पतियों की नौकरियां मत छीनो.’ यह नारा एक ओर तो अंतरजातीय विवाहों के खिलाफ पढ़ी–लिखी सवर्ण लडकियों का जातिवादी स्टेटमेंट था वहीं नौकरियों पर  हक सिर्फ सवर्ण पुरुषों का है, जैसा मर्दवादी-जातिवादी संकेतक. २००६ की उन गर्मियों में भी ‘उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण’ के खिलाफ बड़ी संख्या में सवर्ण डाक्टर, इंजीनियर लडकियाँ उतरी थीं और सडकों पर झाडू लागने जैसी जातिवादी हरकतें कर रही थीं.

रुक गया ड्राप आउट

लेकिन तीर तो तरकश से निकल चुका था. सामाजिक न्याय का यह तीर, अकादमिक संस्थानों में सवर्ण वर्चस्व को बेधने के लक्ष्य पर था और ऊपर के प्रसंग बिंधने की छटपटाहट की सूचना दे रहे थे. बाद के दिनों में ये प्रसंग और भी कटु रूप में नये–नये क्रूर तरीकों के साथ हमलावर दिखते हैं. परन्तु विश्वविद्यालय कैंपसों में
दलित–आदिवासी–पिछड़े-पसमांदा विद्यार्थियों के हक में इतिहास ने करवट ले ली थी, जो और मजबूत और हस्तक्षेपकारी होती गई. मंडल-२ के समानांतर एक और महत्वपूर्ण घटना घटी. वह थी उच्च शिक्षा के सर्वोच्च नियामक संस्थान, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ के अध्यक्ष के रूप में दलित अर्थशास्त्री सुखदेव थोराट की नियुक्ति. उन्होंने दलित CS5विद्यार्थियों के लिए ‘राजीव गांधी फेलोशिप’ की शुरुआत की. इस पहल का आगे विस्तार मुस्लिम विद्यार्थियों के लिए ‘मौलाना आज़ाद फेलोशिप’, लड़कियों के लिए फेलोशिप, ओबीसी विद्यार्थियों के लिए ‘राजीव गांधी फेलोशिप’ तथा अंततः केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शोधरत सभी विद्यार्थियों के लिए फेलोशिप के रूप में होता गया. इन शोध छात्रवृत्तियों ने उच्च शिक्षा में ‘ड्राप आउट’ (बीच में पढाई छोड़ने) की समस्या का स्थाई समाधान प्रस्तुत किया. कैम्पस में सामाजिक रूप से वंचित–उपेक्षित वर्गों के विद्यार्थियों की उपस्थिती के स्थायी होने और उनके सकारात्मक दवाब की शुरुआत की कहानी यहीं से शुरू होती है – कैम्पस बदल गये, छात्र राजनीति में मुद्दों की केन्द्रीयता का स्वरूप बदला, शिक्षक राजनीति की दिशा बदली.

आजादी के इस 69वें वर्ष में हम इस लोकतांत्रिक देश की उपलब्धियों को स्थाई होते देख सकते हैं – पीछे छूट गये युवाओं को राज्य की पहल पर मिल रहे सामाजिक न्याय और अवसरों के कारण. आजादी के बाद संविधान के प्रावधानों  के सचेत अनुपालन का प्रतिफल है कि वंचित युवाओं को स्पेस मिल रहा है. संविधान निर्माता डा. आम्बेडकर का आवाहन ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो’ को देश के विश्वविद्यालयों के कैम्पस महसूस कर रहे हैं. हमारी यह आवरण कथा बहुजन भागीदारी से लोकतांत्रिक होते कैम्पस की पड़ताल करती है.

बदल रही है फिजां

देश की राजधानी के दो प्रमुख विश्वविद्यालयों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघों के चुनाव और वहां की राजनीतिक गतिविधियों पर पूरे देश की नजरें होतीं हैं. यहाँ की राजनीतिक फिजां बतलाती है कि दलित-आदिवासी–ओबीसी-पसमांदा विद्यार्थियों की इन कैम्पसों में बढ़ती आमद का क्या असर हुआ है. (पढ़ें अभय कुमार की रिपोर्ट पेज न….पर). देशभर के विश्वविद्यालय कैम्पसों में इन छात्र समूहों की गतिविधियाँ, सामाजिक न्याय के तुला को संतुलित कर रहीं हैं. (देखें बॉक्स सुनील कुमार सुमन की रिपोर्ट पेज नंबर….पर). यह डगर इतनी आसान नहीं थी. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित ‘हिन्दू कॉलेज’ में इतिहास के सहायक प्राध्यापक रतनलाल बताते हैं कि जब उन्होंने अपने विद्यार्थी दिनों में विश्वविद्यालय के जुबली हॉल छात्रावास में दलित विद्यार्थियों के लिए आरक्षण का सवाल उठाया तो सवर्ण छात्र और सवर्ण वर्चस्व वाला प्रशासन उनके खिलाफ हो गया. रतनलाल के साथ मारपीट की गई. लेकिन बिहार के गरीब दलित परिवार से देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में अध्ययनरत यह युवा झुका नहीं. रतनलाल कहते हैं, ‘अब माहौल बदला है. पीछे छूट गये सामाजिक समूहों के विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या बढ़ने का असर साफ़ दिखता है.’ हिन्दू कॉलेज में इन दिनों शिक्षकों की नियुक्ति में ‘रोस्टर नियमों’ के पालन के लिए लड रहे रतनलाल, २००६ से ‘यूथ फॉर सोशल जस्टिस’ का संयोजन करते हैं.

CS2वामपंथी राजनीति का गढ़ माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में २००६ में ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ ने छात्रसंघ चुनाव में अभूतपूर्व प्रदर्शन किया था. उस साल, पहली बार चुनाव लड रहे इस आरक्षण-विरोधी संगठन का शानदार प्रदर्शन कैम्पस में ऊँची जाति के विद्यार्थियों के वर्चस्व की कहानी कहता है. लेकिन आज किसी बाहरी व्यक्ति को भी कैम्पस के आसमान के ‘नीले’ होने का अहसास हो जायेगा. जगह-जगह महात्मा फुले, सावित्री बाई फुले, डाक्टर आम्बेडकर के बड़े–बड़े पोस्टर और उनके कथनों के उद्धरणों से पटी दीवारें बताती हैं कि वंचित समूहों की अस्मिता की राजनीति का दवाब बढ़ा है. दलित-आदिवासी और ओबीसी तथा पसमांदा विद्यार्थियों के संगठनों के आयोजन और उनकी गतिविधियाँ अखबारों की सुर्खियाँ बन रहीं हैं. छात्र राजनीति के अंदरुनी समीकरणों के जानकार, चुनाव के समय उम्मीदवारों के चयन में अस्मिता की राजनीति को मिलने वाले महत्व को बखूबी जानते हैं.

पिछले दिनों आईआईटी, मद्रास में आम्बेडकर–पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध के बाद, देश भर के छात्र संगठनों के विरोध के चलते, प्रशासन प्रतिबंध हटाने को बाध्य हुआ. यह घटना वंचित तबकों के छात्र समूहों के दवाब को तो व्यक्त करती ही है, यह इस तथ्य की बानगी भी है कि  उच्च तकनीकी शिक्षण संस्थानों में भी ये छात्र समूह अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं और राष्ट्रवाद आदि न जाने किन–किन शब्दावलियों में, उच्च और वर्चाश्वशाली जातियों की हितैषी गतिविधियों (विवेकानंद स्टडी सर्किल आदि) को चुनौती दे रहे हैं. आईआईटी के मेस में ‘मांसाहार निषेध’ के खिलाफ भी आम्बेडकर–पेरियार-फुलेवादी छात्र संगठन आगे आये. (देखें आनंद तेलतुम्बडे का लेख पेज नम्बर…..पर) यह दलित–बहुजन विद्यार्थियों की  कैम्पस में बढ़ती संख्या का ही प्रतिफल है कि हिन्दूवादी/राष्ट्रवादी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने न सिर्फ प्रतीक के तौर पर बल्कि प्रतिनिधित्व के स्तर पर भी अपने को लचीला बनाया है. यह वही संगठन है जिसने देश में पहली बार 1981 में आरक्षण-विरोधी (गौरतलब है कि तब उच्च शिक्षा और नौकरियों में मात्र दलित–आदिवासी आरक्षण ही था) लहर गुजरात में पैदा की थी. ‘मेरिट’ का मिथक इसी लहर की देन है और ८१ के आन्दोलन ने ही राज्य में बीजेपी को पाँव फैलाने में काफी मदद दी. २५ सालों में इतना कुछ बदल गया कि २००६ के मंडल विरोधी आन्दोलन में ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ के बैनर तले इसके सदस्य सक्रिय जरूर दिखे  लेकिन संगठन ने अपने को आरक्षण विरोधी पहल से दूर रखा. और आज इस छात्र संगठन की पैतृक राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष अपने प्रधानमंत्री को ओबीसी बता रहे हैं.

प्रतिशोध के प्रहार

यह मानना गलत होगा कि इस परिवर्तन को उन समूहों ने चुपचाप स्वीकार कर लिया है, जिन्हें इससे हानि हुई है. मंडल एक और दो के दौरान उच्च शिक्षा में भागीदारी के लिए राज्य के प्रयासों के खिलाफ जो समूह सडकों पर सक्रिय था, वही अब कैम्पस के भीतर खूनी प्रतिशोध ले रहा है. २०११ में ‘द हिन्दू’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले चार सालों में अलग–अलग शिक्षण संस्थानों में 18 दलित विद्यार्थियों ने आत्महत्या की. ये आत्महत्यायें कैम्पस में भेदभाव की गवाही देती हैं. आत्महत्याओं की खबरें आज भी आती रहती हैं. CS3२००६ में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संसथान के एक दलित डाक्टर की आत्महत्या के बाद, प्रोफेसर सुखदेव थोराट की अध्यक्षता वाली त्रि-सदस्यीय समिति ने दलित विद्यार्थियों के साथ भेदभाव और उनके उत्पीडन की रिपोर्ट जब पेश की तो ‘एम्स’ प्रशासन ने उसे मानने से इनकार कर दिया. उसके बाद एक और दलित डाक्टर  की आत्महत्या की खबर आई तो एम्स प्रशासन ‘डिप्रेशन’ का फार्मूलाबद्ध जवाब लेकर सामने आया. २०१२ में प्रोफ़ेसर भालचंद्र मुंगेकर की अध्यक्षता वाली समिति ने एम्स के ठीक सामने स्थित दिल्ली के वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज (सफदरजंग हॉस्पिटल) में दलित डाक्टरों के उत्पीडन पर अपनी रिपोर्ट सौपी तो यहाँ भी हॉस्पिटल प्रशासन ने एम्स वाला रवैया अपनाया. इंसाईट नामक संगठन के राष्ट्रीय स्टूडेंट कोऑर्डिनेटर गुरिंदर आज़ाद मानते हैं कि ‘यद्यपि इन संस्थानों ने थोराट और मुंगेकर समितियों की अनुसंशाओं को नहीं माना लेकिन उनका असर यह जरूर हुआ है कि वहां दलित–आदिवासी-ओबीसी विद्यार्थियों के प्रति सजगता बढी है और उनकी आवाज को स्पेस मिला है.” गुरिंदर, उच्च शिक्षा के इन संस्थानों में दलित विद्यार्थियों के उत्पीडन पर ‘इंसाईट’ के लिए बनी डाक्यूमेंट्री में प्रमुखता से भागीदार रहे हैं.

बहरहाल, इन संस्थानों में उत्पीड़न के तंत्र का एक नमूना पिछले दिनों आईआईटी रूडकी से निकाले गये विद्यार्थियों की खबर है. कुल ७३ विद्यार्थी कम अंक स्कोर करने के आरोप में निकाले गये हैं, जिनमें से ६६ बहुजन हैं – ३१ आदिवासी, २३ अनुसूचित जाति, ८ ओबीसी और ४ पसमांदा.

उम्मीदों पर खरे उतरने की चुनौती

CS4कैम्पस में दलित–बहुजन विद्यार्थियों द्वारा अपना स्पेस क्लेम किये जाने के बाद उनसे  उम्मीदें भी बढीं हैं. और हर बार ये उम्मीदें उनके विरोधी स्वर ही नहीं होते हैं. आल इंडिया स्टूडेंटस फेडरेशन की अपराजिता राजा जहां बहुजन विद्यार्थियों के कैम्पस में बढ़ते अकादमिक हस्तक्षेप और पहल को उत्साहजनक बताती हैं वहीं उनके प्रतिनिधि संगठनों से उम्मीद करती है कि ‘जाति और वर्ग के जटिल यथार्थ’ को संबोधित करें. जेएनयू से बिहार में जाति आन्दोलन पर शोध कर रहे भगवान ठाकुर कहते हैं कि ‘ओबीसी के वर्चस्वशाली जाति समूहों के संगठनों को अति पिछड़ी जातियों के हितों का भी संरक्षण करना चाहिए’.

यह प्रतिनिधित्व की पहल का प्रथम चरण है. उम्मीद है कि दलित–आदिवासी–ओबीसी-पसमांदा विद्यार्थियों की बढती उपस्थिति और सक्रियता के साथ देश के विश्वविद्यालयों का स्पेस और लोकतान्त्रिक होगा और इन वर्गों को सामाजिक न्याय मिलेगा.

(साथ में, अनिल कुमार, अभय कुमार व एफपी संवाददाता)

फारवर्ड प्रेस के अगस्त, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

संजीव चन्दन

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। संपर्क : themarginalised@gmail.com

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