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ज्ञानोदय के चंद घंटे

अरूंधति राय ने कहा कि ''जातिवाद से पीडित समाज, ऐसे समाज से भी बुरा है, जिसमें गुलामी का प्रचलन हो, यह रंगभेद से भी बदतर है''। वे 29 अप्रैल, 2015 को नई दिल्ली स्थित कान्सटीट्यूशन क्लब में फारवर्ड प्रेस पत्रिका की छठवीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में बोल रहीं थीं

”इस कार्यक्रम में आने के लिए मैं इसलिए राजी हुई क्योंकि यहां हम ‘बहुजन साहित्य’  संबंधी महत्वपूर्ण विचार पर बात करने वाले हैं”, बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अरूंधति राय ने यह बात फ़ॉरवर्ड प्रेस के द्वारा प्रकाशित ‘बहुजन साहित्य वार्षिकी’ के लोकार्पण के अवसर पर कही। उन्होंने कहा कि बहुजन साहित्य ”उन लोगों का साहित्य है, जो दमन की अवधारणा को एक जटिल दृष्टिकोण से देखते हैं।”

वे 29 अप्रैल को नई दिल्ली स्थित कान्सटीट्यूशन क्लब में फारवर्ड प्रेस पत्रिका की छठवीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में बोल रहीं थीं। कार्यक्रम में राय और अन्य प्रतिष्ठित वक्ताओं ने ”बहुजन संस्कृति और राजनीति का भविष्य” विषय पर जब अपने विचार साझा किए, तब यह ‘जटिल दृष्टिकोण’ और स्पष्टता के साथ उभर कर सामने आया। वक्ताओं में हिंदी और अंग्रेजी के लेखक, वकील, फिल्म निर्माता, राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और अन्य बुद्धिजीवी शामिल थे।
लगभग 300 श्रोताओं ने ध्यानपूर्वक सांसद रामदास अठावले, अली अनवर व अनुप्रिया पटेल, चिंतक व लेखक ब्रजरंजन मणि, साहित्यकार एवं समाजकर्मी रमणिका गुप्ता, श्योराज सिंह बेचैन व जय प्रकाश कर्दम; अधिवक्ता अरविंद जैन व संस्कृति समालोचक सुजाता परमिता के विभिन्न विचारों को सुना।

Arundhati Roy releases FP 4th Bahujan Literary Annual_29 April 2015अरूंधति राय ने कहा कि ”जातिवाद से पीडित समाज, ऐसे समाज से भी बुरा है, जिसमें गुलामी का प्रचलन हो, यह रंगभेद से भी बदतर है”। राय ने कहा कि ”एक ऐसा समाज जो यह मानता है कि उसके अन्याय के पदानुक्रम क्रम के ढांचे को धर्मग्रंथों की स्वीकृति प्राप्त है-उससे आप कैसे लडेंग़े? और यह एक ऐसा ढांचा है, जो सदियों पुराना है और आप लोगों से कह रहे हैं – या लोग सोचते हैं कि आप उनसे ऐसा कह रहे हैं – कि अन्याय न करने के लिए, वे, उस सब को नकार दें, जो वे हैं क्योंकि अन्याय हर व्यक्ति की बुनावट का हिस्सा है…तो हम इस अन्याय से इस प्रकार कैसे लड़ें कि इसके प्रति हमारे मन में रोष होते हुए भी हम न्याय के विचार को अपने मन में संजोकर रख सकें? हममें अन्याय के प्रति नाराजग़ी तो हो परंतु हमारे मन में न्याय के विचार, प्रेम के विचार, सौंदर्य के विचार, संगीत और साहित्य क विचार भी हो? हम कटुता से भरे क्षुद्र व्यक्ति न बन जाएं? क्योंकि वे तो यही चाहते हैं कि हम ऐसे बन जाएं”।

कार्यक्रम में अरूंधति राय ने फारवर्ड प्रेस की चैथी बहुजन साहित्य वार्षिकी का विमोचन किया । यह वार्षिकी, पिछले साल अक्टूबर में दक्षिणपंथी तत्वों के आधिकारिक सहयोग से इस ”असुविधाजनक व चुनौती प्रस्तुत करने वाली पत्रिका”  (जैसा कि ब्रजरंजन मणि ने बाद में कहा) को बंद करवाने के प्रतिशोधात्मक प्रयास का प्रतिउत्तर थी।

श्योराज सिंह बेचैन ने भी पत्रिका द्वारा किए गए ‘बलिदानों’ और उसके द्वारा समाज के सामने प्रस्तुत की गई ‘मिसाल’ की प्रशंसा की। कांशीराम के साथ इंदौर से दिल्ली की यात्रा के दौरान हुई उनकी चर्चा को लेखक ने याद किया। यह तब की बात है जब बसपा नेता अपनी शिष्या मायावती को उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री घोषित करने वाले थे। ”एक अखबार आपकी मुख्यमंत्री से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है”, बेचैन ने कांशीराम से कहा था। कांशीराम ने तब कहा था कि राजनीतिक सत्‍ता के साथ ही सास्कृतिक सतता जरूरी है। बेचैन ने कहा कि राजनैतिक क्रांति के लिए बौद्धिक क्रांति ज़रूरी है और समाचारपत्र का शासन राजनैतिक शासन से ज्यादा लम्बे समय तक चलता है। साप्ताहिक ‘मूकनायक’ निकालने में आंबेडकर को जिन कठिनाईयों का सामना करना पड़ा, उनका हवाला देते हुए बेचैन ने जोर देकर कहा कि बहुजनों को सामाजिक, सांस्कृतिक व बौद्धिक चेतना जगाने के लिए केवल अपनी ताकत पर निर्भर रहना चाहिए।

श्रोताओं के लिए ये मानो ज्ञानोदय के चंद घंटे थे। एक ओर वक्ताओं के पैनल में शामिल बहुजन नेता इस बात का प्रतीक थे कि बहुजन राजनीति आज किस मुकाम पर पहुंच गई है वहीं लेखकों ने जोर देकर कहा कि फुले और आंबेडकर के क्रांतिकारी विचार ही भविष्य की राह दिखा सकते हैं।

रामदास अठावले, जिनकी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा है, ने ऊँची जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की हिमायत की। उनकी बहुजन की अवधारणा में ‘किसान’ भी शामिल हैं, जिनके भविष्य पर, भूमि अधिग्रहण विधेयक को सरकार द्वारा येनकेन संसद से पारित करवाने के प्रयासों के चलते, प्रश्नचिन्ह लग गया है।

ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के मुखिया अली अनवर, अठावले के इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे। उनके शब्दों में, ”रातों-रात कोई व्यक्ति अमीर से गरीब या गरीब से अमीर बन सकता है परंतु आप एक जाति के साथ पैदा होते हैं और वह मरने के बाद भी आपका पीछा नहीं छोड़ती।” उन्होंने कहा कि सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन को काफी सोच-विचार के बाद आरक्षण का आधार बनाया गया है। अली अनवर ने कहा कि पसमांदा, बहुजन पहले हैं और मुसलमान बाद में और वे अल्पसंख्यक समुदाय नहीं हैं।

ब्रज्रंजन मणि की सन् 2005 में प्रकाशित नवोन्मेषी पुस्तक ‘डीब्राह्मनाईजिंग हिस्ट्री’ के व्यापक रूप से संशोधित द्वितीय संस्करण के विमोचन के पश्चात बोलते हुए अपने बीज वक्तव्य में मणि ने कहा कि ”तथाकथित बहुजन नेता (उनके साथी वक्ताओं सहित) कभी पदक्रम-आधारित व्यवस्था की मूल जड़ पर हमला नहीं करते”। उन्होंने कहा कि आज के राजनेताओं को ”सांस्कृतिक प्रतीकात्मकता, आरक्षण और सत्ता के खेल” से ऊपर उठकर बहुजनों की ‘मुक्तिदायी एकता’ व ‘सामाजिक प्रजातंत्र’ के लिए काम करना चाहिए।

ब्रजरंजन मणि ने कहा कि ”आधुनिक ब्राहम्णवादी व्यवस्था का निर्माण पिछले लगभग 200 वर्षों में, राजा राममोहन रॉय के समय से लेकर आज तक, होता आ रहा है और ब्राहम्णवादी, अंग्रेजी पर अपनी पकड़ बनाते रहे हैं, ना कि हिन्दी या अन्य किसी भारतीय भाषा पर। यह बहुत महत्वपूर्ण है। असल में जरूरत इस बात की है कि हम अपने को हिन्दीवाद, मराठीवाद या किसी अन्य वाद तक सीमित न रखें क्योंकि यह एक जाल है। हमें इस व्यवस्था के बौद्धिक नेतृत्व पर हमला करना है ना कि उसके अनुयायियों पर। हमें दमनकारी व्यवस्था के मूलाधार को निशाना बनाना है। हमें सबसे बड़े और सबसे ज्ञानी ब्राहम्णवादी बुद्धिजीवियों पर हमला करना है ना कि उनकी नकल करने वालों पर, जो कि हम सब करते आए हैं। नकलचियों की संख्या बहुत बड़ी है। हम इनमें से कितनों से निपटेंगे? और अगर हम उनसे भिड़ भी जाएं तब भी वे अविजित ही रहेंगे क्योंकि हमने पदक्रम और दमन के ‘मास्टरमाईंडों’ की तरफ ध्यान ही नहीं दिया”। इस सिलसिले में उन्होंने अरूंधति रॉय के महान उपन्यास ‘द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स” की चर्चा करते हुए कहा कि ”उनके लेखन की ताकत, उसकी महिमा यही है कि वह ‘मास्टरमाइंडों’ पर हमला बोलता है। हम इन चीजों को समझ नहीं पाते। उन्होंने जो किया वह समाजविज्ञान की कोई भारी-भरकम पुस्तक भी नहीं कर सकती थी। उन्होंने समस्या की मूल जड़ को अत्यंत कल्पनाशील तरीके से पकड़ा। उनका शत-शत अभिनंदन”।

ब्रजरंजन मणि और अनुप्रिया पटेल दोनों ने शिक्षा के मुक्तिदायिनी प्रभाव – जिसे फुले ‘तीसरा नेत्र’ कहते थे – का इस्तेमाल करने का आवाहन किया। लोकसभा सदस्य व अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल ने कहा कि बहुजनों को अधिक से अधिक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए ताकि वे अपने राजनैतिक नेताओं से जवाबतलब कर सकें और उनके नेता समझौते करने के पहले दस बार सोचें। उन्होंने कहा कि पिछले वर्ष के लोकसभा चुनाव में बहुजन महत्वाकांक्षाओं के चलते ही नरेन्द्र मोदी और भाजपा को बहुमत मिल सका। उन्होंने कहा कि मोदी इसलिए जीते क्योंकि वे जनता को यह विश्वास दिला सके कि वे एक अति पिछड़ी जाति से हैं। परंतु यह उस ‘मुक्तिदायिनी एकता”, जिसकी बात मणि ने कही थी, की ओर एक छोटा-सा कदम ही है, क्योंकि, जैसा कि अनुप्रिया पटेल ने कहा, ”मोदी बहुजनों के केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधि हैं। उनके प्रधानमंत्री बनने से जमीनी स्तर पर परिवर्तन नहीं आया है”।
अनुप्रिया पटेल के विपरीत रमणिक गुप्ता को तो किसी परिवर्तन की अपेक्षा ही नहीं थी। ”मोदी असली ओबीसी नहीं हैं। वे तो बनिया हैं”, उन्होंने कहा। ”बिहार में उनकी जाति पिछड़ी है परंतु गुजरात और राजस्थान में नहीं है। कुछ वर्ष पहले उन्होंने अपनी जाति को ओबीसी की सूची में शामिल करवा लिया था ताकि वे पिछड़े होने का दावा कर सके”।

उच्चतम न्यायालय के वकील अरविंद जैन ने कहा कि यह विडम्बना है कि आरक्षण हिन्दू बने होने पर ही सभव है , यह एक वर्चस्ववादी सोच का हिस्सा है। अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर कहा कि अदालतों में बहुजनों और महिलाओं के प्रति संवेदना का अभाव है। उन्होंने अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अंतर्गत कई प्रकरणों में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए हास्यास्पद फैसलों को गिनाया। उन्होंने कई उदाहरण देकर यह बताया कि किस प्रकार अब भी महिलाओं को न्यायपालिका में महत्वपूर्ण पदों से वंचित रखा जाता है।
फिल्म निर्माता सुजाता परमिता, श्रोताओं को अतीत में ले गईं – उस दौर में जब संस्कृति निर्मित हो रही थी। उन्होंने कहा कि बहुजन ही संस्कृति के निर्माता हैं, परंतु सवर्णों ने धर्म का इस्तेमाल कर ”लोगों को अपने जाल में फंसाकर गुलाम बना लिया। उनकी संस्कृति पर कब्जा जमा लिया और उन पर शासन करने लगे। उन्होंने कहा कि सरकार को ऐसी नीतियां बनानीं चाहिए जिनसे बहुजन और दलित कलाकारों और कारीगरों को वह सम्मान और पहचान मिल सके जिसके वे हकदार हैं और उन्हें मात्र श्रमिक न समझा जाए।

कुल मिलाकर ”ऐसे अनेक विचार सामने आए जो एक समाज को बदलाव के प्रति जागृत करते हैं” और जो अरूधंति रॉय के अनुसार (बहुजन) साहित्य के मूलतत्व होने चाहिए।

श्रोताओं में शामिल थे मीडिया समालोचक अनिल चामडिय़ा, उपन्यासकार संजीव, कवि मदन कश्यप ए विमल कुमार, अशोक कुमार पाण्डेय ए सुजाता तेवतिया ए मानवाधिकार कार्यकर्ता विद्याभूषण रावत, साहित्यकार रजनी तिलक, प्रेमपाल शर्माए टेकचंद , साहित्यकार और एक्टिविस्ट कौशल पवार, ‘दलित मत’ के संपादक अशोक दास व समाजशास्त्री अनिल कुमार , लाल रत्नाकरआदि अनेक गणमान्य लोग।

इस अवसर पर द्वितीय महात्मा जोतिबा व क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले बलीजन रत्न पुरस्कार लेखक व चिंतक ब्रजरंजन मणि, ए. आर. अकेला (कवि, लोकगायक लेखक व प्रकाशक) व डॉ. हीरालाल अलावा (एम्स में सीनियर रेजीडेन्ट व जय आदिवासी युवा शक्ति के संस्थापक) को प्रदान किया गया। कार्यक्रम का संचालन स्त्रीकाल के सम्पादक सजीव चंदन ने किया।

फारवर्ड प्रेस के जून, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

अनिल अल्पाह

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