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बिहार में दलित दमन

बिहार सरकार ने अपनी ही सहायता से निर्मित दलितो के मकानों को अतिक्रमण बताकर जमींदोज किया

‘लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, 

तुम्हें शर्म नहीं आती बस्तियां जलाने में ‘- बशीर बद्र

बिहार के औरंगाबाद जिले के ओबरा प्रखंड के लीला बिगहा में पूरी की पूरी बस्ती उजाड दी गर्ई। उच्च न्यायालय के एक आदेश पर आनन-फानन में यह कारर्वाई की गई। एक झटके में दलितों के 18 घर ध्वस्त कर दिये गये गये और कुल 39 परिवारों की करीब 150 की आबादी को सडक पर या खेत में खुले आसमान के नीचे किसी तरह जीवन गुजर-बसर करने को मजबूर कर दिया गया। क्या ये अपराधी थे? सवाल यह भी है कि क्या प्रशासनए अपराधियों के खिलाफ या समृद्ध, दबंग तबके के अतिक्रमणकारियों के खिलाफ इतनी शीघ्रता से कारर्वाई करता है?

Bihar-basti-1सीओ अनिल चौधरी द्वारा 27 मार्च को हस्ताक्षरित नोटिस, 28 मार्च को इस बस्ती के लोगों को तामील किया गया और 29 की रात प्रशासन द्वारा खुद से घर तोड लेने की धमकी दी गर्ई। अगले दिन सुबह, प्रशासनिक अमला उनके घर तोडने आ धमका तो पीडित मरने-मारने पर उतारु हो गये। फिर एक अप्रैल को भारी सुरक्षा बल के साथ प्रशासन ने जबरन इन्हें इनके घरों से निकाला और तमाम मकान ध्वस्त कर दिये। जबकि पुर्नवसन के लिए 18 जुलाई 2013 से 26 फरवरी 2015 तक चार बार डीएम और एक बार मुख्यमंत्री के जनता दरबार में वे अपनी गुहार लगा चुके थे। उन्होंने अतिक्रमण हटाये जाने से पहले पुनर्वसन करने की मांग की थी, परन्तु उनकी किसी ने नहीं सुनी। घर ध्वस्त करने के बाद प्रशासन ने आश्वासन दिया कि अठारह परिवारों को तीन-तीन डीस्मिल जमीन दे जाएगी, जिस पर इन गरीबों को भरोसा नहीं है। भला भरोसा हो भी क्यों, जब 90 डीस्मिल जमीन पर पुनर्वसन के आवेदन पर कोई कारर्वाई गत 19 महीने में नहीं हुर्ई। रोटी की जुगाड के बाद इनके पास वक्त ही कहां बच पाता है कि वे कोट-कचहरी और अफसर-मालिकों के पास फरियाद को जायें। इनके साथ इस मुसीबत की घडी में अर्जुन पासवान खडे र्हैं। वे कहते हैं, ‘इस घटना के कई महीने बाद भी उन्हें जमीन नहीं बन्दोबस्त की जा सकी है। खुले आसमान के नीचे कोई इनकी तरह रात गुजार कर देखे तब पता चलेगा कि गरीबी कितना बडा अभिशाप है!’

सामाजिक-राजनैतिक कोण
लीला बिगहा में जिन अठारह घरों को ध्वस्त किया गयाए उनमें से पन्द्रह घर पासवान जाति के हैं। नीतीश सरकार द्वारा इस जाति को छोड़कर शेष अनुसूचित जातियों को महादलित का नया तबका बनाया गया था। राजनीतिक दल इसे बांटो और राज करो की राजनीति बताते हैं। लोजपा के घोषित मतदाता और समर्थक हैं सब। इनके अलावा पीडितों में लोहार जाति के एक और मांझी (भुइयां) जाति के दो घर ध्वस्त हुए हैं।

यह करीब डेढ सौ की आबादी की बस्ती है। वर्षों तक यहाँ लोग शांतिपूर्वक रहते आये थे। इनकी मांग है कि 100 साल से बसी बस्ती को उजाड दिया गया है तो कम से कम सभी 39 परिवारों को सरकार जमीन और इन्दिरा आवास दे ताकि जीवन वापस पटरी पर आ जाये।

बिहार में राजनीतिक बदलाव हुआ है। अतिक्रमणवाद लाने वाले अब सत्ता के करीबी हो गये हैं। इस तबके को आज नवसामंत कहा जाता है। क्या यह अतिक्रमण किसी सवर्ण या पिछडी जाति के दबंगों ने किया होता तो समाज, प्रशासन और राजनीतिक दलों का यही रवैया रहता? संभव था गांव राजनीतिक तीर्थस्थल बन जाता। राजनीति का असली चेहरा देखिए, इनके लिए संघर्ष करने कोई राजनीतिक दल नहीं आया। जो दल या नेता आंसू पोंछने गांव पहुंचे वे भी तब जब इस संवाददाता ने एक दैनिक अखबार में इन सबों के खिलाफ खबर लिखी। समाज को इस दलित बस्ती से कोई सहानुभूति नहीं है।

मामला क्या है ? जब प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक योजना के तहत उब भट्ठी से डिहरा की सडक स्वीकृत हुई तब कठबरी तक सडक बनाने में दिक्कत होने लगी। हालांकि लीला बिगहा के दलितों ने इसके लिए सहयोग का रास्ता चुना। सड़क या खेत की जमीन लेकर सड्क बनायी जा सकती थी या कम चौडी भी बनायी जा सकती थी मगर कठबरी के रामदेव सिंह एवं अन्य ने बिहार सरकार को वादी बनाते हुए उच्च न्यायालय में मुकदमा (क्रमांक सीडब्ल्यूजेसी 13868/2014) दायर कर दिया। याचिकर्ताओं ने कहा कि दलितों के अतिक्रमण के कारण सडक निर्माण और नहर की सिंचाई व्यव्स्था बाधित हो रही है। न्यायालय ने 3 अप्रैल तक अतिक्रमण मुक्त कर सप्रमाण प्रतिवेदन देने या 6 अप्रैल को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का आदेश डीएम को दिया। व्यक्तिगत उपस्थिति से बेहतर दलितों को बेघर करना माना गया।

अधिकारियों का पक्ष
इस मामले में भूमि सुधार उपसमाहर्ता (डीसीएलआर ) मनोज कुमार ने कहा कि मामला उच्च न्यायालय का था इसलिए अधिकारी विवश थे। दलितों को समझाने की कोशिश की गई। उन्हें दूसरी जगह जमीन देने का प्रस्ताव भी दिया गया मगर वे अपनी जिद पर अड़े रहे कि उन्हें उनकी ही पसन्द की जमीन दी जाये। उन्होंने कहा कि अब सरकार को इन पीडितों को जमीन आवंटित करने का प्रस्ताव भेजा जायेगा। ओबरा सीओ अनिल चौधरी ने बताया कि सभी अठारह परिवारों को तीन-तीन डिस्मिल जमीन देने का प्रस्ताव है। इनके लिए कठबरी में 90 डिस्मिल जमीन चिन्हित की गयी है। टकराव की वजह थी कि ये सभी आहर की जमीन पर ही परचा मांग रहे थे जो कि कभी भी बन्दोबस्त नहीं किया जा सकता था। इसी कारण गैरमजरुआ जमीन दी जा रही है।

कुछ सवाल जिनके जबाब की है जरुरत

3जिन अठारह मकानों को ध्वस्त किया गया है, उनमें इन्दिरा आवास के तहत बने आठ मकान भी शामिल हैं। इन घरों को बनाने के लिए कई शर्तों में से एक है कि जमीन अपनी होनी चाहिए। सवाल है कि प्रशासन ने उक्त जमीन पर इस योजना के तहत घर क्यों बनाने दिया था? घर बनवा कर इस तरह उजाड देने के लिए कौन जिम्मेदार है? पीडितों ने बताया कि 2008-09 में यहां आठ आवास बने थे। मुसाफिर पासवान, शिव पासवान, डोमनी देवी, राम कुमार राम, कौलेश्वर पासवान, महाबीर मिस्त्री, सिकेन्द्र पासवान एवं कौलेशी कूंवर के। मुसाफिर 2012 में पूंजी के अभाव में डोर लेविल तक ही मकान बना सके थे। उसे सरकार से रुपये 32, 000 मिले थे। शिव को 35,000 रूपये मिले, उन्होंने अपना 45, 000 रूपये लगा कर छत तक ढाल ली। डोमनी और कौलेश्वर के मकान अधूरे रह गये तो महाबीर सिकेन्द्र एवं राम कुमार ने अपनी पूंजी लगा कर छत ढाल ली। क्या यह प्रशासनिक चूक या रिश्वतखोरी का मामला नहीं है? इसकी जांच भी होनी चाहिए कि कैसे इन जमीनों को इन गरीबों का बता कर इनके लिए आवास की योजना स्वीकृत हुई? क्या तत्कालीन अधिकारीयों ने मानवीय आधार पर ऐसा किया होगा? या उनसे रिश्वत वसूली होगीघ् यहां तो भ्रष्टाचार का आलम यह है कि पैसे देकर किसी की जमीन का खाता खुलवा लिया जा सकता है या व्यवासायिक जमीन को खेती लायक दिखाया जा सकता है। ऐसे में सवाल लाजिम है कि इन गरीबों की हाडतोड मेहनत की कमाई पूंजी को अवैध कब्जे वाली जमीन पर घर बनाने में कैसे खर्च करा दिया गया?

12 को नोटिस तो 18 के घर ध्वस्त क्यों?

ओबरा सीओ अनिल चौधरी ने 12 व्यक्तियों को ही नोटिस किया था मगर घर अठारह के तोड़े गया। चूँकि अन्य छ भी इसी भूखंड पर बसे हुए थे, इसलिए उनके घर भी गिरा दिए गए। अतिक्रमण वाद संख्या 3/2013-14 में सीओ द्वारा जारी नोटिस में राम सहाय राम, मुसाफिर राम, महाबीर मिस्त्री, धनेश्वर राम, रामविनेशर राम, शिवपुजन राम, राम कुमार राम, भुनेश्वर रामए दुधेश्वर राम, बिशुन सहाय राम, रामाशीष राम एवं गणेश भुइयां के नाम हैं। इनके अलावा हीरा मिस्त्री, राजाराम भुइयां,धनंजय पासवान, जवाहर राम, बीरेन्द्र पासवान एवं धीरेन्द्र पासवान के भी घर ध्वस्त कर दिये गये। मुकदमा जिन बारह के खिलाफ चलाया गया था, उन्हें कहा गया था कि अपनी जमीन से सम्बंधित कागजात लेकर 25 जुलाई 2013 को उनके कार्यालय में उनसे मिलें। इस नोटिस में इस दलित बस्ती को गैरमजरुआ आमरास्ता बताया गया है व कहा गया है कि इससे सडक निर्माण और सिंचाई बाधित हो रही है। ग्रामीणों को इस बात पर आपत्ति है कि जब बारह के नाम से नोटिस आया था तब फिर क्यों अठारह के घर उजाडे गये? सीओ अनिल चौधरी ने बताया कि नोटिस भी अठारह को ही दिए गए थे। सभी के हस्ताक्षर भी उनके पास हैं।

फारवर्ड प्रेस के जून, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

उपेंद्र कश्‍यप

पत्रकार उपेंद्र कश्‍यप ने अपनी रिर्पोटों के माध्‍यम से बिहार के शाहाबाद क्षेत्र की अनेक सांस्‍कृतिक-सामाजिक विशिष्‍टताओं को उजागर किया है। जिउतिया के बहुजन कला-पक्ष को सर्वप्रथम सामने लाने का श्रेय भी इन्‍हें प्राप्‍त है

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