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दलित लेखक संघ बना कुश्ती का अखाडा

10 मई को आयोजित दलित लेखक संघ की चुनावी बैठक में जाहिर तौर पर अजय नावरिया गुट और उमराव सिंह जाटव के बीच मारपीट के चलते पुलिस का बुलाया जाना दलित साहित्य जगत में पहली घटना है। उमराव सिंह की गर्दन के नीचे आए चोट के आखिर कुछ न कुछ तो कारण रहे होंगे

दलित लेखक संघ (दलेस) सुर्खियों में है, लेकिन निहायत ही अप्रिय कारणों से। लेखक एक ओर तो एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर दलेस पर अपने-अपने दावे ठोक रहे हैं।

गत 10 मई को दलित लेखक संघ की कार्यकारिणी के चुनाव के दौरान लेखकों के बीच मारपीट और हाथापाई की भी खबरें हैं। खबरें सोशल मीडिया पर भी छा गईं और वहां भी समर्थकों के गुट साफ़-साफ़ विभाजित दिखे।

Lekhakoवरिष्ठ लेखक उमराव सिंह जाटव ने दलित लेखक संघ के पूर्व अध्यक्ष अजय नावरिया पर आरोप लगाया कि उन्होंने संघ से बाहर के लोगों को बुलाकर उनके साथ मारपीट करवाई। जाटव का आरोप है कि नावरिया विश्वविद्यालय से अपने छात्रों और कुछ शिक्षकों के साथ चुनाव को प्रभावित करने और खुद दुबारा चुने जाने की मंशा से आये और चुनाव समिति द्वारा बाहरी लोगों को चुनाव में न भाग लेने देने की सलाह के बाद हंगामा करने लगे। दलित लेखक संघ के एक धड़े के अनुसार 3 मई को एक तीन सदस्यीय समन्वय समिति गठित की गई थी, जिसका एक काम दलेस का चुनाव करवाना भी था। समन्वय समिति ने चुनाव के लिए लेखकों को डा. आम्बेडकर स्मारक, 26, अलीपुर रोड में आमंत्रित किया था,जहां तथाकथित मारपीट की घटना घटी। हालांकि अजय नावरिया और उनके समर्थकों का कहना है कि उसी दिन कुछ लेखकों के बहिष्कार के बाद चुनाव सम्पन्न हुआ और नावरिया दुबारा अध्यक्ष चुन लिए गये। दलित लेखक हीरालाल इस दावे का खंडन करते हैं और कहते हैं कि नावरिया और उनके इशारे पर वहां मौजूद छात्रों के हंगामे के बाद समन्वय समिति ने चुनाव स्थागित कर दिया था और 12 मई को उसने चुनाव संपन्न करवाया, जिसमें कर्मशील भारती अध्यक्ष चुने गये।

नावरिया हंगामे और मारपीट की बात को बेबुनियाद बताते हैं और कहते हैं कि यह सब उनसे बेवजह जलने वाले लोगों का वितंडा है। नावरिया कहते हैं, ‘ये असंतुष्टे लोग विवाद खड़ा कर चर्चा में बने रहना चाहते हैं। इन्हें लेखक संघ और दलित-बहुजन समुदाय की छवि से भी कुछ लेना देना नहीं है। वे किसी भी कीमत पर सुर्खियां बटोरना चाहते हैं।’ हालांकि वरिष्ठ लेखक उमराव सिंह जाटव अपनी पीठ पर गर्दन के नीचे जख्म दिखाते हुए कहते हैं , ‘यदि उस दिन कोई घटना नहीं घटी तो यह जख्म कहाँ से आये और वहां (26 अलीपुर रोड) पुलिस क्यों आई ?’ जाटव के समर्थन में लेखिका अनिता भारती कहती हैं, ‘छात्रों को वहां बुलाकर हम लेखकों का अपमान सचमुच निंदनीय था।’

सवर्ण लेखकों का दबदबा

दलित लेखकों के एक गुट का यह भी आरोप है कि नावरिया के कार्यकाल में सवर्ण लेखकों का संघ में हस्तक्षेप बढ़ा और उनकी रुचि वरिष्ठ सवर्ण लेखकों का आशीर्वाद’ लेने में होती थी। हालांकि नावरिया इसका खंडन करते हुए कहते हैं कि मेरे कार्यकाल में दलेस सबसे ज्यादा सक्रिय रहा।

श्वेतपत्र

दलित लेखक संघ के एक धड़े ने श्वेतपत्र जारी करते हुए कहा कि ‘पूर्व अध्यक्ष द्वारा मनमानी करते हुए अपने विद्यार्थयों की मदद से ही असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक तरीके से चुनाव करने की चेष्टा किये जाने पर तथा दलेस के सदस्य माननीय उमराव सिंह जाटव के साथ हाथापाई करने पर दलेस अपना विरोध प्रकट करता है, साथ ही इसके लिए अनुशासनहीन सदस्यों पर संघ के संविधान के मुताबिक उचित कार्यवाही करेगा।’ श्वेतपत्र के अनुसार 12 मई को दलेस का चुनाव संपन्न हुआ, जिसमें निम्न कार्यकारिणी गठित हुई :
अध्यक्ष: कर्मशील भारती, उपाध्यक्ष: कुसुम वियोगी व संतराम आर्य, महासचिव: हीरालाल राजस्थानी, सचिव: जसवंत सिंह जनमेजय, कोषाध्यक्ष: पुष्प विवेक, मीडिया प्रभारी व प्रवक्ता: रजनी तिलक, कार्यकारिणी सदस्यरू उमराव सिंह जाटव, डॉ. पूरन सिंह व शील बोधि।

नावरिया ने एक विज्ञप्ति जारी कर बताया कि ‘दलित लेखक संघ के पदाधिकारियों का चुनाव प्रो. धर्मपाल पीहल की अध्यक्षता में दिनांक 10 मई 2015 को नियत समय 11 बजे (अपराह्न) सम्पन्न हो गया। प्रो. धर्मपाल पीहल ने सभी पक्षों की बात सुन कर चुनाव प्रक्रिया शुरू करने का निर्णय लिया।’ चुनी गई कार्यकारणी :
अध्यक्ष डॉ : अजय नावरिया, उपाध्यरक्ष : भीमसेन आनन्द, महासचिव: डॉ. नीलम, सहसचिव: डॉ कौशल पंवार, कोषाध्यक्ष: अरूण कुमार, सचिव : डॉ. विवेक कुमार रजक, डॉ. युवराज कुमार व कैलाश चन्द चौहान

 

परीक्षा की घडी

वैसे तो ‘दलित लेखक संघ’ की स्थापना के एक- दो दिन बाद ही ‘दलित राइटर्स फोरम’ की स्थापना के साथ ही दलित साहित्यकारों की एकजुटता की पोल खुल गई थी। फिर भी दलेस अस्तित्व में आकर सक्रिय हुआ और डा. तेज सिंह दो निरंतर कार्यकाल के लिए अध्यक्ष चुने गये। दलित साहित्य के प्रचार और प्रसार में उनका कार्यकाल उपयोगी सिद्ध हुआ।

डा. तेजसिंह के कार्यकाल के दौरान विभिन्न पुस्तकों पर समीक्षात्मक चर्चा के साथ-साथ दो राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन भी हुए, जिनमें देश के विभिन्न भागों से आए दलित और गैरदलित साहित्यकारों ने भाग लिया था। इसी दौरान अकादमिक क्षेत्र के कुछ महत्वाकांक्षी तथाकथित साहित्यकारों ने दलित लेखक संघ में घुसपैठ भी कर ली। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि डा. तेज सिंह खुद दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में कार्यरत थे। परिणामस्वरूप, उनके द्वारा अध्यक्ष पद छोडऩे के बाद बड़े ही नाटकीय व अलोकतांत्रिक तरीके से दलित लेखक संघ का चुनाव हुआ। डा. तेजसिंह इस प्रक्रिया से इतने आहत हुए कि उन्होंने दोबारा कभी दलित लेखक संघ की ओर मुड़कर नहींं देखा। इस तरह डा. तेजसिंह का दलित लेखक संघ से किनारा कर लेना बेशक उनके व्यक्तिगत सम्मान को बचाने की बात रही हो, किंतु उनका दलित लेखक संघ से अलग हो जाना दलित लेखक संघ को ले डूबा। डा. तेज सिंह के बाद दलित लेखक संघ न तो कोई गंभीर साहित्यिक भूमिका ही अदा कर पाया और ना ही इससे जुड़े लेखकों को एकजुट रख पाया।

यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि दलित साहित्यकारों के भी अपने-अपने सरोकार हैं। इसका मुख्य कारण दलित साहित्यकारों में वैचारिक अनेकता के साथ-साथ दलित समाज में अलग-अलग जातियों का होना भी है। अलग-अलग जातियाँ, अलग-अलग विचार, अलग-अलग उद्देश्य, अलग-अलग रास्ते। फलत: दलित साहित्यकार खेमेबाजी के शिकार होते जा रहे हैं।

10 मई को आयोजित दलित लेखक संघ की चुनावी बैठक में जाहिर तौर पर अजय नावरिया गुट और उमराव सिंह जाटव के बीच मारपीट के चलते पुलिस का बुलाया जाना दलित साहित्य जगत में पहली घटना है। उमराव सिंह की गर्दन के नीचे आए चोट के आखिर कुछ न कुछ तो कारण रहे होंगे। इस घटनाक्रम को लेकर एक दूसरे पर तरह-तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं। फेसबुक पर उमराव सिंह जाटव के हक में ज्यादा और अजय नावरिया के हक में कम लोग हैं।

कौन गलत है, कौन नहीं, यह कहना तो संभव नहीं है लेकिन फेसबुक के जरिए सामने आई टिप्पणियां यह स्पष्ट करने के लिए काफी हैं कि डा. तेज सिंह की अध्यक्षता के कालखंड के बाद दलित लेखक संघ में पदों को हासिल करने की अलोकतान्त्रिक प्रक्रिया अपनाई जाती रही है। स्पष्ट रूप से कहा जाए तो दिल्ली के अकेदमिक क्षेत्र से जुड़े दलित साहित्यकार ही दलित लेखक संघ की दुर्दशा के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं।

-तेजपाल सिंह ‘तेज’

फारवर्ड प्रेस के जून, 2015 अंक में प्रकाशित

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एफपी डेस्‍क

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