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ताकि गायें बथानों में आबाद रहें

पशुपालक समुदाय ने सदियों के अपने व्यावहारिक ज्ञान से यह सीख लिया है कि किस गाय आदि को कब बेचना है. और ऐसे में वह आम तौर पर सबकुछ जानते हुए गो-मांस का व्यापार करने वालों के हाथों ऐसे गाय-बैलों को बेचता रहा है। यह उनकी आर्थिक गतिविधि का अपरिहार्य हिस्सा है

दुनिया की विख्यात फ़ास्ट फूड चेन मैकडोनाल्ड्स के भारतीय आउटलेट्स ने अपने को बीफ व पोर्क मुक्त घोषित कर रखा है। वहां मार्केटिंग में काम करनेवाला दिमाग यह जानता है कि भारत में इन खाद्य पदार्थों को लेकर वर्जनाएं हैं, अत: अपने उत्पादों की पहुंच बढ़ाने के लिए उन्होंने यह रणनीति बनाई। दूसरी ओरए कोलकता का मशहूर ‘बीफ किंग’ रेस्तरां है, जिसके ग्राहकों की में एक अच्छी तादाद हिन्दुओं की है। महाराष्ट्र के कुछ हिन्दू समूहों, उत्तरपूर्व राज्यों के हिन्दू खासी समुदाय, केरल, गोवा आदि में ऐसी कोई कठोर वर्जना नहीं है। हरेक समाज में खानपान को लेकर अपनी वर्जनाएं और साथ ही अपने विशिष्ट स्वाद होते हैं और विविधताओं व तनावों में रहकर ही समाज ने साथ रहना और जीना सीखा है।

stray cattleयहां हम इस स्थापित तथ्य कि प्राचीन काल में हिन्दुओं के बीच गोमांस का चलन था, की बहस में नही जा रहे हैं। किसी समुदाय विशेष को लक्ष्य कर उनके खानपान में सत्तावादी हस्तक्षेप पर हो रहे विमर्श को भी छोड़ देते हैं।

बहस के और भी कई कोण हैं- बहुसंख्यकों की धार्मिक आस्था, ‘बीफ’ की खरीद-फरोख्त का अर्थव्यवस्था पर असर, स्वास्थ्य से जुड़े उसके फायदे-नुकसान, बीफ बैन की राजनीति आदि।

यहां हमारा फोकस किसी प्रजाति की संरक्षा में जैव विविधता के प्राकृतिक सिद्धांतों के नजरिए से विचार करना है। क्या किसी प्रजाति का अत्यधिक शिकार और अत्यधिक बचाव के रूप में मनुष्य के हस्तक्षेप का कभी कोई सार्थक नतीजा निकला है? यह विचार करना जरूरी बन गया है कि बतौर प्रजाति गोवंश आज जिस परिवेश और स्थिति में हैए उसमें इस बैन (अत्यधिक बचाव) का क्या असर पड़ेगा?

आज बतौर प्रजाति गो-वंश को बचाने के लिए इनकी सेलेक्टिव क्यूलिंग (मांस आदि के लिए क्रमबद्ध तरीके से चुनिंदा पशुओं को मारना) जरुरी है। यहां जोर इस बात पर है कि चूंकि गायों का कोई प्राकृतिक शिकारी नहीं है, ऐसे में एक समय के बाद अनुत्पादक हो चुके गो-वंशजों (गाय,बछड़े, बैल आदि) की सेलेक्टिव क्यूलिंग जरुरी है। वन्यजीव अभ्यारण्यों की पूरी में यह कवायद यही होती है कि शिकार और शिकारी पशुओं के बीच एक संतुलन बनाया रखा जाए। यह संतुलन ही जैव विविधता को कायम रखता है।

एक प्रजाति के रुप में इनको गाय को बचाए रखने के लिए भी ऐसा जरुरी है, नहीं तो अनुत्पादक हो चुकी गायों आदि को पालना और फिर इनकी प्राकृतिक मौत के दौरान होने वाले संक्रामक रोगों आदि से इस प्रजाति और मानव प्रजाति को सुरक्षित की रक्षा करना मुश्किल होगा। गो-हत्या का विरोध करने वाले ये तर्क दे सकते हैं कि ऐसे अनुत्पादक जानवरों की जिम्मेवारी सरकार को लेनी चाहिए. लेकिन न तो ऐसा करना व्यावहारिक होगा और न ना ही सरकार के ऐसे किसी वादे पर भरोसा किया जा सकता है।

अगर गो-वंश की सेलेक्टिव क्यूलिंग नहीं हुई तो बूढ़े गाय-बैलों की देखभाल करना आर्थिक कारणों से आम किसान या पशुपालक समाज के लिए संभव नहीं रह जाएगा, और तब ये सड़क पर बिखरे कचड़ो कचरें से खाना बीनते आवारा कुत्तों-सुअरों जैसी हालत में पहुंच जाएंगे। दूसरी ओर पशुपालन का अनुभव बताता है विशेषज्ञ बताते हैं कि गायें पांच से आठ बच्चे जनने के बाद बूढ़ी (अनुत्पादक) हो जाती हैं। साथ ही बैल, बछड़ों का उपयोग अब खेती में बहुत कम रह गया है। गर्भाधान के भी ज्यादातर मामलों में अब यह कृत्रिम तरीके से ही होता है। इस कारण भी अब सांढ़ों सांडों की पहले जैसी उपयोगिता नहीं रह गई है।

पशुपालक समुदाय ने सदियों के अपने व्यावहारिक ज्ञान से यह सीख लिया है कि किस गाय आदि को कब बेचना है. और ऐसे में वह आम तौर पर सब कुछ जानते हुए गो-मांस का व्यापार करने वालों के हाथों ऐसे गाय-बैलों को बेचता रहा है। यह उनकी आर्थिक गतिविधि का अपरिहार्य हिस्सा है और समाज में सहज रुप से स्वीकार्य भी। कोई भी पशुपालक समाज सिर्फ दुग्ध उत्पादों के भरोसे नही रह सकता। मांस-व्यापार के लिए पशुओं की खरीद-बिक्री आम बात है। लोकसभा चुनावों के दौरान नरेन्द्र मोदी के ‘पिंक रिवॉल्यूशन’ वाले भड़काउ भड़काऊ भाषण के दौरान यह उजागर हुआ था कि डेयरी के मामले में समृद्ध गुजरातए बीफ का भी बड़ा निर्यातक राज्य है। आज दुनियाभर में ‘बीफ’ का सबसे ज्यादा निर्यात करनेवाले देशों में से एक भारत है। यह भी देखना होगा कि बीफ बैन कहीं बीजेपी के चर्चित जीडीपी और निर्यात बढाने के दावे पर भारी न पड़ जाए।

आंकड़े बताते हैं कि भारत में दुग्ध और बीफ उत्पादन में गायों के मुकाबले भैंसों की ज्यादा हिस्सेदारी है। फ्रीजियन, जर्सी, स्विस ब्राउन आदि विदेशी नस्लों के आने से देशी गाय की नस्लें ऐसे वैसे ही संकट से गुजर रही है। भैंस बीफ की बजाय सिर्फ गाय बीफ पर बैन निश्चय ही गाय पालन की पूरी अर्थव्यवस्था को ही चैपट कर देगा।
भारतीय जनता पार्टी शासित राज्य सरकारों और संघ परिवार की मंशा है कि गाय बीफ पर बैन लगाकर एक समुदाय विशेष को निशाने पर लेते हुए पशुपालक और कृषक समाज में सांप्रदायिक उन्माद भड़काया जाए। एक राम, एक अयोध्या, और एक गीता के की तर्ज पर एक नए टोटम- ‘गाय’ के जरिए वह हिन्दू समाज का रेजिमेंटेशन चाह रही है। यह रेजिमेंटेशन हिन्दू धर्म की अंतर्निहित विविधता को खत्म कर उसे और भी कट्टर एवं आक्रामक बनाएगा। कट्टर हिन्दूवादी तथाकथित गौरक्षकों के आंदोलनों को हिन्दू समाज ने कभी गंभीरता से नही लिया है, तथापि कई मौकों पर इन आंदोलनों की परिणति इतिहास के सबसे भयानक दंगों में हुई है।
हमारी गायों की नस्लों के जिंदा रहने की शर्त है कि वे किसानों के खेत खलिहानों और सबसे बढ़कर उनके बथानों में आबाद रहें न कि गौरक्षणी संघों या सरकार के गौशाला सह पुनर्वास केन्द्रों की शोभा बनकर रह जाएं।

 

फारवर्ड प्रेस के जून, 2015 अंक में प्रकाशित

 

लेखक के बारे में

महेंद्र सुमन

80 के दशक में क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल रहे महेंद्र सुमन मूलतः एक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं। साथ ही, समसामयिक विषयों पर सक्रिय लेखन। संप्रति, पटना से प्रकाशित होनेवाली सामाजिक न्याय की बहुचर्चित त्रैमासिक साबाल्टर्न की संपादकीय टीम के एक प्रमुख सदस्य

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