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आत्मानुभव की कोख से उपजा लेखन

पुस्तक में लेखिका का एक प्रमुख तर्क यह है कि मुख्यधारा के हिंदी लेखकों की सामान्य धारणा के विपरीत, दलित साहित्य का उदय 1980 के दशक में दलितों की आत्मकथाओं और कथा साहित्य के प्रकाशन से बहुत पहले हो गया था। दलितों ने सन् 1920 के दशक में ही हिन्दी साहित्य में अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी थी

लेखक और साहित्यिक सिद्धांतकार शरणकुमार लिम्बाले (टूवड्र्स एन एस्थेटिक ऑफ दलित लिटरेचर: हिस्ट्री, 2004), दलित साहित्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ‘यह वह साहित्य है, जो दलितों के दु:खों, कष्टों और उनकी निर्धनता, दासता व नित अपमान का कलात्मक चित्रण करता है (पृष्ठ 30)’. वे आगे लिखते हैं कि दलित साहित्य का एक विशिष्ट लक्षण यह है कि वह दलितों द्वारा, दलितों के लिए लिखा जाता है और बाबासाहेब आम्बेडकर के विचारों से जनित दलित चेतना, उसका आधार होती है। बीसवीं सदी के मराठी, तमिल, अंग्रेजी व हिंदी साहित्य पर दलित चेतना का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसी कडी में हाल में आयी उत्तर-औपनिवेशिक काल के दक्षिण एशियाई साहित्य की अध्येता सारा बेथ हंट की पुस्तक ‘हिंदी दलित लिटरेचर एंड द पॉलिटिक्स ऑफ रिप्रजेंटेशन’. (हिंदी दलित साहित्य और प्रतिनिधित्व की राजनीति), हिन्दी में दलित साहित्य के उदय का समालोचनात्मक अध्ययन है। लेखिका ने स्वयं को साहित्य तक सीमित न रखते हुए राजनीति और पहचान से जुड़े मुद्दों पर भी चर्चा की है। यह पुस्तक, पहचान के निर्माण में दलित साहित्य की भूमिका, प्रतिनिधित्व की राजनीति व सामाजिक परिवर्तन के अतिरिक्त, साहित्य व राजनीति के अंतर्संबंधों पर भी प्रकाश डालती है।

16504583859_6fdb4a2773_o copyइस पुस्तक में लेखिका का एक प्रमुख तर्क यह है कि मुख्यधारा के हिंदी लेखकों की सामान्य धारणा के विपरीत, दलित साहित्य का उदय 1980 के दशक में दलितों की आत्मकथाओं और कथा साहित्य के प्रकाशन से बहुत पहले हो गया था। वे लिखतीं हैं, ‘सन 1920 के आसपास, उत्तर भारत में दलित साहित्य का अभ्युदय, निजी दलित छापाखानों द्वारा छोटे-छोटे पर्चों के प्रकाशन के साथ हुआ, जिन पर बहुत कम खर्च आता था और जिन्हें सामाजिक समागमों और राजनैतिक सभाओं में केवल दलितों के बीच बांटा जाता था (पृष्ठ 3)’। कई अन्य विद्वानों का भी यह मत है कि भारतीय राजनीति के क्षितिज पर, सन् 1920 के दशक में आंबेडकर के उदय ने साहित्य पर जबरदस्त प्रभाव डाला। आम्बेडकर से प्रभावित होकर अनेक दलित लेखकों ने अछूतों और नीची जातियों को जाग्रत करने के लिए लेखन को एक मिशन के रूप में अपनाया। लिम्बाले के अनुसार आंबेडकर के राजनीति में प्रवेश (1920) से लेकर उनके द्वारा बौद्ध धर्मं अपनाने (1956) का काल, दलित साहित्य में नवजागरण का काल था। इसी प्रकार, मुल्कराज आनंद व एलेनोर ज़ेलिअट द्वारा सम्पादित पुस्तक एन एंथोलोजी ऑफ दलित लिटरेचर (1992) में अपने आलेख दलित लिटरेचर : ‘ द हिस्टोरिकल बेकग्राउंड’ (दलित साहित्य: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि) में जेलिएट कहतीं हैं कि दलित साहित्य का इतिहास, उससे कहीं अधिक पुराना है, जितना कि वह समझा जाता है। वे दलित साहित्य के इतिहास को महार आंदोलन, आंबेडकर के अभियान और उनके द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने से जोड़ती हैं। हंट भी यही कहती हैं और इस सिलसिले में उन्होंने शुरूआती दलित साहित्य के कई उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं।

विशिष्ट सामाजिक क्षेत्र का निर्माण (1920 का दशक)

‘हिंदी दलित लिटरेचर एंड द पॉलिटिक्स ऑफ रिप्रेजेंटेशन’. के पहले दो अध्यायों में उत्तरप्रदेश में बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में प्रकाशित दलित पर्चों की विवेचना की गई है। सार्वजनिक जीवन से अलग-थलग रहने को मजबूर दलितों में से कुछ ने अपने छापेखाना स्थापित किए। ऐसे ही एक उत्साही थे चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु। लखनऊ में सन 1899 में एक निम्न जाति (ओबीसी) परिवार में जन्मे जिज्ञासु ने 1930 के दशक में ‘कल्याण प्रकाशन’ की स्थापना की। शुरूआत में वे अपने लेखन द्वारा राष्ट्रवादी विचारों का प्रचार करते थे परंतु जल्दी ही उनका मुख्यधारा के राष्ट्रवादी आंदोलन से मोहभंग हो गया क्योंकि वह समाजसुधार के मुद्दे को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहा था। बाद में वे आदि हिंदू आंदोलन के अछूतानंद और आंबेडकर के संपर्क में आए और उन्होंने अपनी प्रेस का नाम ‘हिंदू समाज सुधार कार्यालय’. से बदलकर ‘बहुजन कल्याण प्रकाशन’. रख दिया। जिज्ञासु की सोच में जिस तरह का परिवर्तन आया, कुछ वैसा ही परिवर्तन 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों के कई दलित-ओबीसी लेखकों के विचारों में भी हुआ। उन्होंने हिंदू धर्म को पूरी तरह नकारना शुरू कर दिया। बहुजन लेखकों ने पर्चों का इस्तेमाल ”सामाजिक कार्य के औजार” बतौर करना शुरू कर दिया। सन 1920 के आसपास उनने दलितों के लिए अपने एक अलग सामाजिक क्षेत्र का निर्माण किया। उनके निशाने पर था हिंदू धर्म और उनका लेखन जाति, अछूत प्रथा, दलित इतिहास और भेदभाव से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित था।

इन पर्चों में प्रकाशित सामग्री का विवेचन करते हुए हंट कहती हैं कि अधिकांश पर्चों में दलितों को भारत के मूल निवासियों का वंशज और ऊँची जातियों को ‘विदेशी आक्रांता’ के रूप में प्रस्तुत किया गया-ऐसे विदेशी आक्रांता, जिनके पूर्वज आर्य थे। दूसरे शब्दों में, इन पर्चों ने ‘मूल निवासी’ की अवधारणा के आधार पर आर्यों के आगमन के पूर्व के काल को भारत का ‘स्वर्णिम काल’ निरूपित करना प्रारंभ कर दिया। इन पर्चों में आर्यों को ‘बेईमान’, ‘लोभी’, ‘धोखेबाज’, ‘हिंसक’ व ‘आक्रामक’ बताया गया और उन्हें अन्याय करने, कुशासन और घोर दमन करने का दोषी ठहराया गया। कुछ पर्चों में ‘अन्यायपूर्ण’ रामराज्य की तुलना राजा बाली के ‘स्वर्णिम युग’ से की गई।

जैसा कि स्पष्ट है, इन दलित लेखकों की एक महत्वपूर्ण रणनीति थी ब्राह्मणवादी मिथकों का खंडन और ब्राह्मणवादियों के पूजनीय देवताओं की प्रतिष्ठा का ध्वंस। उन्होंने मिथकों का सबाल्टर्न परिप्रेक्ष्य से पुनर्पाठ करने की चेष्टा भी की।

आत्मकथाओं का दौर (1980 का दशक)

पुस्तक के तीसरे और चौथे अध्याय में लेखिका दलित आत्मकथाओं की चर्चा करती हैं। हिंदी दलित साहित्य में आत्मकथाओं का दौर, सन 1980 के दशक में शुरू हुआ और यह मराठी दलित लेखन से प्रभावित था। ओमप्रकाश वाल्मीकि (जूठन), मोहनदास नैमिश्‍यराय (अपने-अपने पिंजरे) व सूर्यपाल चैहान (तिरस्कृत) ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में हलचल मचा दी। इन आत्मकथाओं के दलित लेखकों ने अपने संघर्ष और कष्टों के अलावा अपनी गरीबी और अपने साथ हुए भेदभाव का विशद वर्णन किया।

हिंदी दलित लिटरेचर एंड द पॉलिटिक्स ऑफ रिप्रेजेंटेशन लेखिका: सारा बेथ हंट प्रकाशक: रोटलेज, नई दिल्ली, 2014 पृष्ठ: 264, मूल्य: रूपये 695
हिंदी दलित लिटरेचर एंड द पॉलिटिक्स ऑफ रिप्रेजेंटेशन
लेखिका: सारा बेथ हंट
प्रकाशक: रोटलेज, नई दिल्ली, 2014
पृष्ठ: 264, मूल्य: रूपये 695

दलित आत्मकथाओं के अपने विश्लेषण में हंट लिखती हैं कि जहां मुख्यधारा के साहित्य में दलित चरित्रों को सामाजिक दृष्टि से नीचा और असहाय दिखाया जाता था, वहीं हिंदी दलित लेखकों ने उन्हें ऐसे कार्यकुशल व्यक्तियों के रूप में प्रस्तुत किया, जो अपने विचारों पर दृढ़ थे और अपनी बात कहने का साहस रखते थे। प्रेमचंद के दलित चरित्रों के प्रस्तुतिकरण को लेकर इसी दौर में विवाद छिड़ गया। प्रगतिशील लेखक प्रेमचंद, दलितों के बारे में लिखने वाले पहले लेखकों में से एक थे। परंतु उनकी कहानी ‘कफन’ के दो दलित पात्रों-पिता घीसू और पुत्र माधव-के चरित्र की अनेक लेखकों ने कड़ी आलोचना की। ‘कफन’ में जिस समय माधव की पत्नी, प्रसव वेदना से जूझ रही थी और मृत्यु की कगार पर थी, उस समय दोनों को भुने आलू के कुछ टुकड़ों के लिए लड़ता दिखाया गया है। दलित लेखकों को सबसे ज्यादा आपत्ति इस बात पर थी कि प्रेमचंद की कहानी आगे बताती है कि घीसू और माधव, कफन के लिए इकट्ठा किए गए पैसों से शराब पी लेते हैं। प्रेमचंद घीसू और माधव को ‘अमानवीय गतिविधियां’ करते हुए दिखाया जाना, दलित लेखकों को, बहुत नागवार गुजरा। दलित लेखकों का मुख्य तर्क यह था कि प्रेमचंद जैसे ऊँची जाति के लेखकों की कुछ अंतर्निहित सीमाएं होती हैं और वे कभी दलितों के ‘असली’ अनुभव को व्यक्त नहीं कर सकते। प्रेमचंद की आलोचना करते हुए जानेमाने दलित लेखक कंवल भारती लिखते हैं कि प्रेमचंद, दलित नहीं थे और उन्होंने दलितों की समस्याओं को दूर से देखा था (पृष्ठ 238)। परंतु जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वीर भारत तलवार और प्रसिद्ध लेखिका रमणिका गुप्ता, प्रेमचंद का बचाव करते हुए कहती हैं कि उनके उपन्यास ‘गोदान’ में दलित चरित्रों के प्रतिकार का चित्रण भी किया गया है। उपन्यास में चमारों का समूह, एक दलित लड़की को गर्भवती करने वाले पंडित के मुंह में गाय की हड्डी ठूंसता है (पृष्ठ 239)।

स्वानुभूति बनाम सहानुभूति

प्रेमचंद के मुद्दे पर विवाद, हिंदी साहित्य में चल रही एक व्यापक बहस का हिस्सा है। इस बहस का विषय यह है कि दलितों के संबंध में कौन लिख सकता है। यह बहस स्वानुभूति बनाम सहानुभूति पर केंद्रित है। सहानुभूति के पक्षधर कहते हैं कि दलितों के बारे में लिखने के लिए दलित होना कोई शर्त नहीं हो सकती और कोई भी गैर दलित लेखक, जिसे ‘व्यापक अनुभव’ है और जिसमें ‘कल्पना शक्ति’ है वह दलित मुद्दों पर लिख सकता है। दूसरी ओर, स्वानुभूति समर्थकों का कहना है कि गैर-दलित लेखक अक्सर दलितों के अनुभवों को विकृत रूप में प्रस्तुत करते हैं और दलित पात्रों का ‘घिनौना’ प्रस्तुतिकरण करते हैं। उन्हें ऊँची जातियों के लेखकों के इरादों पर भी संदेह है। वे यह पूछते हैं कि ”क्या कारण है कि पहले सवर्ण लेखक दलितों के जीवन के बारे में नहीं लिखते थे?”

जो लोग हिंदी दलित साहित्य के क्षेत्र की गतिविधियों को जानने में रूचि रखते हैं उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढऩी चाहिए। हंट की पुस्तक न केवल हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी है बल्कि दक्षिण एशिया के साहित्य, राजनीति और इतिहास में रूचि रखने वाले भी इसे उपयोगी पायेंगे।

(बहुजन साहित्य से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ (हिंदी संस्करण) अमेजन से  घर बैठे मंगवाएं . http://www.amazon.in/dp/8193258428 किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र ही उपलब्ध होगा)

लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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