h n

तुलसीराम से पहला चिरस्मरणीय परिचय

पुस्तक की भूमिका का पहला वाक्य, जिसमें डा. तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा के लिए अत्यंत चौंका देने वाला शीर्षक 'मुर्दहिया’ चुनने का कारण बताया है, ने मुझे हिला कर रख दिया। कारण यह था कि डा. तुलसीराम के जन्मस्थल धरमपुर को जाने वाला हर रास्ता इस श्मशान से होकर गुजऱता था

tulsi ram
डा. तुलसीराम

वह एक बर्फीली सुबह थी जब मैंने अखबार में डा. तुलसीराम के अवसान की खबर पढी। ईमानदारी की बात तो यह है कि इसके पहले मैंने कभी उनका नाम भी नहीं सुना था। अगले दिन, मैंने कॉलेज में अपने कुछ सहकर्मियों को उनके असामयिक निधन पर शोक व्यक्त करते सुना। उनके जीवन की कुछ घटनाओं के बारे में सुन कर मैं हैरान रह गयी। फिर, राजनीतिशास्त्र विभाग के डा. आर.बी. मौर्य ने मुझे डा. तुलसीराम की आत्मकथा पढऩे के लिए दी। यह एक असाधारण मनुष्य के जीवन की विलक्षण। कथा है। चूँकि मेरी रूचि मुख्यत: अंग्रेजी साहित्य में रही है इसलिए मैं हिंदी साहित्य और हिंदी में लिखी पुस्तकों से बहुत वाकिफ नहीं हूँ। अत: यह मेरे लिए एक लाटरी थी। हिंदी में लिखी एक शानदार पुस्तक जो एक अनोखे आदमी के जीवन की कहानी उसके ही शब्दों में प्रस्तुत करती है।

जब मैंने यह पुस्तक पढऩी शुरू की तो मुझे यह नहीं पता था कि मैं इसकी क्लिष्ट साहित्यिक हिंदी को समझ पाऊंगीं या नही। ऊपर से इसमें उत्तरप्रदेश के ग्रामीण इलाकों की देसी बोलियों का कई जगह इस्तेमाल किया गया था। परन्तु जब मैंने उस भारत, जिससे मैं पूरी तरह से अनजान थी, की ‘खोज’ की अपनी विलक्षण अपितु अटपटी-सी यात्रा शुरू की, उसके बाद मुझे तब तक चैन नहीं मिला जब तक मैंने उसे पूरा नहीं कर लिया। पुस्तक की भूमिका का पहला वाक्य, जिसमें डा. तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा के लिए अत्यंत चौंका देने वाला शीर्षक ‘मुर्दहिया’ चुनने का कारण बताया है, ने मुझे हिला कर रख दिया। कारण यह था कि डा. तुलसीराम के जन्मस्थल धरमपुर को जाने वाला हर रास्ता इस श्मशान से होकर गुजऱता था। स्वाभाविकत: यह शमशान जाने-अनजाने, आसपास के गांवों के रहवासियों के मनो-मस्तिष्क पर हावी था और उनके जीवन की घोर मायूसी और अँधेरे को प्रतिबिंबित और व्यक्त करता था।

घोर विपन्नता, तथाकथित उच्च जातियों द्वारा शोषण और घिनौने जातिगत भेदभाव की बीच बीते उनके बचपन के कारण ही शायद डा. तुलसीराम ने अपने शुरूआती जीवन के लिए शमशान के रूपक का इस्तेमाल किया है। परन्तु प्रशंसनीय यह है कि उनके लेखन में निराशा और अन्धकार की तनिक सी झलक भी नहीं है। न तो वे रोना रोते हैं, न आत्मदया करते हैं और ना ही अपने उत्पीड़कों के प्रति कटुता या बैरभाव का प्रदर्शन। वे तो पुर्णत: निरपेक्ष भाव से यथार्थ का murdahiya_pbउसके पूरे नंगेपन में वर्णन करते हैं। वे उसकी भयावहता को सामने लाने से पीछे नहीं हटते। बहुत सीधे और स्पष्ट शब्दों में वे हमारे समाज के ताने-बाने और हमारी संस्कृति में गहरे तक पैठे भ्रष्टाचार, पाखंड और दोहरे मानदंडों को बेनकाब करते हैं। तथाकथित नीची जाति में जन्म लेने के कारण, जिन त्रासद अनुभवों से उन्हें गुजरना पड़ा, वे आत्मा को झिंझोडऩे वाले हैं और जातिप्रथा में जकड़े हमारे समाज का कुरूप चेहरा हमारे सामने लाते हैं।

यह पुस्तक मेरे जैसे व्यक्ति के लिए आँखें खोलने वाली थी। यद्यपि मैं डा तुलसीराम की समकालीन हूँ तथापि उनके विपरीत, मेरा लालनपालन बम्बई (अब मुंबई) में पूरी तरह से पश्चिमी वातावरण में, आर्थिक रूप से समृद्ध परिवार में हुआ। बचपन में मैंने स्वयं को कभी असुरक्षित महसूस नहीं किया और अपनी दुनिया में मस्त, मुझे यह पता भी नहीं था कि देश के अन्य हिस्सों में क्रूर जातिवादी राजनीति के चलते लोग किस पीड़ा और त्रास से गुजर रहे हैं। डा तुलसीराम ने जिस सन में जो डिग्री हासिल की, उसी सन में मैंने भी वही डिग्री पाई। परन्तु हम दोंनों की जिंदगियां मानो दो विपरीत ध्रुव थे, उनके बीच अंतहीन गहराई की खाई थी। गरीबी में बीते अपने बचपन का उनका जीवंत वर्णन पड़कर मैं सन्न रह गयी। वह एक के बाद एक पडऩे वाले अकालों से उपजी भुखमरी और स्वयं को ‘अछूत’ व ‘बदकिस्मत’ मानने की मजबूरी की कहानी है। और यही इस दृढ़निश्चयी व्यक्ति की जीवनयात्रा को अद्भुत और अनुकरणीय बनाती है। धरमपुर की श्मशान जैसी जिन्दगी से शुरू होकर यह यात्रा जलती चिताओं वाले बनारस के घाटों से होते हुए प्रसिद्द जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में महत्वपूर्ण पद तक पहुँची ।

मैं डा. आर. बी. मौर्या की ह्रदय से आभारी हूँ कि उन्होंने मेरा परिचय इस असाधाराण व मुक्कमल इंसान से करवाया।

 

लेखक के बारे में

लीला कनल

डा लीला कनल सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर व बुंदेलखंड स्नातकोत्तर महाविद्यालय, झाँसी में अंग्रेजी की पूर्व विभागाध्यक्ष हैं

संबंधित आलेख

हिंदी दलित कथा-साहित्य के तीन दशक : एक पक्ष यह भी
वर्तमान दलित कहानी का एक अश्वेत पक्ष भी है और वह यह कि उसमें राजनीतिक लेखन नहीं हो रहा है। राष्ट्रवाद की राजनीति ने...
‘साझे का संसार’ : बहुजन समझ का संसार
ईश्वर से प्रश्न करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कबीर के ईश्वर पर सवाल खड़ा करना, बुद्ध से उनके संघ-संबंधी प्रश्न पूछना और...
दलित स्त्री विमर्श पर दस्तक देती प्रियंका सोनकर की किताब 
विमर्श और संघर्ष दो अलग-अलग चीजें हैं। पहले कौन, विमर्श या संघर्ष? यह पहले अंडा या मुर्गी वाला जटिल प्रश्न नहीं है। किसी भी...
व्याख्यान  : समतावाद है दलित साहित्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आधार 
जो भी दलित साहित्य का विद्यार्थी या अध्येता है, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर नहीं रहेगा कि ये तीनों चीजें श्रम, स्वप्न और...
‘चपिया’ : मगही में स्त्री-विमर्श का बहुजन आख्यान (पहला भाग)
कवि गोपाल प्रसाद मतिया के हवाले से कहते हैं कि इंद्र और तमाम हिंदू देवी-देवता सामंतों के तलवार हैं, जिनसे ऊंची जातियों के लोग...