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दलित प्रतिभाओं से ईर्ष्‍या

दलित भाईयों राजू और ब्रजेश सरोज ने एक अत्यंत प्रतिस्पर्धी परीक्षा में शानदार सफलता हासिल की है। परंतु भविष्य में उनके साथ क्या होगा?

उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के रेहुआ लालगंज के आर्थिक रूप से विपन्न नीची जाति के एक परिवार के दो भाईयों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाली आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफलता की देश-विदेश में जमकर चचचर्चा और प्रशंसा हुई। अखिल भारतीय मैरिट लिस्ट में राजू को 167वां और ब्रजेश को 410वां स्थान हासिल हुआ। राजू और ब्रजेश के पिता धर्मराज, गुजरात के सूरत में एक फैक्ट्री में काम करते हैं और उनका वेतन रूपए 12,000 प्रति माह है। इससे वे अपने सात-सदस्यीय परिवार का पालन-पोषण करते हैं। जब लोगों को यह पता चला कि धर्मराज, आईआईटी में अपने बच्चों की मंहगी पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकेंगे तो उन्हें दर्जनों व्यक्तियों और संस्थाओं से आर्थिक सहयोग के प्रस्ताव मिले।

एक जानेमाने अंग्रेजी दैनिक में छपी इन भाईयों की सफलता की कहानी पढ़ने के बाद मैं रोमांचित भी हुआ और चिंतित भी। मैंने तत्काल पोस्ट की गई अपनी एक आनलाईन टिप्पणी में लिखा, ‘‘सरकार को तुरंत इन बच्चों की सुरक्षा के इंतजाम करना चाहिए क्योंकि उनकी इस शानदार उपलब्धि के कारण वे अन्य जातियों के अपने ईष्र्यालु पड़ोसियों और देशवासियों की आंखों की किरकिरी बन गए हैं।’’ आधे घंटे के भीतर मेरी इस पोस्ट को उस साईट से हटा दिया गया। यह हमारे समाज में व्याप्त दकियानूसीपन की ओर संकेत करता है और यह भी बताता है कि हमारे देशवासियों का एक तबका, उस जाति से कितनी घृणा करता है, जिससे राजू और ब्रजेश आते हैं।

अपनी सफलता से इन भाईयों ने अपने प्रशंसक और शत्रु दोनों बना लिये हैं। जब वे अपने सपनों को पूरा करने के उपक्रम में जुटेंगे, तब उन्हें परेशान किया जायेगा, अपमानित किया जायेगा और उन्हें हिंसा का शिकार होना पड़ेगा। वे चाहे जिस आईआईटी में प्रवेश लें, उनके साथ यही होगा। शिक्षकों के पूर्वाग्रह और साथी छात्रों की घृणा ने समाज के कमजोर वर्गों के कई विद्यार्थियों के करियर बर्बाद किए हैं। यहां तक कि उत्कृष्ट राष्ट्रीय संस्थानों में भी उन्हें जानबूझकर कम अंक दिये जाते हैं और उनकी शिकायत सुनने वाला कोई नहीं होता।

आईआईटी प्रवेश परीक्षा के परिणाम घोषित होने के तीन दिन बाद मेरी आशंका सही सिद्ध हुई। धर्मराज के घर पर कुछ लोगों ने हमला कर तोड़फोड़ की। इसके बाद जिला प्रशासन ने दोनों भाईयों के फूस की छत वाले मकान की सुरक्षा के लिए पुलिस जवानों की ड्यूटी लगाई।

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ब्रजेश और राजू

बीआर आंबेडकर ने आज से 79 साल पहले, मई 1936 में, ‘‘एनिहिलेशन आफ कास्ट’’ में जो लिखा था, वह आज भी प्रासंगिक है- ‘‘हिंदुओं के मूल्यों पर जाति ने अत्यंत कुत्सित प्रभाव डाला है। जाति ने जनचेतना को मार दिया है…जाति ने जनमत के निर्माण को असंभव बना दिया है। गुण भी जातिग्रस्त हो गए हैं और नैतिकता का निर्धारण भी जाति ही करती है। मेधा का कोई मूल्य ही नहीं है। किसी के कष्ट पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाती। परोपकार है, परंतु वह जाति से शुरू होकर जाति पर खत्म हो जाता है, सहानुभूति है, परंतु अन्य जातियों के लोगों के प्रति नहीं…किसी हिंदू में यह क्षमता ही नहीं है कि वह अपनी जाति से बाहर के किसी व्यक्ति के गुणों का आदर करे। गुणों का आदर किया जाता है, परंतु तभी जब वे उसी जाति के व्यक्ति में हों।’’

गत 8 मार्च 2015 को एक अखबार की हेडलाईन थी, ‘‘दलित लड़की को इंटरमीडिएट परीक्षा देने के अपराध में उन लोगों ने जिंदा जलाया जो इस परीक्षा में फेल हो रहे थे।’’ तीन दिन पहले, इस लड़की, जिसका नाम अखबार में नहीं दिया गया था, को उत्तरप्रदेश के कुशीनगर जिले के पथहरदेवा गांव के दीवानटोला में जिंदा जलाने की कोशिश की गई थी। 70 प्रतिशत झुलसी इस लड़की ने अस्पताल में हमलावरों की पहचान धीरज यादव, अरविंद, दिनेश व उनके पिता रामप्रवेश यादव के रूप में की। चारों आरोपी उसकी झोपड़ी में तब घुस आए जब वह खाना पका रही थी। उन्होंने उस पर केरोसीन डाला और आग लगा दी। ‘‘उन्हें यह अच्छा नहीं लग रहा था कि मैं शिक्षा प्राप्त कर रही हूं क्योंकि वे स्कूल में हर साल फेल हो रहे थे’’ (मेल टुडे, लखनऊ, 6 मार्च 2015)। नीची जातियों के शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों के प्रति हर हिंदू के मन में रोष रहता है और पीड़ितों को न तो प्रशासन, न पुलिस और ना ही न्यायपालिका से मदद मिलती है। हम यह मानकर चल सकते हैं कि अदालतों से आरोपी बरी हो जायेंगे।

प्रदीप कुमार, एक अनुसूचित जाति (खटीक) के सदस्य हैं। उन्होंने हिसार, हरियाणा में स्थित कल्पना चावला कालेज आफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलाजी में मेकेनिकल इंजीनियरिंग की सेमेस्टर परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। इससे उसके सहपाठी राजकुमार और कल्याण, जो कि जाट हैं, आगबबूला हो गए। उन्हें एक खटीक का पढ़ाई में उनसे आगे निकल जाना बर्दाश्त नहीं हुआ। एक दिन जाटों ने उसे कालेज के मुख्य द्वार पर रोका और अकारण उसे चार गोलियां मार दीं। प्रदीप की वहीं मौत हो गई।

सन 2006 के 12 सितंबर को भारत सरकार के स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने दिल्ली की शान, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), में अनुसूचित जाति-जनजातियों के विद्यार्थियों के प्रति पूर्वाग्रह और उनके साथ हो रहे भेदभाव के आरोपों की जांच करने के लिए एक त्रि-सदस्यीय समिति का गठन किया। इसके सदस्य थे प्रोफेसर एसके थोराट, अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, डा. केएम श्याम प्रसाद, उपाध्यक्ष, नेशनल बोर्ड आफ एग्जामिनेशन्स व डा. आरके श्रीवास्तव, महानिदेशक, स्वास्थ्य सेवाएं। समिति ने अपनी रपट में हिंसा और अमानवीयता की कई भयावह घटनाओं का उल्लेख किया। एक छात्र की आत्महत्या के संदर्भ में थोराट समिति ने लिखा, ‘‘हम तो अन्य दलित व आदिवासी विद्यार्थियों की हिम्मत और दृढ़ता देखकर चकित हैं जो अपमान, अमानवीय व्यवहार और हिंसा सहन करते हुए भी उस केम्पस में डटे हुए हैं, जिसका कथित उद्देश्य उन्हें मानवता की सेवा के लिए डाक्टर के रूप में प्रशिक्षित करना है।’’

मध्यप्रदेश के चमार जाति के एक मेधावी विद्यार्थी बालमुकुन्द भारती ने एम्स के होस्टल में आत्महत्या कर ली। प्रशासन ने उसकी आत्महत्या के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि ‘‘एम्स की पढ़ाई उसे बहुत कठिन लग रही थी और इस कारण, अवसादग्रस्त होकर उसने स्वयं की जान ले ली।’’ थोराट समिति का कहना था कि ‘‘एससी, एसटी विद्यार्थियों को शिक्षकों से उस तरह का सहयोग नहीं मिलता, जैसा कि अन्य विद्यार्थियों को मिलता है…चूंकि विद्यार्थी ज्ञान और कौशल हासिल करने के लिए अध्यापकों पर बहुत हद तक निर्भर रहते हैं इसलिए अध्यापकों का सहयोग न मिलने के कारण एससी, एसटी विद्यार्थियों का प्रदर्शन खराब होता है। इससे वे मनोवैज्ञानिक समस्याओं से घिर जाते हैं और उनका प्रदर्शन और खराब होता जाता है। वे परीक्षाओं में फेल होने लगते हैं और यह दुष्चक्र चलता रहता है।’’ समिति ने कड़ी टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘‘आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों को हमेशा परीक्षाओं में फेल किया जाता है। पिछले साल, अनुसूचित जाति का एक भी विद्यार्थी प्रथम वर्ष की फायनल प्रोफेशनल परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर सका। सूजो को फस्र्ट प्रोफेशनल में 70 प्रतिशत और सेकेण्ड प्रोफेशनल में 55 प्रतिशत अंक हासिल हुए परंतु उसे आखिरी प्रोफेशनल परीक्षा में उत्तीर्ण घोषित नहीं किया गया। इसके कारण वह अवसादग्रस्त हो गया और उसे मनोचिकित्सक से इलाज करवाना पड़ा।’’

कहने की आवश्यकता नहीं कि हिंदू अध्यापक व विद्यार्थी, अपने घरों, अपनी संस्कृति और जिस वातावरण में वे पलते-बढ़ते हैं, वहीं से वे दकियानूसी और जातिवादी बन जाते हैं। उनकी यह मानसिकता, सामाजिक सौहार्द और एकता में बाधक है। जातिवाद हर हिंदू को किसी भी दलित को नुकसान पहुंचाने, अपमानित करने, अपने क्रोध का शिकार बनाने और यहां तक कि उसे मार डालने का लायसेंस देता है।

एम्स प्रशासन ने थोराट समिति के साथ कोई सहयोग नहीं किया। एम्स के तत्कालीन निदेशक डा. वेणुगोपाल ने जातिगत भेदभाव के संबंध में भारत सरकार के उच्च शिक्षा विभाग के सचिव द्वारा चाही गई रिपोर्ट देने से इंकार कर दिया। अंततः, थोराट समिति ने अपनी रपट सरकार को प्रस्तुत कर दी जिसमें आरक्षित वर्गों के विद्यार्थियों के साथ हो रहे भेदभाव और उन्हें परेशान करने की घटनाओं को रोकने के संबंध में सिफारिशें की गईं थीं। परंतु सरकार ने इस रपट पंर कोई कार्यवाही नहीं की। एम्स वह अकेला संस्थान नहीं है, जहां एससी, एसटी विद्यार्थी कष्ट और अपमान झेलते हैं और अपनी जान खोते हैं। चंडीगढ़ के शासकीय चिकित्सा महाविद्यालय के विद्यार्थी जसप्रीत सिंह ने अपने सुसाइड नोट में ‘‘अपने विभागाध्यक्ष पर यह आरोप लगाया कि वे जानबूझकर उसे परीक्षा में फेल करते थे और उसे फेल करते जाने की धमकी भी देते थे।’’ सात महीने बाद, वरिष्ठ प्राध्यापकों के एक त्रिसदस्यीय समूह ने जसप्रीत की उत्तर पुस्तिकाओं की फिर से जांच की और पाया कि वह परीक्षा में पास हो गया था। एक साल बाद उसकी छोटी बहन, जो कि बैचलर आफ कम्प्यूटर एप्लीकेशन पाठ्यक्रम में अध्ययनरत थी, ने भी आत्महत्या कर ली। अपने भाई के साथ हुए अन्याय से उसका दिल टूट गया था। रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘जसप्रीत के विभागाध्यक्ष ने उससे कहा कि वह भले ही अपने अनुसूचित जाति के प्रमाणपत्र का उपयोग कर मेडिकल कालेज में प्रविष्ट हो गया है परंतु वह यहां से डिग्री लेकर नहीं निकलेगा।’’ प्रोफेसर ने उसे कम्युनिटी मेडिसन के महत्वपूर्ण प्रश्न पत्र में अनुत्तीर्ण घोषित कर दिया और सुसाइड नोट के अनुसार, उससे कहा कि वह उसे कभी पास नहीं होने देगा। जसप्रीत, चंडीगढ़ के प्रतिष्ठित पीजीआई से एमडी की डिग्री हासिल करना चाहता था। उसके विभागाध्यक्ष की कटु टिप्पणियों से उसे बहुत धक्का लगा और उसके स्वप्न बिखर गए। उसके शोकग्रस्त पिता चरण सिंह ने कहा, ‘‘मेरे लिए अब जीते जाने का कोई अर्थ नहीं है।’’ राजेश कुमार, अमरजीत सिंह और अरूण कुमार अग्रवाल वे तीन डाक्टर थे जो कम्युनिटी मेडिसन के विशेषज्ञ थे। यही वह प्रश्नपत्र था जिसमें जसप्रीत को फेल किया गया था। उन्हें आज तक पकड़ा नहीं जा सका है (एके बिस्वास, ‘‘मेरिट ए कर्स फार दलित्स?‘‘ मेनस्ट्रीम, वर्ष 50 अंक 17, 14 अप्रैल 2012) भारत को छोड़कर कोई भी सभ्य देश ऐसे अपराधियों को माफ नहीं करेगा जो युवा विद्यार्थियों को आत्महत्या के लिए मजबूर करते हैं।

राजू और ब्रजेश का आईआईटी में प्रवेश निश्चित रूप से उत्सव मनाने का अवसर है परंतु केम्पस में एक अन्य चुनौती उनका इंतजार कर रही है। उन्हें केवल यह चाहिए कि उनके साथ वही व्यवहार हो जो दूसरों के साथ होता है और उन्हें उनकी क्षमताओं के अनुरूप सफलता पाने का अवसर मिले। आईए हम यह आशा करें कि अध्यापकों और सहपाठियों में उनके शुभचिंतकों की संख्या उतनी ही होगी जितनी कि आमजनों में थी जब उनकी सफलता अखबारों की सुर्खियां बनी थी।

फारवर्ड प्रेस के अगस्त, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

एके विस्वास

एके विस्वास पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और बी. आर. आम्बेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर बिहार के कुलपति रह चुके हैं

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