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न्यायपालिका, राजनीति और एमएसजी 2

एमएसजी-2 में आदिवासियों को शैतान घोषित किया जाता है और गुरमीत राम रहीम सिंह को इंसान, जो यह दावा करता है कि वह शैतानों को इंसान बनायेगा तथा उसका पूरा जीवन इसी काम के लिए है। असल में देखा जाये तो आदिवासी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व पर यह कोई नया हमला नहीं है बल्कि हजारों वर्षों से यह इसी तरह से चलता आ रहा है

जंगल में आदिवासी रहते हैं। उन सबको सरकार ने आतंकवादी घोषित कर दिया है। आपने बहुत बड़ी गलती कर दी आदिवासियों के इलाके में आकर। न तो ये इंसान हैं और ना ही जानवर। ये शैतान हैं, शैतान!’’

”अरे इन शैतानों को इंसान बनाने के लिए ही तो हम आये हैं। इसके लिए हमने हमारी पूरी जिन्दगी दी है।’’

डेरा सच्चा सौदा के संत गुरमीत राम रहीम सिंह की फिल्म ‘एमएसजी-2’ के इस संवाद ने देशभर के आदिवासियों का खून खौला दिया है। फिल्म पर प्रतिबंध लगाने और सेंसर बोर्ड के सदस्यों एवं फिल्म के निर्माता व निर्देशक के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग को लेकर आदिवासियों ने देश भर में आन्दोलन किये एवं न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया। आदिवासी वोट बैंक की चिंता में झारखंड, छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश की भाजपा सरकारों ने फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन केन्द्र सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद, सबसे बड़ा सवाल यही उभर कर सामने आया है कि क्या सच में आदिवासी शैतान हैं?

इस मामले में फिल्म सेंसर बोर्ड एवं केन्द्र सरकार के रवैये से भी अधिक चौंकाने वाला दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय है। झारखंड के घाटशिला निवासी प्रेम मार्डी ने फिल्म का लाईसेंस रद्द करने और सेंसर बोर्ड के सदस्यों एवं फिल्म के निर्माता व निर्देशक के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की थी।

MSGदिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश राजीव सहाय एंडलॉ ने एक अजीबोगरीब फैसला सुनाकर याचिका खारिज कर दी। उन्होंने कहा कि ‘याचिकाकर्ता ने अर्जी दी है कि आदिवासी का मतलब अनुसूचित जनजाति है और इसलिए फिल्म एमएसजी-2 अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध नफरत फैलाती है। लेकिन मेरी समझ से आदिवासी का अर्थ देशज लोगों से है,अनुसूचित जनजाति से नहीं, जो संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत आते हैं। मैंने इसे जांचने का प्रयास किया। असल में आर्यों के आने से पहले भारत में रहने वालों को आदिवासी कहा जाता था।’वे आगे कहते हैं कि ‘सुनिश्चित होने के लिए मैंने संविधान को हिन्दी में भी पढ़ा लेकिन आदिवासी शब्द कही नहीं मिला। अंग्रेजी शब्द ‘ट्राइब’ के लिए संविधान में ‘जनजाति’ शब्द का उपयोग किया गया है।’

‘इसलिए मैं पुन: दृढ़ता के साथ कह रहा हॅ कि आदिवासी शब्द अनुसूचित जनजाति के लिए नहीं, बल्कि भारत या विश्व में कहीं भी वहां के सबसे पुराने रहवासियों के लिए प्रयोग किया जाता है। जिसे अब बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका कहा जाता है, उस भूमि के मूल निवासियों को भी आदिवासी कहा जाता है। अमेरिका के देशज लोग भी आदिवासी हैं। मैंने फिल्म के ट्रेलर में भी ऐसा कुछ नहीं पाया, जिसमें आदिवासियों के विरुद्ध हिंसा फैलाने की कोशिश की गयी हो। याचिका खारिज की जाती है क्योंकि इसमें कोई दम नहीं है।’

अजीबोगरीब तर्क

दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय से कई सवाल उठते हैं। न्यायाधीश ने कहा है कि आर्यो के आने से पहले भारत में आदिवासी रहते थे। तो सवाल यह है कि वे गये कहाँ? क्या वे बांग्लादेश नेपाल एवं श्रीलंका में हैं? न्यायाधीश की माने तो बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, अमेरिका और अफ्रीका के आदिवासी लोग शैतान हैं। यह कैसी मानसिकता है? इसमें सबसे अहम सवाल यह है कि क्या न्यायाधीश पक्षपाती हैं, पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं या अशिक्षित हैं, जिन्होंने निर्णय देने से पहले सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण आदेश नहीं पढ़ा। कैलाश एवं अन्य बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र (सीए सं. 11/2011 एस.एल.पी. सी,सं. 10367/2010) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशगण मार्कंडेय काटजू एवं ज्ञानसुधा मिश्रा की खंडपीठ ने अपने निर्णय में ट्राइबल, शेड्यूल्ड ट्राइब एवं आदिवासी शब्दों का लगातार प्रयोग किया है।

संविधानसभा की बहसों में जयपाल सिंह मुंडा, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डा. भीमराव आम्बेडकर इत्यादि ने आदिवासी, अबोर्जिनल, ट्राइबल व शेड्यूल्ड ट्राइब का उपयोग बार-बार किया है। भारतीय संविधान के मसौदे के अनुच्छेद (13.5)में आदिवासी शब्द को रखा गया था, जिसे डा. भीमराव आम्बेडकर ने हटवा दिया। इसके अलावा मानवशास्त्रीय अध्ययनों, इतिहास की पुस्तकों व योजना आयोग एवं राज्य सरकारों के दस्तावेजों में आदिवासी, ट्राइबल, शेड्यूल्ड ट्राइब एवं अनुसूचित जनजाति शब्दों का उपयोग किया गया है। बावजूद इसके न्यायाधीश ने आदिवासी और शेड्यूल्ड ट्राइब को अलग-अलग बताकर याचिका खारिज कर दी। इससे क्या समझा जाये?

यहां दिलचस्प यह है कि फिल्म एमएसजी-2 में आदिवासियों को शैतान घोषित किया जाता है और गुरमीत राम रहीम सिंह को इंसान, जो यह दावा करता है कि वह शैतानों को इंसान बनायेगा तथा उसका पूरा जीवन इसी काम के लिए है। असल में देखा जाये तो आदिवासी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व पर यह कोई नया हमला नहीं है बल्कि हजारों वर्षों से यह इसी तरह से चलता आ रहा है। यह सिलसिला आर्यों के भारत पर आक्रमण के साथ ही शुरू हो गया था। उन्होंने आदिवासी इलाकों पर कब्जा कर उनकी सभ्यता को तहस-नहस कर दिया। इसके बाद उन्होंने स्वयं को देव, सुर, श्रेष्ठ, पवित्र, सभ्य इत्यादि घोषित कर दिया और आदिवासियों को दानव, असुर, बर्बर, शैतान एवं राक्षस। जब मुगल आये तो उन्होंने भी आदिवासियों को जंगली के अलावा और कुछ नहीं माना।

विकास की भाषा

भारत में अंग्रेजों के आने के बाद ‘विकास’ नामक भूत का आगमन हुआ और आदिवासियों से उनकी आजीविका के संसाधनों को लूटने के बाद उन्हें भूखा, नंगा, गरीब, लाचार, असभ्य, अपराधी, हाशिये के लोग इत्यादि जैसे खिताबों से नवाजा गया। जहाँ गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन कहा वहीं आम्बेडकर ने असभ्य और संघ परिवार ने आदिवासियों को वनवासी बताते हुए उनके खिलाफ संगठित मुहिम खोल दी। इस तरह, आदिवासियों के लिए वनवासी शब्द का उपयोग जोरशोर से होने लगा क्योंकि आर्य स्वयं को देश का असली निवासी घोषित करना चाहते हैं। इसी बीच 1974 की संपूर्ण क्रांति ने देश में एनजीओ की बाढ़ ला दी और आदिवासी इलाकों में काम करने वाले ‘दिकू’ (बाहरी) लोग आदिवासियों के लिए अपना जीवन देने का दावा करने लगे। आदिवासियों के एक के बाद एक कई मसीहा पैदा हुए लेकिन बहुसंख्यक आदिवासी वहीं के वहीं रहे। सरकारों, एनजीओ और गैर-आदिवासी समाज ने आदिवासियों को भूखा, गरीब, लाचार, पिछड़ा, असभ्य इत्यादि घोषित कर उन्हें मुख्यधारा में लाने, उनका विकास करने और उन्हें बेहतर जीवन उपलब्ध कराने की आड़ में जम कर पैसा, नाम और शोहरत बटोरी। एमएसजी-2 इसकी एक कड़ी भर है।

झारखंड में वोट बैंक खिसकने के डर से भाजपा सरकार ने फिल्म पर सबसे पहले प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन प्रतिबंध लगाने के बाद मुख्यमंत्री रघुवर दास ने अपनी फेसबुक वाल पर जो लिखा वह शर्मनाक है और यह इंगित करता है कि संघ परिवार कैसे आदिवासियों को अपने कब्जे में लेकर उनकी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व को दफन करना चाहता है। उन्होंने लिखा, ”आदिवासी वनवासी भाई-बहनों की भावनाओं से खेलने की इजाजत राज्य में किसी को नही…आदिवासी भाई-बहनों के लिए असंवैधानिक और अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने वाली फिल्म एमएसजी-2 के प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जायेगी।’’ लेकिन आदिवासियों को ‘वनवासी’ कहना भी अमर्यादित भाषा और गाली है क्योंकि आर्यों और मुगलों ने आदिवासियों को जंगली कहा, जिसका अर्थ ही असभ्य, बर्बर और पिछड़ा है।

फिल्म एमएसजी-2 में आदिवासियों को ‘शैतान’ घोषित करना, आदिवासी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व पर एक संगठित हमला है। गुरमीत राम रहीम सिंह को अच्छी तरह से पता था कि आदिवासियों पर वे कितने ही हमले करें, केन्द्र सरकार उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगी क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आदिवासियों के लिए ‘वनबंधु’ जैसे शब्द का सरकारीकरण किया है। मोदी, अनुसूचित जातियों के लिए ‘दलित’ शब्द का प्रयोग करते हैं लेकिन अनुसूचित जनजातियों को ‘आदिवासी’ शब्द से संबोधित करने की हिम्मत उनमें नहीं है क्योंकि उनका आका संघ परिवार विगत कई दशकों से आदिवासी पहचान, अस्मिता और अस्तित्व को मिट्टी में मिलाने के लिए युद्धस्तर पर लगा हुआ है। संघ परिवार, आदिवासियों के लिए ‘वनवासी’ शब्द का उपयोग करता है क्योंकि आदिवासी शब्द की स्वीकृति से ही बहुसंख्यक गैर-आदिवासी लोग बाहरी हो जायेंगे और आदिवासी लोग देश के मूलनिवासी।

लेकिन क्या इस शाब्दिक मायाजाल से सुप्रीम कोर्ट द्वारा 5 जनवरीए 2011 को दिया गया अहम फैसला बदल जायेगा, जिसमें कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि 8 प्रतिशत आदिवासी ही भारत देश के असली निवासी हैं और शेष 92 प्रतिशत लोग आप्रवासियों की संतान हैं? सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि आदिवासी लोग, गैर-आदिवासियों की तरह न किसी को ठगते हैं, न झूठ बोलते हैं और ना ही किसी को लूटते हैं। उनका चरित्र गैर-आदिवासियों से श्रेष्ठ है। लेकिन फिल्म एमएसजी-2 इस बात की सबूत है कि बहुसंख्यक गैर-आदिवासी भारतीयों के मन में आदिवासियों के प्रति नफरत, द्वेष और पूर्वाग्रह भरा पड़ा है और वे उससे मुक्त होना नहीं चाहते। अब गुरमीत राम रहीम सिंह, संघ परिवार और गैर-आदिवासी समाज को सोचना होगा कि असल में असभ्य, चरित्रहीन, असुर, बर्बर, दानव, राक्षस और शैतान कौन है? यह तो तय है कि अगर आदिवासी शैतान हैं तो फिर दुनिया में इंसान कोई भी नहीं हो सकता है क्योंकि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मानवीय मूल्य – समानता, सामुहिकता, स्वतंत्रता, भाईचारा और न्याय सिर्फ आदिवासी जीवन-दर्शन में है। श्रेष्ठ, सभ्य, शिक्षित, उच्च श्रेणी और विकसित होने का दंभ भरने वाले लोगों को आदिवासी समाज से बहुत कुछ सीखना बाकी है।

 

लेखक के बारे में

ग्लैडसन डुंगडुंग

ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ताए लेखक व चिन्तक हैं

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