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‘अंदाजिय़ा आंकड़ेबाज़ी से उपजता है खतरनाक जातिवाद’

प्रोफेसर अमिताभ कुंडू कहते हैं कि हमारे देश में पिछली जाति जनगणना लगभग एक सदी पहले हुई थी। अब समय आ गया है कि सरकार अपने कार्यक्रमों और विभिन्न समुदायों के लिए कोटे का निर्धारण ताजे विश्वसनीय आंकड़ों के आधार पर करे

प्रोफेसर अमिताभ कुंडू, सच्चर समिति की रपट के कार्यान्वयन का आंकलन करने के लिए नियुक्त समिति के अध्यक्ष थे। इस समिति का गठन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अगस्त 2013 में किया था। इस समिति से यह कहा गया था कि वह सच्चर समिति की सिफारिशों के क्रियान्वयन और प्रधानमंत्री के अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए लागू किए गए 15 सूत्री कार्यक्रम का मुस्लिम समुदाय की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति पर प्रभाव का आंकलन करे। अभय कुमार को दिए गए एक साक्षात्कार में प्रोफेसर कुंडू कहते हैं कि जाति जनगणना से नीति निर्धारकों को जातिवार आंकड़े उपलब्ध हो सकेंगे, जिससे हम समावेशी विकास के अपने लक्ष्य की ओर बेहतर ढंग से आगे बढ़ सकेंगे। साक्षात्कार के संपादित अंश प्रस्तुत हैं।

 

akcजाति जनगणना करवाने का फैसला किस पृष्ठभूमि में लिया गया था? इसकी क्या आवश्यकता थी?

देश में विभिन्न धर्मों और जातियों के लोगों की संख्या कितनी है, यह जानना सरकार की कई योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है। मुझे नहीं लगता कि हम आज भी लक्षित योजनाओं से किनारा करने की स्थिति में हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यदि कल्याण योजनाएं लक्षित समूहों की बजाए सभी के लिए बनाई जाएंगी तो इसके लिए जितनी धनराशि की आवश्यकता होगी, वह हमारे पास उपलब्ध ही नहीं है। इसके अलावा, यह अनावश्यक भी है। अधिकांश नीतिनिर्धारक और नीतियों को लागू करने वाले अधिकारी यह मानते हैं कि जातिगत आंकड़े आवश्यक हैं। सन् 1930 के बाद से जाति संबंधी आंकड़े केवल कयासों पर आधारित रहे हैं और मंडल आयोग की रपट भी अंदाजिया आंकड़ों पर आधारित थी। ओबीसी की देश में कितनी आबादी है, इस संबंध में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के सर्वेक्षण के विभिन्न चक्रों के नतीजे अलग-अलग हैं। इसका कारण यह है कि कई परिभाषाएं अब भी अस्पष्ट हैं। मुझे ऐसा लगता है कि अब समय आ गया है कि विभिन्न योजनाओं के लिए धन आवंटन और कोटा के निर्धारण के लिए हम ताज़ा आंकड़ों का इस्तेमाल करें जो विश्वसनीय हों और जिनकी परस्पर तुलना संभव हो।

 

जाति जनगणना के आलोचक कहते हैं कि इससे ‘जातिवाद’ को बढावा मिलेगा। क्या आप इस आशंका को सही मानते हैं?

देखिये, किसी भी मुद्दे को नजऱअंदाज़ करने से बेहतर है उस पर सही जानकारियों के आधार पर सार्थक बहस करना। अन्दाजिय़ा आंकड़ों पर आधारित विमर्श और बहस, केवल ‘खतरनाक जातिवाद’ को जन्म देंगे।

 

जाति जनगणना के स्थान पर जाति सर्वेक्षण करवाया जा रहा है। इस सर्वेक्षण के नतीजे कितने सही होंगें? क्या आप जाति सर्वेक्षण को जाति जनगणना का उचित विकल्प मानते हैं?

जातिवार जनसंख्या के आंकड़े इकट्ठे करने के काम को गरीबी की सप्त-आयामी अवधारणा के आधार पर वंचित समूहों की पहचान करने से जोडऩे का यह नतीजा हुआ है कि सामाजिक-आर्थिक व जाति जनगणना (एसईसीसी) में वंचना संबंधी अतिशयोक्तिपूर्ण आंकड़े सामने आये हैं। आमदनी संबंधी आंकड़े अत्यंत लापरवाहीपूर्ण तरीके से एकत्रित किये गए हैं। यहाँ तक कि निरक्षरता संबंधी आंकड़े भी बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किये गए हैं। अगर कोई सर्वेक्षण या जनगणना, कल्याण योजनाओं के पात्र लोगों की पहचान करने के उद्देश्य से किया जाएगा, तो उसमें इस तरह की विकृति स्वाभाविक रूप से आ जाएगी। मैं केवल यह आशा कर सकता हूँ कि इस विरूपण से जाति संबंधी आंकड़े प्रदूषित नहीं हुए हैं। मैंने अपने कई लेखों में जोर देकर यह कहा था कि जातिवार जनसंख्या का आंकलन करने के कार्य को आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण से न जोड़ा जाये क्योंकि मुझे आशंका थी कि इससे लोग अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में जानबूझकर गलत जानकारी देंगे और डाटा, कम से कम सतही तौर, पर गलत चित्र प्रस्तुत करेगा। मैंने यह भी कहा था कि इस तरह के सर्वेक्षण, ग्रामीण व शहरी विकास मंत्रालयों के बजाए नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस द्वारा बड़े आकार के नमूने का इस्तेमाल करते हुए विशेष चक्र द्वारा किए जाने चाहिए। लाभार्थियों की पहचान का काम अलग से होना चाहिए।

अब एसईसीसी के जातिगत (व अन्य) आंकड़ों की विश्वसनीयता की जांच, एकत्रित जानकारी का विभिन्न मापदंडों पर विसमूहन कर क्रॉस-टेब्यूलेशन के जरिये की जा सकती है। चूंकि परिवारों द्वारा दी गयी जानकारी का सत्यापन ग्राम सभा व पंचायत के स्तर पर होता है, इसलिए उसमें इतनी सत्यता तो होगी कि उसे काफी हद तक विश्वसनीय माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त, दसियों लाख शिकायतें मिल चुकीं हैं और उनका निराकरण भी हो गया है। इसलिए मैं जनगणना के आंकड़ों को बिना विस्तृत परीक्षण के खारिज करने को तैयार नहीं हूँ। मेरे विचार में इसे एक ऐसी प्रक्रिया की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है, जो आने वाले वर्षों में हमें जाति और धर्म-आधारित विश्वसनीय सामाजिक-आर्थिक डाटा उपलब्ध करवायेगा।

 

राजनीति विज्ञानी प्रोफेसर योगेन्द्र यादव ने हाल में एक टीवी कार्यक्रम में कहा कि जाति जनगणना की रपट जारी करना एक जटिल कार्य हैं, जिसमें चार से पांच साल लगेंगे। क्या आप प्रोफेसर यादव के विचारों से सहमत हैं?

मुझे बताया गया है कि आंकड़ों के सम्बन्ध में जो शिकायतें मिलीं थीं, उनमे से केवल कुछ का निराकरण बाकी है। कम से कम मुझे ऐसी किसी सांख्यकीय जटिलता की जानकारी नहीं है जिसके कारण इन आकंड़ों को सार्वजनिक करने में देरी लगे। परन्तु यह स्पष्ट है कि इस जनगणना के सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों की तुलना, अन्य आधिकारिक स्त्रोतों से प्राप्त आंकड़ों से नहीं की जा सकती।

 

क्या आपको लगता कि जाति जनगणना के आंकड़ों के प्रकाशन से नीति-निर्धारकों को हाशिये पर पड़े समूहों की बेहतरी के लिए कार्यक्रम बनाने में मदद मिलेगी?

अगर सरकार का समावेशी विकास का एजेंडा, लक्षित कार्यक्रमों पर निर्भर है न कि व्यष्टि अर्थशास्त्रीय (मैक्रो इकनोमिक) विकास पर, तो धन का आवंटन यथार्थपूर्ण आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए। इसके अलावा, इस तरह के संस्थागत व कानूनी प्रावधान करने होंगे जिससे लाभ, लक्षित समूहों तक पहुंचे। सरकार ऐसा नहीं कर सकती कि वह पहले तो सभी को अनुदान का लाभ दे दे और उसके बाद उच्च व मध्यम वर्ग से नैतिक आधार पर अनुदान त्यागने की अपील करे। इस तरह की अपील तभी कारगर हो सकती है जब संबंधित राशि बहुत कम हो। मेरा विनम्र तर्क यह है कि अगर राजनैतिक इच्छाशक्ति होगी तो बेहतर सूचनाओं और आंकड़ों से कार्यक्रमों/मिशनों को बेहतर ढंग से बनाया जा सकेगा और उनके नतीजे भी बेहतर आएंगे।

 

आपने शहरीकरण का विस्तृत अध्ययन किया है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि शहरों से जाति तेजी से अदृश्य होती जा रही है?

जाति के संबंध में जो सीमित आंकड़े मुझे उपलब्ध थे, उन पर आधारित जो अध्ययन मैंने किए हैं, उनसे यह पता चलता है कि शहरीकरण से जातिगत भेदभाव में कमी आती है। महानगरों (एक करोड़ से अधिक आबादी वाले शहर), के संबंध में एनएसएसओ के अधिक विश्वसनीय सामाजिक/ आर्थिक अनुमान उपलब्ध हैं। इनसे यह पता चलता है कि इन शहरों में जातिगत भेदभाव, अन्य शहरी और ग्रामीण इलाकों से काफी कम है और देश के अन्य हिस्सों की तुलना में तेजी से घट रहा है।

 

सच्चर समिति की रपट के क्रियान्वयन के आंकलन के लिए आपकी अध्यक्षता में नियुक्त समिति ने लगभग एक वर्ष पहले अपनी रपट सरकार को सौंप दी थी। क्या आप इस धारणा से सहमत हैं कि सरकार समिति की सिफारिशों को लागू करने के प्रति बहुत उत्साहित नहीं है?

सरकार की ओर से कोई औपचारिक प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिली है। एक-दो को छोड़कर किसी राजनैतिक दल ने इस रपट में किए गए विश्लेषण और सिफारिशों को गंभीरता से नहीं लिया है। इससे मैं दु:खी और निराश हूं। मीडिया के कारण संसद में कुछ प्रश्न अवश्य उठाए गए परंतु रपट के महत्वपूर्ण हिस्सों पर कोई गंभीर बहस नहीं हुई। विविधता सूचकांक समिति, जिसका मैं अध्यक्ष था, ने अपनी रपट में कहा था कि निजी क्षेत्र सहित सभी संगठनों और कंपनियों को, उनके कर्मचारियों व लाभार्थियों में विविध समुदायों को प्रतिनिधित्व देने के लिए प्रेरित करने हेतु प्रोत्साहन योजना बनाई जाए। इस रपट को भी यूपीए सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया।

 

आपने दलित मुसलमानों और ईसाईयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की जोरदार वकालत की थी परंतु देश का राजनैतिक नेतृत्व इस मुद्दे को नजरअंदाज करता आ रहा है। क्या आप इस मत से सहमत हैं कि दलित मुसलमानों और ईसाईयों को अनुसूचित जाति का दर्जा न दिया जाना भारत की धर्मनिरपेक्ष नीतियों का उल्लंघन है।

मैं इससे सहमत हूं और समिति का भी यही विचार है।

 

फारवर्ड प्रेस के सितंबर, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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