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प्रबुद्ध भारत का स्वप्न

वे साम्राज्यवाद को उसकी संपूर्णता में देखते थे-केवल एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र पर शासन के रूप में ही नहीं बल्कि एक समाज के दूसरे समाज पर वर्चस्व के रूप में भी। उनकी यह मान्यता थी कि सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक क्षेत्रों में दूसरों पर कुछ भी लादना साम्राज्यवाद है

भेदभाव और अछूत प्रथा के विरूद्ध और मंदिर में प्रवेश के मुद्दे पर आंबेडकर के संघर्ष और गोलमेज सम्मेलनों में उनके द्वारा शुरू किए गए महत्वपूर्ण विमर्शों के बारे में हम सब जानते हैं। सन् 1936 में ”जाति उन्मूलन’’ का आह्वान करके आंबेडकर ने प्रबुद्ध भारत के अपने स्वप्न को पूरा करने की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाया। उन्होंने यह मांग की कि कृषि भूमि और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया जाए। उन्होंने सहकारिता के आधार पर खेती और भूमिहीनों को ज़मीन के आवंटन जैसे क्रांतिकारी कदम उठाए जाने की मांग भी की। आंबेडकर ने संविधान में कई ऐसे प्रावधान किए, जिनसे समाज के पिछड़े वर्गों के सदस्य, अन्य वर्गों के समकक्ष आ सकें और भारत में राष्ट्र के अंदर राष्ट्र न रहे। आंबेडकर लगातार ज़ोर देकर यह कहते रहे कि सामाजिक प्रजातंत्र के बगैर राजनीतिक प्रजातंत्र अर्थहीन है। उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि समानता, सामाजिक स्तर पर होनी चाहिए, उसे राजनीति द्वारा थोपा नहीं जाना चाहिए। पीछे मुड़कर देखने से अब ऐसा लगता है कि दलित आंदोलन को पहले जाति के उन्मूलन के लिए काम करना था, उसके पश्चात धर्मनिरपेक्ष व तार्किक, सामाजिक प्रजातंत्र का निर्माण करना था और अंत में पूरे समाज के एक समान मूल्य विकसित करने का प्रयास करना था। आंबेडकर के विचारों में जाति के उन्मूलन और समानता, स्वतंत्रता व बंधुत्व पर आधारित समाज की स्थापना के प्रति उनकी प्रतिबद्धता झलकती है। देश में आरक्षण की व्यवस्था लागू है, जिससे सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में दमित वर्गों की उपस्थिति बढ़ी है। राजनीति में भी उनकी आवाज़ पहले की तुलना में कहीं बुलंद हुई है परंतु समन्वित सामुदायिक विकास और पूरे समुदाय के एक साथ आगे बढऩे के आंबेडकर के स्वप्न अब भी साकार नहीं हो सके हैं।

मज़बूत होती जाति की सत्ता

जातिवाद के पुनरूत्थान का एक कारण यह है कि भारतीय दलित आंदोलन ने कुछ मूल प्रश्नों पर समुचित ध्यान नहीं दिया। एक अन्य कारण है हिंदुत्ववादी कट्टरता, जातिगत फासीवाद और नवउदार पूंजीवाद की पीठ पर सवार ब्राह्मणवाद का उदय। इसके अलावा, वर्चस्वशाली शक्तियों, जातियों, समुदायों और सामाजिक-राजनीतिक समूहों को एकजुट करने के प्रयास भी हुए हैं। जातिवाद, जातिगत फासीवाद, पूंजीवाद और वैश्वीकरण एक दूसरे से जुड़े हैं। पूंजीवादी ताकतें वैश्विक स्तर पर आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली बनने की मुहिम में जुटी हैं। भारतीय जातिवादी-फासीवादी शक्तियां, पूंजीवादियों के एजेंट बतौर काम कर रही हैं।

पूंजीवाद की विचारधारा पूरी तरह तब ही लागू की जा सकती है जब उसे फासीवाद का सहारा मिले। आज के राजनीतिक समूहों का आम जनता से कोई लेनादेना नहीं है। जो संसाधन पूरी जनता के हैं, उन्हें पूंजीवादियों के हाथों में सौंप दिया गया है और वे उनका जमकर दोहन कर रहे हैं। ज़मीन और जंगल जैसे संसाधनों की लूट, दलितों और आदिवासियों पर सीधा हमला है। इससे अंतत: बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन होता है और ये समुदाय अपने जीवनयापन के स्त्रोत और अपनी समृद्ध परंपरा और संस्कृति खो बैठते हैं। यह उनके अशक्तिकरण का सबसे प्रभावी तरीका है।

जहां एक ओर ब्राह्मणवाद मजबूत होता गया, वहीं दलित आंदोलन अपनी राह से भटक गया। दलित आंदोलन का ध्यान आरक्षण, धर्मपरिवर्तन व व्यक्तिगत राजनैतिक व आर्थिक लाभों पर केंद्रित रहा। इस आंदोलन के नेता अवसरवादी राजनीति करने लगे। एक बेहतर राष्ट्र के निर्माण के स्वप्न को पूरा करने की दिशा में आगे बढऩे की बजाए उनका ज़ोर जल्दी से जल्दी, छोटे-छोटे लाभ पाने पर था। दलित आंदोलन न तो वैश्विकरण की राजनति को ambedkar_constituent_assemblyसमझ सका और न उससे मुकाबला करने की रणनीति बना पाया। जब ज़रूरत सबाल्टर्न दृष्टिकोण से वैश्वीकरण की प्रक्रिया को समझने की थी तब वह उसका मूक दर्शक बना रहा और कई मौकों पर उसने ऐसे राजनैतिक समूहों को अपना समर्थन दिया, जो वैश्विकरण के हामी थे और उसे बढ़ावा देने में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे थे।

भारत में वैश्विकरण का दौर जुलाई 1991 में आर्थिक सुधारों के साथ शुरू हुआ। वैश्वीकरण की गति धीमी बनी रही और उस तरह के आर्थिक सुधार नहीं हुए, जैसे कि होने चाहिए थे। इसका एक कारण यह था कि देश में राजनीतिक स्थिरता का अभाव था। नतीजे में खाद्य सुरक्षा, रोजग़ार, मुद्रास्फीति व गरीबी के उन्मूलन और सामाजिक सुरक्षा संबंधी योजनाओं पर विपरीत मात्रात्मक और गुणात्मक प्रभाव पड़े। उदाहरणार्थ, शिक्षा के उद्योग बन जाने के बाद शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण और छात्रवृत्ति इत्यादि के रूप में आर्थिक सहायता अप्रासंगिक हो गई। शिक्षा के बगैर सभी सुरक्षात्मक संवैधानिक प्रावधान, जिनमें नौकरियों में आरक्षण शामिल है, का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। आर्थिक सुधारों के कारण कई शैक्षणिक संस्थाओं को दिया जाने वाला अनुदान समाप्त कर दिया गया और शिक्षा पर सरकार द्वारा किए जाने वाले खर्च में कमी की गई।

आरक्षण की व्यवस्था को लागू करने में चाहे जितनी भी कमियां रही हों परंतु दलितों के दृष्टिकोण से यह व्यवस्था बहुत लाभकारी सिद्ध हुई है। यह इससे स्पष्ट है कि संगठित निजी क्षेत्र (साफ-सफाई और अन्य निचले दर्जे के कामों को छोड़कर) में दलित कर्मचारी ढूंढे नहीं मिलते। अगर आरक्षण नहीं होता तो दलित आज कहीं के न रहते। आरक्षण की व्यवस्था ने देश के 15 लाख से भी ज्यादा भूमिहीन श्रमिकों के लड़के और लड़कियों को जीवनयापन का साधन और कुछ हद तक सामाजिक प्रतिष्ठा दिलवाई है। हो सकता है असली सत्ता उनके हाथों में न हो, परंतु क्या कोई इस बात से इंकार कर सकता है कि आरक्षण की सहायता से कम से कम 50,000 दलित आज नौकरशाही में विभिन्न पदों पर काम कर रहे हैं। इससे उन्हें भौतिक लाभ तो मिले ही हैं, उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि आरक्षण की व्यवस्था ने दलित समुदाय में आशा का संचार किया है। इस आशा के चलते ही बड़ी संख्या में दलित शिक्षा पाने का प्रयास कर रहे हैं।

भारत के दलित इतिहास में दो घटनाएं बदनुमा दाग हैं-पहली सन् 1992 में बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना और दूसरी 2002 का गुजरात कत्लेआम। यह खेदजनक है कि किसी दलित संगठन ने इन दोनों घटनाओं का खुलकर और मज़बूती से विरोध नहीं किया। उल्टे, दलितों ने हिंदुत्ववादी शक्तियों के लड़ाके बतौर मुसलमानों के विरूद्ध हिंसा की। गुजरात में जो ब्राह्मण, बनिए और पाटीदार आज हिंदुत्ववादी राजनीति के शीर्ष पर हैं, उन्होंने ही सन् 1981 में दलितों के खिलाफ आरक्षण-विरोधी दंगे भड़काए थे। ये दंगे आरक्षण की उस व्यवस्था के प्रति उनके गुस्से को प्रतिबिंबित करते थे, जिसने दलितों को मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में पढ़ाई करने का मौका दिया। इन दंगों में गुजरात के 19 में से 18 जिलों में दलितों को निशाना बनाया गया था। इन दंगों के दौरान मुसलमानों ने दलितों को आश्रय दिया और उनकी रक्षा की। दलितों को 1985 में एक बार फिर ब्राह्मण-बनिया-पाटीदार गठजोड़ के कोप का शिकार होना पड़ा। इस बार उनका आंदोलन सरकारी नौकरियों व शैक्षणिक संस्थाओं में ओबीसी के लिए आरक्षण के विरोध में था। मंडल आयोग द्वारा ओबीसी को आरक्षण दिए जाने की सिफारिश का दलितों ने समर्थन किया।

कोई भी प्रगतिशील व व्यावहारिक आंदोलन केवल कुछ धार्मिक ग्रंथों या राजनैतिक विचारधाराओं की आलोचना कर प्रासंगिक नहीं बना रह सकता। उसे सभी महत्वपूर्ण प्रश्नों और मुद्दों पर विचार करना होगा। सतही नकारात्मक सोच किसी आंदोलन का आधार नहीं बन सकती। उसे लोगों के सामने एक ठोस विकल्प रखना ही होगा।

आंबेडकर का पुनर्पाठ

डॉ. आंबेडकर कतई हठधर्मी नहीं थे। बल्कि वे व्यावहारिक थे। उन्होंने जातिवाद, फासीवाद, साम्प्रदायिकतावाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की शक्तियों का डटकर विरोध किया। उनकी यह मान्यता थी कि ऐसी किसी भी व्यवस्था, जो मानवीय रिश्तों में असमानता को बढ़ावा देती है, को उखाड़ फेंका जाना चाहिए। यदि कोई साम्राज्यवाद को अच्छी तरह से समझता था तो वे आंबेडकर थे। आंबेडकर एक सच्चे प्रजातांत्रिक थे। वे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के पिट्ठू नहीं थे, जैसा कि कुछ वामपंथी और छद्म राष्ट्रवादी कहते हैं। वे हर तरह के साम्राज्यवाद के खिलाफ थे। वे साम्राज्यवाद को उसकी संपूर्णता में देखते थे-केवल एक राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र पर शासन के रूप में ही नहीं बल्कि एक समाज के दूसरे समाज पर वर्चस्व के रूप में भी। उनकी यह मान्यता थी कि सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक क्षेत्रों में दूसरों पर कुछ भी लादना साम्राज्यवाद है।

आंबेडकर के विचारों को तोडऩे-मरोडऩे वाले यह भी कहते हैं कि वे विदेशी शासन या औपनिवेशिक राज के समर्थक थे। इस आरोप में कोई दम नहीं है। उन्होंने केवल एक रणनीति बतौर, ब्रिटिश शासन का इस्तेमाल हिन्दुओं और दलितों के बीच मध्यस्थ के रूप में किया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शोषक चरित्र और उसके सामाजिक व आर्थिक कुप्रभावों को वे अपने समय के स्वदेशी का नारा बुलंद करने वाले नेताओं से कहीं बेहतर समझते थे। उन्होंने अर्थशास्त्र पर तीन विद्वतापूर्ण पुस्तकें लिखीं, जिनमें उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की भूमिका का गहराई से अध्ययन किया और भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों पर उसके प्रभाव की गहन विवेचना की। अपनी पुस्तक ”एडमिनिस्ट्रेशन एंड फाईनेंस ऑफ द ईस्ट इंडिया कंपनी’’ में उन्होंने यह बताया कि किस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी ने सन 1792 से 1858 ने भारतीयों का जमकर शोषण किया और किस प्रकार 1858 में कंपनी राज समाप्त हो जाने के बाद, ब्रिटिश सरकार ने इस लूट को बंद करने की बजाए ईस्ट इंडिया कंपनी के भारी-भरकम कर्जे को भारत की भूखी, नंगी जनता पर लाद दिया। अपनी एक अन्य पुस्तक ”द एवोल्यूशन ऑफ प्रोविन्शियल फायनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’’ में आंबेडकर ने 1833 से लेकर 1921 तक ब्रिटिश भारत में केंद्र-राज्य आर्थिक संबंधों के विकास की विवेचना की। ”द प्रॉब्लम ऑफ द रूपी : इट्स ओरिजन एंड इट्स सोल्यूशन’’ अर्थशास्त्र की उनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है।

हमें आंबेडकर का गहराई से अध्ययन करने की आवश्यकता है। धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी व प्रजातांत्रिक भारत की उनकी अवधारणा, एक नए भारत के निर्माण के लिए आज भी पथप्रदर्शक बन सकती है। हमें एक ऐसी प्रति-संस्कृति का विकास करना होगा, जो आज की संस्कृति का विकल्प बन सके और जातिवाद, फासीवाद, वैश्वीकरण व साम्राज्यवाद की नित मज़बूत होती शक्तियों से जूझ सके। जब तक हम एक प्रति-संस्कृति का निर्माण नहीं करेंगे, हमारे सभी प्रयास व्यर्थ जाएंगे।

इस प्रति-संस्कृति के कुछ तत्व हमारे आसपास आज भी जिंदा हैं। इन्हें हम दलित और आदिवासी कलाओं में देख सकते हैं। इनमें शामिल हैं प्रत्यक्ष प्रजातंत्र, समानाधिकारवाद, न्याय और सामाजिक मेलजोल। इस प्रति-संस्कृति की इमारत, उन वर्गों की संस्कृति और कलाओं पर आधारित होगी जिन्होंने बहुत दु:ख भोगे हैं। यह जीवन को सम्पूर्णता देने की कोशिश है, यह अंधेरी दुनिया में न्याय की तलाश है। यहां मूल्य व्यक्ति-केंद्रित नहीं है, बल्कि वे सर्वजन हिताय हैं। दमित वर्गों की समृद्धि की सामूहिक समझ, कहीं ऊंचे दर्जे की और अधिक मूल्यवान है। और शायद उसी के जरिए हम एक प्रबुद्ध भारत की कल्पना कर सकते हैं।

लेखक के बारे में

गोल्डी एम जार्ज

गोल्डी एम. जॉर्ज फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक रहे है. वे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से पीएचडी हैं और लम्बे समय से अंग्रेजी और हिंदी में समाचारपत्रों और वेबसाइटों में लेखन करते रहे हैं. लगभग तीन दशकों से वे ज़मीनी दलित और आदिवासी आंदोलनों से जुड़े रहे हैं

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