इतिहास शासकों का होता है, शासितों का नहीं। भारतीय इतिहास लेखन पर ब्राह्मणों और सामंतों का नियंत्रण रहा है इसीलिये उन लोगों ने अपने नायकों को ऊंचा स्थान दिया और शोषितों/शासितों के नायकों की उपेक्षा की। उत्पीडित जातियों के घोर विरोधी, प्रतिक्रियावादी तिलक को ‘लोकमान्य’ का दर्जा दिया और राष्ट्रपिता महात्मा जोतिबा फुले को भुला दिया गया। माता सावित्रीबाई फुले को इतिहास से गायब कर दिया गया।
राष्ट्रीय नेता बाबा साहब डाक्टर भीमराव अंबेडकर को दलितों का नेता बना दिया और ब्राह्मणों में मान्य नेता जवाहरलाल नेहरू को राष्ट्रीय नेता। इसी तरह, शोषितों की लड़ाई लडऩेवाले शहीद जगदेव प्रसाद को अराजक का दर्जा दिया गया और सैंकड़ों निहत्थे शोषितों की नृशंसतापूर्वक हत्या करने वाले जघन्य अपराधी ब्रह्मेश्वर मुखिया को शहीद का खिताब। ऐसे हजारों उदाहरण हो सकते हैं। श्रीकृष्णसिंह को बिहार का निर्माता कहा, जन-नायक कर्पूरी ठाकुर को पिछड़ों का नेता। आक्रमणकारी आर्यों ने अपने नायकों को सुर, देव और भगवान कहा और मूलनिवासियों के नायकों को असुर और राक्षस कहा।
इन्हीं शक्तियों ने शिक्षक दिवस पूर्व राष्ट्रपति राधाकृष्णन, जिनका शिक्षा के क्षेत्र में कोई योगदान नहीं था, के जन्म दिवस पर कर दिया। वास्तव में शिक्षक दिवस माता सावित्रीबाई फुले के जन्मदिन पर आयोजित किया जाना चाहिए, जिन्होंने देश में महिलाओं के लिए पहली पाठशाला खोली थी।
हमें विस्मृत इतिहास के पन्नों में से अपने नायकों को खोजना होगा और सम्मान के ऊंचे आसन पर बैठाना होगा। हमें साफ-साफ ऐलान करना होगा कि हमारा राष्ट्रपिता गांधी नहीं, महात्मा फुले है। शिक्षक दिवस, राधाकृष्णन का जन्मदिन नहीं, माता सावित्रीबाई फुले का जन्मदिन (3 जनवरी) है। प्रतिक्रियावादी तिलक नहीं, महान क्रांतिकारी और विचारक भगतसिंह हमारे राष्ट्रनायक हैं। आज जरूरत है नये ढ़ंग से इतिहास को पढऩे और गढऩे की; नई संस्कृति – मेहनतकशों की संस्कृति – का निर्माण करने की। हमें अपने नायकों के लिए नये शब्द गढऩे होंगे।
फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित
A leadership that does not honor facts must give way to the one which is responsive to the masses.