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महाबली की भूमि पर हिंसात्मक ब्राह्मणीकरण

पट्टनम की क्षतिग्रस्त ग्रेनाइट बौद्ध प्रतिमा, उस फासीवादी हिंसा का प्रतीक है, जिसका इस्तेमाल आज भी सवर्ण, छोटे-छोटे समुदायों व भारत के अछूतों के खिलाफ करते हैं

हम त्यागें वामन या बौने ब्राह्मण की विचारधारा

और वापस लाएं जननेता महाबली का न्यायपूर्ण शासन

– सहोदरन अय्यप्पन के “ओणम गीत” से

 

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क्षतिग्रस्त पद्मासन आकृति जिसे अब पट्टनम के नीलेश्वरम शिव मंदिर में यक्षी के तौर पर पूजा जाता है

दश का सबसे पुराना मिशनरी धर्म, थेरवाद बौद्ध धर्म, आज के केरल या चेर राज्य-जो प्राचीन तमिल देश या तमिलाकम का हिस्सा था-में अशोक महान के मिशनरियों के ज़रिए तीसरी सदी ईसा पूर्व में पहुंचा। तमिलाकम में चेर, चोल व पाण्ड्य साम्राज्य शामिल थे। यह सभ्य व नैतिक संस्कृति, केरल में 16वीं सदी तक बनी रही, जिसके बाद ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म-जिसका तमिलाकम में 10वीं सदी ईसवी के बाद से तेज़ी से उभार हुआ-के उन्मादी शैव व वैष्णव पंथों ने जबरिया धर्मपरिवर्तनों व हिंसा के ज़रिए उसे समाप्त कर दिया। इसके लिए कुछ हद तक थेरवादी व तांत्रिक बौद्ध धर्म का उदारीकरण भी जिम्मेदार था, जिसके कारण क्रमश: महायान व वज्रयान नामक व्यापक व लोकप्रिय आंदोलन उभरे। परंतु केरल में आज भी बौद्ध प्रतिमाएं, कला व वास्तुकला जीवित है, भले ही उसका हिंदुकरण कर दिया गया हो और उसका बौद्ध चरित्र अब उतना स्पष्ट न रह गया हो। बुद्ध धर्म और उसके ग्रंथों की भाषा पाली का केरल की भाषा व संस्कृति पर गहरा प्रभाव है।

श्रमण संस्कृति पर हमले

सन् 2012 में एण्र्णाकुलम जिले के पट्टनम में टूटी-फूटी प्रतिमाओं के एक ढेर से बुद्ध की मूर्ति के कुछ टुकड़े मिले थे। लोग, सामान्यत: अब इन खंडित मूर्तियों की आराधना नाग यक्षी व नाग राजा के रूप में करते हैं परंतु ध्यानपूर्वक देखने पर यह पाया गया कि ये विभिन्न मूर्तियों के टुकड़ों को मिलाकर बनी थीं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण थी पद्मासन की मुद्रा में एक आकृति। सन् 2012 के 26 अक्टूबर को मैं पट्टनम पहुंचा और इस खंडित प्रतिमा का अध्ययन किया। उसे ग्रेनाइट के एक चबूतरे पर रखा गया है और इस पर जल चढ़ाने की व्यवस्था है। इस प्रतिमा के गढऩे के तरीके, पत्थर के रंग और उसकी बुनावट से यह स्पष्ट था कि वह दक्षिण कुट्टानाड की आद्रभूमि के मावेलीकरा, करूमडी, भरानीकावू, पल्लिकल व कयमाकुलम में पाई गई मूर्तियों से मिलती-जुलती थी। इस क्षेत्र में 16वीं सदी तक बौद्ध धर्म का बोलबाला था, जिसके बाद ब्राह्मणवादी हिंदू आतंकियों ने बौद्ध धर्म को वहां से पूरी तरह उखाड़ फेंका।

पद्मासन में बैठे बुद्ध की मूर्ति को शायद कमर के ऊपर से तोड़ा गया था और यह एण्र्णाकुलम जिले से मिली एक मात्र बौद्ध प्रतिमा है। यहां यह बताना समीचीन होगा कि एण्र्णाकुलम जिले के पैरमबवूर से पूर्व दिशा में कुछ मील दूर स्थित चट्टानों से बने कालि-मंदिर की बाहरी दीवार पर बने जिन की “बा-रिलीफ” (ऐसी कलाकृति जो धरातल से थोड़ी उभरी हुई हो) भी आधी टूटी हुई है (पी.के. गोपालकृष्णन जैन धर्मम् केरलाथिल प्रभात 1992)। पट्टनम में मिले प्रतिमाओं के टुकड़े, हिंसक कब्ज़े की ओर संकेत करते हैं। पहले मूर्तियों को तोड़ा गया और फिर तालाब में फेंक दिया गया जहां वे सदियों तक मटमैले पानी में पड़ी रहीं। पानी में इतने समय तक पड़े रहने के कारण, पत्थर में जो परिवर्तन आए और उस मूर्ति को गढऩे के तरीके से यह स्पष्ट है कि वह केरल की सबसे पुरानी बौद्ध प्रतिमाओं में से एक है। कारूमडी व मवेलिकरा की मूर्तियों की तरह, पट्टनम में पाई गई बौद्ध प्रतिमा के टुकड़े, सातवीं या आठवीं सदी के हैं। इलामकुलम, पीसी एलेक्जेंडर, ए अय्यप्पन व एसएन सदासिवन जैसे विशेषज्ञ, कुट्टनाड बुद्ध को केरल में थेरवाद या हीनयान के शुरूआती दौर का होना बताते हैं। (ए. अयप्पन, द स्टोरी ऑफ बुद्धिज्म: विद स्पेशल रिफ रेंस टू साउथ इंडिया मद्रास गवर्नमेंट म्यूजियम, 1960)

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पद्मासन प्रतिमा व उसके आधार का पृष्ठभाग

इडापल्ली (एण्र्णाकुलम जिला) व वडानापल्ली (तृश्शूर जिला) के बीच ऐसे कई स्थान हैं, जिनके नाम के अंत में “पल्ली” है। यह एक पाली शब्द है, जिसका अर्थ है शमण (श्रमण) पवित्र स्थल (पुत्थुशेरी रामचंद्रन केरला, चरित्रदींत अतिशना रेखगल, केरल भाषा इंस्टीट्यूट, 2007)। कुछ स्थानों पर पल्ली को धीरे-धीरे ”पिल्ली’’ में बदला जा रहा है। ”पिल्ली’’ शब्द पाली में नहीं है और यह एक कुटिलतापूर्वक गढ़ा हुआ नया शब्द है। यह उस भाषायी हिंसा का प्रतीक है, जिसका इस्तेमाल वर्चस्ववादी शक्तियां, भाषा व स्थानीय इतिहास पर एकाधिकार जमाने के लिए करती हैं। केरल में स्थानों के नाम का “पिल्लीकरण” दरअसल छुपे हुए सवर्ण हिंदू एजेंडे का भाग है, जो कि इस क्षेत्र से प्राचीन बौद्ध और जैन विरासत की निशानियों को मिटा देना चाहता है (अजय शेखर, ”पिल्लीवल क्ररिक पेटन पल्लीकल’’, पच्चकुदीर मैगजीन, अगस्त 2010)।

केरल में अब तक बुद्ध की जो मूर्तियां मिली है, उनमें से अधिकांश कोल्लम व आलप्पुष़ा जिलों से मिली है। कोडनगल्लूर या मुजिऱी के पास स्थित कोट्टापुरम, जो कि तृश्शूर जिले के दक्षिणी कोने में स्थित है, में कुछ दशक पहले बुद्ध की मूर्ति मिली थी (अजु नारायणन, अजय शेखर, ”बुद्ध ने पेडिकुन्नदारु, मादृभूमि वीकली, 2 दिसंबर, 2012)। इसी तरह की बुद्ध की कई मूर्तियां तमिलनाडु के त्यागनूर, अर्रियालूर, नागपट्टनम व अन्य इलाकों से भी मिली हैं, विशेषकर मदुरई व तिरूनेलवेली जिलों से (के. दामोदरन, तमिलनाडु, आर्कियलॉजिकल पर्सपेक्टिव डिपॉर्टमेंट ऑफ ऑर्कियलॉजी, तमिलनाडु सरकार, 2000)। त्यागनूर में बुद्ध एक खुले खेत में विराजमान हैं। इस मूर्ति का निर्माण कुशल मूर्तिकारों या शमण साधुओं ने कम से कम 1000 साल पहले किया था। तिरूचिरापल्ली से लेकर थंजावूर व वहां से लेकर चिदम्बरम और पुहार के कावेरी नदी के डेल्टा में स्थित पूरे इलाके में बौद्ध धर्म का वर्चस्व था, जो कि वहां मिली कांसे व ग्रेनाइट की प्रतिमाओं से जाहिर है। सन् 1960 के दशक में मद्रास संग्रहालय के तत्कालीन अधीक्षक प्रोफेसर ए. अय्यप्पन ने थंजावूर के बड़े मंदिर में बौद्धकालीन अवशेषों की पहचान की थी।

यह महत्वपूर्ण है कि पट्टनम में प्रतिमा के जो टुकड़े मिले हैं, वे मंदिर के तालाब में पड़े हुए थे। ऐसा ही मावेलीकरा, कायमकुलम, पल्लिकल व करूमाडी के मामले में हुआ। केरल में सभी बौद्ध प्रतिमाएं या तो वर्तमान सवर्ण मंदिरों के तालाबों या धान के खेतों या उनके आसपास की आद्र भूमि में मिलीं हैं। ऐसा लगता है कि इन प्रतिमाओं को किसी हमले में उखाड़ कर तालाबों और दलदलों में फेंक या गाड़ दिया गया था। केरल के शमण इतिहास को पाताल में धकेल दिया गया, ठीक वैसे ही जैसे मावेली या महाबली के साथ किया गया था।

महाबली/मावेली की मानवतावादी आत्मा

मवेली, जो बुद्ध धर्म की समतावादी और मानवतावादी आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं, को लोभी ब्राह्मण बौने वामन ने पाताल में धकेल दिया था। वामन की पूजा विष्णु के अवतार के रूप में की जाती है। जहां त्रिकाकरा के सवर्ण मंदिर (जो रामचंद्रन के अनुसार आठवीं सदी तक जैन व बौद्ध केंद्र था) में वामन की पूजा की जाती है, वहीं मावेली केवल लोगों के दिलों में जिंदा हैं। श्रेष्ठि वर्ग द्वारा ओणम पर कब्ज़ा ज़माने की कोशिश का सांस्कृतिक स्तर पर प्रतिरोध करने के लिए 20वीं सदी की शुरूआत में सहोदरन अय्यप्पन ने अपनी कविता “ओणपट्टू” या ओणम का गीत के जरिए मावेली की याद को ताज़ा करने की कोशिश की थी। इस कविता में वे सभी केरलवासियों का आह्वान करते हैं कि वे “त्यागें वामन या बौने ब्राह्मण की विचारधारा को और वापस लाएं जननेता माबली का न्यायपूर्ण शासन” (अजय शेखर, सहोदरन अय्यपन, टुवर्डस अ डेमोक्रेटिक फ्यूचर, अदर बुक्स, 2012)।

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पट्टनम पद्मासन प्रतिमा, मूर्तियों के इन चार टुकड़ों में से एक है

पट्टनम में मिले प्रतिमा के टुकड़े किसी जैन तीर्थंकर की प्रतिमा के नहीं हो सकते क्योंकि इनके आधार में लंछन (जानवरों के चित्र) या चैत्य का पेड़ नहीं है, जो कि हर तीर्थंकर से जुड़े हुए थे। अपनी नई पुस्तक “जैनामाथम केरालथिल” (वरियर 2012: 16) में प्रोफेसर एम.आर. राघव वरियर ने विभिन्न जिनों और उनसे जुड़े लंछनों, पेड़ों व यक्षियों की विस्तृत सारणी दी है। इसके अलावा, प्रतिमाओं के निर्माण का तरीका हाथ-पैरों की दिशा और बैठने की मुद्रा से ये मूर्तियां, मवेलीकारा, कारूमड्डी व भारानीकाऊ की मूर्तियों से काफी मिलती-जुलती लगती हैं। पीसी एलेक्जेंडर व एसएन सदासिवन ने केरल में बौद्ध धर्म के इतिहास पर अपनी अलग-अलग पुस्तकों में यह तर्क दिया है कि दक्षिण केरल की ये बौद्ध मूर्तियां, प्रतिमा सृजन व उत्कीर्णन की अनुराधापुर शैली के अनुरूप हैं (पी.सी. एलेक्जेंडर, बुद्धिज्म इन केरला, अन्नामलई यूनिवर्सिटी, 1984, एस.एन. सदासिवन, अ सोशल हिस्ट्री ऑफ इंडिया, एपीएच – 2007)।

ग्रेनाइट का कालापन और उसका घनत्व और प्रतिमाओं के उत्कृष्ट तैलीय सौम्य स्वरूप से ऐसा लगता है कि ये पट्टनम प्रतिमाएं, कोल्लम व आलप्पुषा और सुदूर दक्षिण में स्थित श्रीलंका में मिली प्रतिमाओं जैसी हैं।

दक्षिण का हिंसक ब्राह्मणीकरण

शैव हिंदुत्व में लिंग को दिया गया महत्व इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। किसी स्तूप या जिन या बुद्ध की प्रतिमा को लिंग का आकार देना बहुत आसान है। दक्षिण भारत के सभी मंदिरों, जिन्हें पूर्व मध्यकाल में हिंदू मंदिरों में बदल दिया गया में प्रतिमाओं में किए गए इन परिवर्तनों की निशानियां देखी जा सकती हैं। ओडिसा में भी यह देखा जा सकता है। सतही तौर पर समतावादी भक्तिपंथ के शैव और वैष्णव आंदोलनों ने इस कार्य में सबाल्टर्न ऊर्जा का भी इस्तेमाल किया। ब्राह्मणवाद ने इन सतही तौर पर लोकलुभावन धाराओं का इस्तेमाल, हिंदू विश्व दृष्टि को स्थापित करने के लिए किया। अपार, जो जैन धर्म को त्यागकर शैव बन गया और संबंधार, जो जैन विरोधी था, ने मदुरई में आठवीं सदी में ब्राह्मणवादी हिंसक तत्वों को हज़ारों जैन मुनियों का कत्ल करने के लिए उकसाया था (रामचंद्रन 2007)।

Boddhisatva idol recovered from Ayyanchira pond in Avittatur near Irinjalakuda in late 2014.
सन् 2014 के अंत में इरिनजालकुड़ा के नज़दीक अविश्रतुर के अय्यनचिरा तालाब से मिली बोधिसत्व की प्रतिमा

पीके गोपाल कृष्णन, जिन्होंने केरल के सांस्कृतिक इतिहास पर बहुत कुछ लिखा है, ने वैगई नदी के किनारे 8,000 जैन मुनियों की हत्या किए जाने की घटना का जिक्र किया है और इस बर्बरता का प्रतीकात्मक प्रदर्शन मदुरई के मीनाक्षी मंदिर के वार्षिक समारोह जिसे “कजुबेट्टी त्रुविजा” कहा जाता है, में भी किया जाता है (गोपालकृष्णन 1992)। यह मानना गलत नहीं होगा कि केरल में भी पूर्व-मध्यकाल में इसी तरह के कत्लेआम हुए होंगे, जिनके कारण यहां की शमन संस्कृति समाप्त हो गई और संस्कृत व मणिपृवलम के प्राधान्य वाली सवर्ण श्रेष्ठि संस्कृति को इस क्षेत्र पर लाद दिया गया। पेरियार नदी के किनारे पट्टनम से कुछ मील पूर्व में स्थित अलुवा में अवर्णों के बीच बौद्धों को प्रताड़ित किए जाने की कई कथाएं प्रचलित हैं। स्थानीय किवंदतियों के अनुसार, अलुवा का नाम उस बड़े लकड़ी या धातु के भाले के नाम पर पड़ा, जिसका इस्तेमाल शमण विचारधारा वाले लोगों के शरीर को कमर से लेकर सिर तक चीरने के लिए किया जाता था। आज भी इस तरह के ज़मीन में गड़े भालों का उपयोग नारियल को छीलने के लिए किया जाता है और इसे मध्य केरल में अलावा या अलावांग कहा जाता है। इस भाले से मानव वध करने को मध्यकाल में “चित्रावधम” (असामान्य मृत्युदंड) कहा जाता था (वेलायुधन पणिकेसरी, केरल चरित्रदींत उल्लारकलिलेकु, करेंट, 2012)।

पट्टनम में पाई गई पद्मासन मुद्रा की क्षतिग्रस्त प्रतिमा केरल के इतिहास और उसके सांस्कृतिक यथार्थ की प्रतीक है। इससे यह साबित होता है कि पूर्व-मध्यकाल में ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म व उसकी शैव व वैष्णव सेनाओं ने केरल की नैतिक व समतावादी आध्यात्मिक परपंराओं और उसके पवित्र स्थलों को हिंसा के इस्तेमाल से परिवर्तित किया। मरावार, कल्लार व अन्य योद्धा वंशों के गुर्गों ने बौद्ध धर्म और केरल की अहिंसक संस्कृति को नष्ट कर उसकी सभी निशानियां खत्म कर दीं। वे अपने भूदेवों के प्रति गुलामों से भी ज़्यादा वफादार थे।

पट्टनम की क्षतिग्रस्त ग्रेनाइट बौद्ध प्रतिमा, उस फासीवादी हिंसा का प्रतीक है, जिसका इस्तेमाल आज भी सवर्ण, छोटे-छोटे समुदायों व भारत के अछूतों के खिलाफ करते हैं। पट्टनम बुद्ध हमें यह संदेश देते हैं कि हमें सांस्कृतिक हमलावरों, मूर्ति भंजकों व इमारतों को नष्ट करने वालों की कुत्सित रणनीतियों के प्रति सावधान रहना है। दिलचस्प बात यह है कि पट्टनम, चेराई के काफी नज़दीक है, जहां नारायण गुरू, सहोदरन अय्यप्पन, सीवी कुन्नीरमन व मितावड़ी सी. कृष्णन ने 20वीं सदी के प्रारंभ में केरल में अत्यंत ओजस्वी नवबौद्ध आंदोलन शुरू किया था। यह उस सांस्कृतिक संघर्ष का भाग था, जिसे अब केरल नवजागरण कहा जाता है। नारायण गुरू ने आध्यात्मिक व धार्मिक क्षेत्र में ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद को 1898 में अरूवीपुरम स्थापना और 1911 में वरकला में सारदा अभिषेक के ज़रिए प्रतीकात्मक व ज़ोरदार चुनौती दी।

पट्टनम की क्षतिग्रस्त बौद्ध प्रतिमा कला का अमर प्रतीक भी है। वह हमें दक्षिण भारत के सांस्कृतिक इतिहास, मूर्तिकला, समाज व राजनीति के बारे में बहुत कुछ बताती है। वह आंतरिक व बाहरी दोनों किस्म के हमलों और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष व प्रतिरोध की याद दिलाती है। यह एक नैतिक व आध्यात्मिक कलाकृति है, जिसका राजनैतिक, सामाजिक महत्व है और जो सांस्कृतिक मुक्ति की बात कहती है। मानवता व विशेषकर केरल की विरासत के इस अनमोल खजाने को आम लोगों व चुनी हुई सरकारों को आने वाली पीढिय़ों के लिए सुरक्षित रखना चाहिए। जैसा कि भारत के नवबौद्ध डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने हमें याद दिलाया था, जो लोग इतिहास नहीं जानते वे इतिहास नहीं बना सकते।

यह लेख एसएस यूनिवर्सिटी ऑफ संस्कृत, कलाडी, केरल में बौद्ध धर्म पर राष्ट्रीय सेमिनार में पढ़े गए शोधपत्र का संपादित संस्करण है

ओणपट्टू – ओणम का गीत

वर्तमान में ओणम का त्योहार, मध्य और दक्षिण केरल में वर्षा ऋतु के समाप्त होने और नए वर्ष की शुरूआत पर फसल कटने के महोत्सव बतौर मनाया जाता है। यद्यपि ओणम, मलाबार (उत्तरी केरल) में भी मनाया जाता है तथापि वहां नए साल की शुरूआत एक अन्य त्योहार, विशु, से मानी जाती है। यह दिलचस्प है कि ओणम, श्रीलंका में भी नए साल के त्योहार के रूप में मनाया जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि केरल और श्रीलंका में सांस्कृतिक निकटता है और उनका सांझा इतिहास है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो ओणम की शुरूआत केरल में बौद्धकाल के अंत और हिंदू ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था या वर्णाश्रम धर्म के संस्थागत स्वरूप ग्रहण करने के साथ हुई।

Onam parade with Mahabali and Vaman 'dwarf'ओणम, आवणम या सावणम (श्रावणम या श्रामनम) का अपभ्रंश है। सावणम दूसरे अशोक के नाम से प्रसिद्ध बौद्ध सम्राट कनिष्क द्वारा स्थापित शक कैलेंडर का भाग है। संगम साहित्य में आठवीं या दसवीं शताब्दी तक, पूरे दक्षिण भारत में ओणम या सावणम मनाए जाने के संदर्भ मिलते हैं। यही वह काल था जब शैववादियों और वैष्णववादियों, जो कि ब्राह्मणवाद के मुखौटे थे, ने महायान तीर्थस्थानों पर कब्ज़ा जमा लिया और जैन, अजीवक व बौद्ध भिक्षुओं का संहार कर, हिंदू धर्म की स्थापना की। नास्तिक व नृगंथ भिक्षुओं ने वेदों, पुरूषसूक्त और वर्ण व्यवस्था को चुनौती दी थी। बौद्ध भिक्षुणियों के साथ बलात्कार हुए और उन्हें मंदिरों में परिवर्तित कर दिए गए इन पंथों के पवित्र स्थलों में देवदासियां बना दिया गया। इस काम में पुरोहितों की मदद शैव कापालिकों के उन्मत गिरोहों ने की, जो हत्याएं, बलात्कार व अकल्पनीय लैंगिक बर्बरता करने में सिद्धहस्त थे। उनके प्रतीकों को आज भी कुंभ मेलों व अन्य उत्सवों पर धार्मिक प्रतीकों के रूप में प्रदर्शित किया जाता है।

ओणम, केरल के बौद्धकाल का प्रतीक है और उस युग की पौराणिकी से जुड़ा हुआ है। ओणम पर ओणकोडी या नई, दूधिया धोती पहनी जाती है, जो कि उस पीले परिधान का प्रतीक है, जिसे नवबौद्धों को संघ में प्रवेश के अवसर पर भेंट किया जाता था। ओणम पर फूलों से जो गोल कालीन बनाया जाता है वह धम्म चक्र का प्रतीक है। इन फूलों के बीच ओणाटप्पन की पिरामिड के आकार की प्रतिमा रखी जाती है, जो कि बौद्ध स्तूप की प्रतीक है। उसे लिंग का आकार देने के लिए उसकी लंबाई थोड़ी बढ़ा दी गई है। यह उत्तर-बौद्धकाल में शैव प्रभाव के चलते हुआ। कई स्थानों पर फूलों की सजावट आठ सीढिय़ों के आकार में की जाती है, जो बुद्ध के अष्टांग मार्ग की ओर संकेत करता है।

Sahodaran Ayyappan
सहोदरन अय्यप्पन

ओणम उस दिन मनाया जाता है जिस दिन केरल के न्यायप्रिय व समतावादी राजा मावेली या महाबली की हार हुई थी। महाबली को ब्राह्मणों द्वारा असुर कहा जाता है। विष्णु का अवतार माने जाने वाले लोभी वामन ने महाबली को पाताललोक में ढकेल दिया था। यह वह दिन है जब महाबली अपनी प्रजा से मिलने आते हैं। जहां उच्च जाति के हिंदू इसे विष्णु की विजय और उनके जन्मदिवस के तौर पर मनाते हैं वहीं बहुजन, तिरूओणम या पवित्र ओणम मनाते हैं। जो कि महाबली के लौटने का त्योहार है। तिरू या पवित्र उपसर्ग, श्रमण परंपरा, विशेषकर बौद्ध धर्म से जुड़ाव का प्रतीक है।

एक मलयालम लोकगीत कहता है कि मावेली एक न्यायप्रिय राजा था और उसके राज्य में जातिगत पदानुक्रम नहीं था। इससे स्पष्ट है कि केरल में एक समय वर्णाश्रम (जातिप्रथा) से मुक्त समाज या बौद्ध समाज था जिसमें जातिगत व लैंगिक ऊँचनीच नहीं थे। सबाल्टर्न इतिहासविदों का यह मत है कि इस गीत की रचना दलित कवि व शमन पकनार ने 16वीं सदी में की थी। इस गाथागीत को 20वीं सदी के सुधारवादी कवि और सांस्कृतिक कार्यकर्ता सहोदरन अय्यप्पन ने नया स्वरूप दिया। उनके गीत की शुरूआत पकनार की मूल पंक्तियों से होती है परंतु बाद में वे इसमें जातिवाद व ब्राह्मणवाद में जकड़ी केरल और भारत की राजनीति की कटु आलोचना करते हैं। इस गीत को ओणपट्टू या ओणम का गीत कहा जाता है।

इस गीत में सहोदरन बताते हैं कि किस प्रकार ब्राह्मणवादियों ने न्यायप्रिय बौद्ध राजा मावेली को धोखा देकर उसके राज्य पर कब्ज़ा कर लिया। ओणम का गीत उस ब्राह्मणवादी षडयंत्र का खुलासा करता है, जिसने आठवीं और बारहवीं सदी के बीच केरल में जातिवादी व सामंती हिंदू व्यवस्था की स्थापना की। वे इसके कारण हुए सांस्कृतिक विनाश और नैतिक दुर्गति की चर्चा भी करते हैं। ब्राह्मणवाद को हिंसा के सहारे स्थापित किया गया और इस व्यवस्था का सबसे घृणास्पद पक्ष था “पवित्रता”, ”अपवित्रता” व “अछूत” की अवधारणाओं की स्थापना। सहोदरन के ओणपट्टू के अंत में लोगों का आह्वान किया गया है कि वे ब्राह्मणवादी विचारधारा को त्यागें और महाबली के न्यायपूर्ण, समतावादी राज की पुनस्र्थापना करें।

फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

डॉ. अजय एस. शेखर

डॉ. अजय एस. शेखर कलाडी, केरल में स्थित एसएस यूनिवर्सिटी ऑफ संस्कृत में अंग्रेजी के सहायक प्राध्यापक और ''सहोदरन अय्यप्पन: टूवर्डस ए डेमोक्रेटिक फ्यूचर" के लेखक हैं। हाल में केरल की संस्कृति और सभ्यता के बौद्ध आधार पर पुत्तन केरलम शीर्षक से मलयालम में उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई है

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