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‘आम सहमति’ के झमेले में फंसा नेपाल का प्रस्तावित संविधान

"क्या प्रधानमंत्री मोदी परोक्ष रूप से यह कह रहे थे कि नए संविधान को बहुजन बहुसंख्यकों या दलितों, आदिवासियों, ओबीसी व मुसलमानों के अधिकारों की गारंटी नहीं देनी चाहिये?"

विश्वेन्द्र पासवान, नेपाल की 601-सदस्यीय संविधान सभा का दलित चेहरा हैं। उनके अथक प्रयासों से, देश के 74.2 प्रतिशत बहुजन समुदाय के लिए जो विशिष्ट प्रावधान संविधान के मसौदे में किए गए थे, उनमें से अनेक महत्वपूर्ण प्रावधानों को हटा दिया गया है। आश्चर्यजनक यह है कि ऐसा, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दूसरी नेपाल यात्रा के बाद हुआ, जिसमें उन्होंने ”आम सहमति” से संविधान निर्माण करने पर जोर दिया। जब पासवान, जो बहुजन शक्ति पार्टी के अध्यक्ष और मानिंद आम्बेडकरवादी हैं, को लगा कि उनकी चिंताओं को उनके देश में कोई तवज्जो नहीं दे रहा है तो वे भारत के बहुजन समुदाय का समर्थन हासिल करने के लिए, उत्तर भारत के विभिन्न इलाकों के दौरे पर निकल पड़े। दिल्ली में उनके प्रवास के दौरान फारवर्ड प्रेस केवेब संपादक अनिल वर्गीज ने उनसे बातचीत की। चर्चा के सम्पादित अंश प्रस्तुत हैं –

11050254_10204544466482244_6870438745548786600_n copyजो संविधान तैयार हो रहा है, उसके बारे में आपकी मुख्य चिंताएं क्या हैं?

नया संविधान बनाने की यह प्रक्रिया, बड़ी कुर्बानियों और लम्बे संघर्ष के बाद शुरू हुयी है। यह संविधान देश और नागरिकों का हितकारी होना चाहिए। इसे नेपाल के आम आदमी के हितों का संरक्षण करने वाला होना चाहिए, फिर वह चाहे हिमालय के पर्वतीय इलाकों का रहने वाला हो, तलहटी का या तराई क्षेत्र का। परन्तु जो मसविदा प्रस्तुत किया गया है, वह ऐसा नहीं है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इस संविधान का कुछ दिनों, महीनों या सालों में असफल हो जाना अवश्यंभावी है। यह केवल नए विद्रोहों को जन्म देगा।

 

आपको ऐसा क्यों लगता है कि यह संविधान असफल होगा?

सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि यह संविधान, नेपालियों की भावनाओं के विपरीत है। इसमें सभी पक्षों और सभी इलाकों के लोगों की भावनाओं का ख्याल नहीं रखा गया है। यह लोगों को समुचित अधिकार नहीं देता। देश में आज जिस तरह की भेदभाव की व्यवस्था प्रचलित है, यह उसे कायम रखने वाला है। क्या राष्ट्र का यह कर्तव्य नहीं है कि वह अपने नागरिकों के बीच भेदभाव रोके?

 

बहुजनों की सोच क्या है?

संविधान का यह मसविदा, बहुसंख्यक बहुजन नेपालियों के हित में नहीं है और कोई भी ऐसा संविधान, जो बहुसंख्यकों के हितों के विरूद्ध हो, न तो लंबे समय तक चल सकता है और ना ही स्वीकार्य हो सकता है। प्रस्तावित संविधान, उन समाजों, समुदायों, क्षेत्रों व भाषायी समूहों – जिन्हें सत्ता के मुख्य केंद्रों में कभी भागीदारी नहीं मिली, का सशक्तिकरण नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में न तो देश समृद्ध बन सकेगा और ना ही प्रजातंत्र मजबूत और स्थाई होगा। इसलिए, प्रजातांत्रिक संविधान तैयार करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह प्रजातांत्रिक सिद्धांतों और प्रक्रियाओं पर आधारित हो व ऐसी व्यवस्था का निर्माण करे जो प्रजातांत्रिक मूल्यों के अनुरूप हो। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक असंतोष और असहमति के स्वर उठते रहेंगे।

 

क्या कारण है कि संविधान सभा के 601 सदस्य, नेपाल के लोगों के हितों का संरक्षण नहीं कर पा रहे हैं?

सभी 601 व्यक्तियों के बारे में मैं ऐसा नहीं कहूंगा। मैं पूरे सम्मान से यह कहा चाहता हूं कि संविधान सभा में कुछ दल और उनके कुछ नेता, जातिवाद के मुद्दे पर एकसा सोचते हैं। कुछ लोग एकाधिकारवादी हैं और चूंकि वे अपना एकाधिकार कायम रखना चाहते हैं, इसलिए संविधान सभा में आम बहुसंख्यक बहुजनों का प्रतिनिधित्व होने के बावजूद भी, संविधान में उनके लिए समुचित प्रावधान नहीं किए गए हैं। यह संविधान, सामाजिक न्याय के खिलाफ है और इसलिए इसका बहिष्कार हो रहा है, विरोध हो रहा है और इसकी प्रतियां सार्वजनिक रूप से जलाईं और फाड़ी जा रही हैं।

 

संविधान सभा के जिन सदस्यों के विचार मिलते हैं, वे एकजूट होकर इस प्रवृत्ति का विरोध क्यों नहीं करते?

बहुजन बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य विभिन्न पार्टियों में बंटे हुए हैं। वे अपनी पार्टियों के नेताओं के गुलाम हैं। संविधान निर्माण में उनकी भूमिका शून्य रही है। मुझे तो ऐसा लगता है कि संविधान निर्माण के दौरान, उन्हें या तो अपनी राय रखने ही नहीं दी गई या वे स्वयं ही अपनी बात कहना नहीं चाहते थे। उन्हें संविधान निर्माण की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी करनी चाहिए थी। उन्हें सभा के समक्ष अपनी बात रखनी चाहिए थी परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया।

बहुजन डायवर्सिटी मिशन द्वारा नई दिल्ली के कांस्टिट्यूशन क्लब में आयोजित सेमिनार को संबोधित करते हुए आपने कहा था कि संविधान सभा की पूरी कार्यवाही मात्र कुछ लोग चला रहे हैं और केवल उनके विचारों को महत्व दिया जा रहा है। आपके अनुसार ये लोग हैं पुष्पकमल दहल (अध्यक्ष माओवादी पार्टी), केपी शर्मा ओली, अध्यक्ष कम्युनिस्ट पार्टी (यूएम-एल) व प्रधानमंत्री सुशील कोईराला, जो कि नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं।

यह बात बिलकुल सही है। इन तीनों को छोड़कर किसी ने भी निर्णय लेने की प्रक्रिया में कोई योगदान ही नहीं दिया। ये नेता अपनी पार्टी के सदस्यों को धमकाकर और लालच देकर अपने नियंत्रण में रखते हैं। संविधान का निर्माण इस तरह से हो रहा है। जो मसविदा तैयार हुआ है, वह सुशील कोईराला, केपी शर्मा ओली और पुष्पकमल दहल के बीच हुए समझौते पर आधारित है और इसमें बहुजन बहुसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है। यद्यपि यह संविधान बहुजन बहुसंख्यकों को उनके अधिकार नहीं देता और इसका विरोध भी हुआ है, तथापि ये तीनों अड़े हुए हैं। उन्होंने इस मसविदे को सभा से पारित करवाकर आम जनता के लिए जारी भी कर दिया है। अगर संविधान केवल तीन लोगों की मर्जी से लिखा जायेगा तो वह लंबे समय तक चलेगा नहीं।

संविधान तो बनना चाहिए। इसके निर्माण की प्रक्रिया रूकनी नहीं चाहिए परंतु पुष्पकमल दहल, केपी शर्मा ओली और सुशील कोईराला को यह समझना चाहिए कि वे एक ऐसा संविधान नहीं बना सकते, जो वंचित समुदायों और समाजों के हितों के विरूद्ध हो।

 

ये तीनों नेता अलग-अलग पार्टियों के हैं और इन पार्टियों की एकदम अलग-अलग विचारधाराएं हैं। फिर वे एक कैसे हो गए?

तीनों का एक ही डीएनए है। उनका लक्ष्य एक ही है।

 

एक ही डीएनए से आपका क्या अर्थ है?

वे एक ही नस्ल के हैं।

 

नस्ल अर्थात ब्राह्मणवादी?

हां। वे इसलिए एक हुए हैं ताकि वे सत्ता के लिए मोलतोल कर सकें। वे यह भूल गए हैं कि उन्हें देश को उस परिवर्तन की ओर ले जाना है, जिसकी लोगों को आवश्यकता है।

 

ऐसा क्यों हुआ?

क्योंकि वे ऐसा संविधान बनाना ही नहीं चाहते जो परिवर्तनकारी हो। केवल यह कहने से काम नहीं चलेगा कि नेपाल एक समावेशी व धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र और प्रजातंत्र बनेगा और लोगों को उनके अधिकार मिलेंगे। केवल शाब्दिक मायाजाल से नेपाली नागरिकों को उनके अधिकार मिलने वाले नहीं हैं। ये तो सिर्फ आदर्श हैं। ये आदर्श आपकी कल्पना में, आपकी भावना में तो हो सकते हैं परंतु ये आदर्श नेपाली लोगों की रोजाना की जिंदगी को बेहतर नहीं बना सकते। अभी तक तो यही होता आ रहा है कि शासक वर्ग यथार्थ को पर्दे के पीछे छुपाता आया है। वे पूरी दुनिया से झूठ बोलते रहे, धोखा देते रहे। उन्होंने कभी उन नागरिकों की बात नहीं कही जो कष्ट भोग रहे हैं, जिनका शोषण हो रहा है, जो दमित हैं, जिन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है और जिन्हें उनके अधिकार नहीं मिल रहे हैं। वे यही सब भविष्य में भी करना चाहते हैं। वे प्रजातांत्रिक सिद्धांतों और प्रक्रियाओं की अवहेलना कर, तथाकथित प्रजातंत्र का निर्माण करना चाहते हैं। यही कारण है कि इस सबका भारी विरोध हो रहा है।

 

आपकी मांगें क्या हैं?

हमारी पहली मांग है नेपाल के समाज के वंचित तबकों के लिए सामाजिक न्याय। दलित, ओबीसी, अल्पसंख्यक व गरीब वर्गों को राज्य के सभी क्षेत्रों में, उनकी आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। दूसरे, संविधान में डाइवर्सिटी अधिनियम का विशेष प्रावधान होना चाहिए। तीसरे, भ्रष्टाचारियों, तस्करों, कालाबाजारियों और देशद्रोहियों के लिए मौत की सजा का प्रावधान होना चाहिए। उनकी संपत्ति को राजसात करने का प्रावधान होना चाहिए। बलात्कारियों को भी फांसी पर लटकाया जाना चाहिए और उनकी संपत्ति राज्य को हस्तांतरित कर दी जानी चाहिए। चौथे, आज केंद्र व राज्य सरकारों की शक्तियों में भारी अंतर है। संविधान के संघीय चरित्र और राज्यों की सीमाओं आदि पर कोई विवाद नहीं है परन्तु जहाँ तक अधिकारों का प्रश्न है, हमारा मानना है कि 70 प्रतिशत अधिकार राज्यों को मिलने चाहिए और उन्हें अपने 70 प्रतिशत अधिकार, स्थानीय संस्थाओं को सौंपने चाहिए। पांचवें, सभी नागरिकों को वस्त्र कार्ड, राशन कार्ड, नि:शुल्क शिक्षा कार्ड, स्वास्थ्य कार्ड आदि उपलब्ध कराये जाने चाहिए। हमें इस प्रावधान की क्यों जरूरत है? इसलिए, क्योंकि राणा के शासनकाल से लेकर पंचायती राज और आज की प्रजातान्त्रिक सरकारों तक – कभी भी किसी प्रकार के कोई अनुदान की व्यवस्था ही नहीं रही है, एक किलो नमक की भी नहीं।

हमने अपनी इन मांगों को विचार के लिए रखा है। सुशील कोईराला, केपी शर्मा ओली, सूर्य बहादुर थापा और मेरे द्वारा हस्ताक्षरित एक दस्तावेज सभी को स्वीकार्य था। परन्तु अब उसे दरकिनार कर दिया गया है। 16 बिंदु वाले समझौते के बाद, पिछले दस्तावेज को किनारे कर दिया गया। परन्तु इस समझौते में कई ऐसी बातें हैं जो नेपाल और उसके नागरिकों के हित में नहीं हैं। संविधान का मसविदा अर्थहीन है। मैंने संविधान सभा, कोईराला, केपी शर्मा और प्रचंड से ठीक यही कहा। इस रपट को तैयार करने में प्रजातान्त्रिक सिद्धांतों और प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया है।

 

आपने दोपहर में अपने भाषण में कहा कि मोदी के यह कहने के बाद से कि संविधान सर्वसम्मति से पारित होना चाहिए, संविधान सभा के दृष्टिकोण में बदलाव आ गया है।

प्रधानमंत्री ने अपने पहले भाषण में जो कहा था, वह बहुत ठीक था। परन्तु अपनी अगली यात्रा में, सर्वसम्मति पर उनके जोर देने के बाद से, संविधान के मसविदे में बहुजन बहुसंख्यकों के अधिकारों में कटौती की बात हो रही है। क्या प्रधानमंत्री मोदी परोक्ष रूप से यह कह रहे थे कि नए संविधान को बहुजन बहुसंख्यकों या दलितों, आदिवासियों, ओबीसी व मुसलमानों के अधिकारों की गारंटी नहीं देनी चाहिये? प्रधानमंत्री द्वारा ‘सर्वसम्मति’ शब्द के इस्तेमाल का यही अर्थ लगाया जा रहा है। भारत के प्रधानमंत्री को यह समझना चाहिए कि उन्होंने तब क्या कहा था और अब क्या कहने की ज़रुरत है। सच तो यह है कि न तो भारत और ना ही नेपाल के बहुसंख्यकों की समस्याओं की ओर समुचित ध्यान दिया गया है। ठ्ठ

 

नेपाल के संविधान में डाइवर्सिटी की मांग

गत 25 जुलाई को नेपाल के संविधान के निर्माण में भागीदारी के सवाल पर ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ की ओर से दिल्ली में आयोजित संगोष्ठी में लगभग दो दर्जन स्थापित बुद्धिजीवियों ने शिरकत की।

कार्यक्रम में नेपाल के डा. आम्बेडकर के रूप में ख्यात विश्वेन्द्र पासवान उपस्थित थे। वे विगत कई सालों से थोड़े-थोड़े अन्तराल पर भारत आते रहे हैं। संविधान में दलित, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का संख्यानुपात में हर क्षेत्र में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराने की वे अनवरत कोशिश करते रहे हैं। माओवादी नेता प्रचंड से अलग हुए बहुजन माओवादी भी कुछ ऐसी ही मांग उठाते रहे हैं।

इनके प्रयासों के परिणामस्वरूप, नेपाल के संविधान की प्रस्तावना में सभी समूहों के लिए अनुपातिक भागीदारी की बात की गई है। प्रस्तावना में संविधान के लक्ष्य को इन शब्दों में परिभाषित किया गया है, ‘विविधता में एकता, सामाजिक-सांस्कृतिक एक्य, सहिष्णुता व सौहाद्र के रक्षण और प्रोत्साहन के साथ-साथ बहु-नस्लीय, बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक व भौगोलिक विविधतता का आत्मसात्करण व संख्यानुपात में समावेशीकरण व भागीदारी के जरिये आर्थिक समानता, समृद्धि व सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना और जातिगत ऊंचनीच सहित वर्गीय, नस्लीय, क्षेत्रीय, भाषाई, धार्मिक व लैंगिक भेदभाव समाप्त करना’।

परन्तु प्रतिनिधित्व की बात केवल प्रस्तावना तक सीमित होने और उसका उल्लेख संविधान के किसी अनुच्छेद में नहीं होने के प्रति अपना विरोध व्यक्त करने के लिए, विश्वेन्द्र पासवान और बहुजन माओवादियों ने सार्वजनिक रूप से संविधान की प्रतियाँ फाड़ीं और जलाईं। ये लोग आज भी अपने-अपने स्तर पर संविधान में सभी वंचित समूहों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करवाने का संघर्ष चला रहे हैं।

संगोष्ठी में दलित चिंतक चन्द्रभान प्रसाद की उपस्थिति प्रमुख थी। वे भारत में डायवर्सिटी की संकल्पना के अगुआ रहे हैं। मंच संचालन डा. लालजी प्रसाद निर्मल ने किया।

संगोष्ठी में वक्ताओं ने सवाल किया कि क्या नेपाल की संविधानसभा, प्रस्तावना में लिए गए समानता पर आधारित समाज के निर्माण के संकल्प को लागू करने के लिए समुचित प्रावधान करेगी।

फारवर्ड प्रेस के सितंबर, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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