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एक चांडाल शिक्षामंत्री

पश्चिम बंगाल में कांति बिस्वास के कामरेड जानते थे कि वे दलित हैं और उनकी प्रशासनिक योग्यता से जलते थे। अन्यों ने यह मान लिया कि वे असल में ब्राह्मण हैं

kantibiswas1“मैं जानता हूं कि कांति बिस्वास, पश्चिम बंगाल के ब्राह्मण हैं परंतु अपने राज्य की अनुसूचित जाति की बड़ी आबादी को देखते हुए, राजनैतिक लाभ पाने के लिए उन्होंने अनुसूचित जाति का नकली प्रमाणपत्र बनवा लिया है।”

इन शब्दों के साथ, तत्कालीन वाजपेयी सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री प्रोफेसर मुरली मनोहर जोशी ने दिल्ली में आयोजित राज्यों के शिक्षा मंत्रियों की बैठक में कांति बिस्वास पर कटु हमला किया। इस हमले के पहले, उन्होंने बिस्वास की प्रशंसा की ”मैं पश्चिम बंगाल के शिक्षामंत्री कांति बिस्वास का बहुत सम्मान करता हूं। मैंने अब तक उनके जैसा विद्वान और अपने विभाग को चलाने में सक्षम व्यक्ति नहीं देखा है।’’ इसके बाद उन्होंने कहा, ”पर मैं उनसे घृणा भी करता हूं। वे झूठे हैं।’’

अपने स्वस्फूर्त और ओजस्वी खंडन में कांति बिस्वास ने कहा, ”आप मुझे झूठा क्यों बता रहे हैं? आप किस आधार पर यह कह रहे हैं कि नीची जाति में पैदा हुआ व्यक्ति ज्ञान हासिल नहीं कर सकता? आप यह क्यों और कैसे मानते हैं कि योग्यता पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार है? मैं छाती ठोककर घोषणा करता हूं कि मैं अनुसूचित जाति का हूं। मैं जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त आपके दृष्टिकोण की भत्र्सना करता हूं। आपका यह दावा कि मैं ब्राह्मण हूं, पूरी तरह से आधारहीन है। मैं इसके लिए आपको दोषी ठहराता हूं।’’

सन् 1911 में जनगणना अधिकारियों ने ”दमित’’ जातियों की पहचान करने के लिए 10 आधारों की सूची बनाई थी। कांति बिस्वास नामसूद्र थे और उनकी जाति को दमित जाति के रूप में चिन्हित करने के लिए ये तीन आधार बताए गए थे: नामसूद्रों से ”श्रेष्ठ ब्राह्मण संबंध नहीं रखते, उन्हें साधारण हिन्दू मंदिरों में प्रवेश की इजाजत नहीं है और उनके छूने या नजदीक जाने से उच्च जातियों के लोग अपवित्र हो जाते हैं’’ (भारत की जनगणना, 1911, खण्ड 5, भाग 1, रपट, पृष्ठ 232)। जाहिर है कि दमित जातियों की पहचान के ये आधार, ब्राह्मणवादी मानकों, दकियानूसी सोच और शुद्धता-अशुद्धता की मान्यताओं पर आधारित थे। सरकार ने अपनी रपट में बताया कि देश में करोड़ों लोगों के साथ भेदभाव होता है और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता है।

कांति बिस्वास ने मुरली मनोहर जोशी से अपनी झड़प का विवरण बंगाली में प्रकाशित उनके संस्मरण ”अमार जीवन’’ (अक्टूबर 2014, कलकत्ता) में किया है। नामसूद्र-जो कि चांडाल के लिए एक बेहतर शब्द है-जाति में जन्मे कांति, ढाका विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में सक्रिय थे। उन्होंने बांग्लाभाषा आंदोलन (21 फरवरी, 1952 को ढाका में पुलिस की गोलियों से चार विद्यार्थी मारे गए थे) में भाग लिया था। सन् 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित किया। कांति फरीदपुर जिले के रहने वाले थे। यही शेख मुज़ीब-उर-रहमान का गृह जिला भी था, जो बांग्लादेश के राष्ट्रपिता के नाम से जाने जाते हैं। कांति एक चुनाव में मुज़ीब-उर-रहमान के खिलाफ खड़े हुए थे। वे बांग्लादेश के एक अन्य प्रतिष्ठित नेता मौलाना अब्दुल हमीद खान भसानी की नेशनल आवामी पार्टी के उम्मीदवार थे। सन् 1960 में वे पश्चिम बंगाल, भारत में बस गए।

सन् 1977 में वे माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर विधानसभा सदस्य चुने गए और ज्योति बसु की कैबिनेट में अनुसूचित जाति का एक भी सदस्य न होने का विरोध करने के बाद, उन्हें मंत्री नियुक्त किया गया। बसु द्वारा अपने मंत्रिमंडल का गठन करने के चार माह बाद, उन्हें युवा मामले व गृह (पासपोर्ट) विभाग दिए गए। मंत्री के तौर पर कांति ने इतना अच्छा काम किया कि वे जल्दी ही चर्चा में आ गए। सन् 1982 में वे फिर चुनकर आए और उन्हें प्राथमिक शिक्षा का चुनौतीपूर्ण विभाग सौंपा गया। वे लैफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की सरकार में सन् 2006 तक प्राथमिक शिक्षा विभाग के मंत्री रहे। दकियानूसी ब्राह्मणवादी तत्वों को एक चांडाल का शिक्षामंत्री बनना रास नहीं आया। एक दिन सीपीएम नेता प्रमोद दासगुप्ता ने कांति को 400 पत्रों का एक बंडल सौंपा। उन्होंने कांति को बताया कि ये पत्र प्रदेश के विभिन्न इलाकों के लोगों ने उन्हें लिखे हैं। दासगुप्ता ने कांति से कहा कि वे इनमें से कोई भी एक पत्र निकालकर पढ़ें। जो पत्र कांति ने निकाला, वो भाटापारा (24 परगना जिला) से किसी चक्रवर्ती ने लिखा था। भाटापारा ब्राह्मणवादी रूढिवाद का गढ़ था। चक्रवर्ती ने लिखा कि यद्यपि युवा मामलों के मंत्री बतौर कांति ने अपनी योग्यता और क्षमता सिद्ध कर दी है तथापि हैं तो वे चांडाल ही। पत्र में लिखा था कि चांडाल के शिक्षामंत्री रहते बंगाल कभी शिक्षित नहीं हो सकेगा और शैक्षणिक दृष्टि से राज्य की उन्नति बाधित हो जाएगी। चक्रवर्ती ने यह सुझाव दिया कि कांति की योग्यता और क्षमताओं को देखते हुए उन्हें कोई और बड़ा और बेहतर विभाग दे दिया जाना चाहिए।

KantiBiswas2लगभग दो दशक तक बंगाल के शिक्षामंत्री रहे कांति ने राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई। भारत सरकार ने 8 नवंबर, 2004 को उच्च शिक्षण संस्थाओं को स्वायता प्रदान करने पर विचार करने के लिए एक समिति बनाई, जिसका अध्यक्ष कांति को नियुक्त किया गया। उसके पहले, भारत सरकार ने महिला शिक्षा पर राष्ट्रीय समिति का गठन किया था और असम के शिक्षा मंत्री बिमला प्रसाद चालिहा को इसका अध्यक्ष नियुक्त किया था। चालिहा ने यह शर्त रखी कि वे यह पद तब ही स्वीकार करेंगे जब कांति बिस्वास को उनके साथ काम करने के लिए राज़ी किया जाए। कांति ने इस समिति में भी महती भूमिका अदा की।

कांति को सोवियत संघ द्वारा मॉस्को की पेट्रिस लुमुम्बा विश्वविद्यालय (रूस के शिक्षा मंत्रालय ने मॉस्को स्टेट विश्वविद्यालय और सेंट पीटर्सबर्ग स्टेट विश्वविद्यालय के बाद इस विश्वविद्यालय को देश के तीसरे श्रेष्ठतम विश्वविद्यालय का दर्जा दिया है) के छात्रों और शिक्षकों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया। लगभग डेढ़ घंटे लंबे कांति के भाषण को श्रोताओं ने अत्यंत ध्यानपूर्वक सुना और जब उनका भाषण समाप्त हुआ, पूरा सभागार ज़ोरदार करतल ध्वनि से गूंज उठा। उन्हें सम्मान देने के लिए रूस की उनकी यात्रा की अवधि को दस दिन बड़ा दिया गया और राजकीय अतिथि के तौर पर उन्हें सोवियत संघ के विभिन्न हिस्सों का भ्रमण करवाया गया।

सोवियत संघ द्वारा कांति बिस्वास को निमंत्रित करने से कलकत्ता के कामरेडों के सीने पर सांप लोट गया। उन्होंने कहा कि भला एक स्कूल मास्टर को सोवियत संघ क्यों जाना चाहिए? परंतु ज्योति बसु ने उच्च जातियों के अपने कलहप्रिय कामरेडों की सभी आपत्तियों को दरकिनार कर दिया और कहा कि सोवियत संघ किसी व्यक्ति को बिना उसकी योग्यता की जांच पड़ताल के कभी आमंत्रित नहीं करेगा। सोवियत संघ से वापस आने के बाद, कांति को उनके मेज़बानों का पत्र मिला जिसमें उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा की गई। ब्रिटेन के शिक्षामंत्री ने भी एक शिक्षा आयोग की रपट में पश्चिम बंगाल के शिक्षामंत्री की टिप्पणियों की सराहना की। इस रपट को आधिकारिक तौर पर बिस्वास को भेजा गया।

एक कहावत है कि कमल कीचड़ में ही खिलता है। ऊँची जातियों के बौद्धिक तबके की यह मान्यता है कि केवल वे ही ज्ञानी और कार्यकुशल हो सकते हैं। अगर कठिन मेहनत और बेहतर से बेहतर करने के अटूट प्रयासों के चलते, किसी बहुजन की योग्यता का कमल जातिवाद से ग्रस्त हमारे समाज के कीचड़ में खिलता है तो वे जल्द से जल्द उसे अपने में मिला लेना चाहते हैं।

क्या आंबेडकर ने नहीं कहा था कि जब हिंदुओं को वेद चाहिए थे, तो उन्हें व्यास की ज़रूरत पड़ी; जब उन्हें रामायण चाहिए थी तब उन्हें वाल्मीकी की याद आई और जब उन्हें भारतीय संविधान का निर्माण करना था तो उन्होंने आंबेडकर की मेधा का उपयोग किया। इनमें से कोई भी ब्राह्मण नहीं था। ये सभी नीची जातियों में जन्मे थे।

फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित

 

लेखक के बारे में

एके विस्वास

एके विस्वास पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और बी. आर. आम्बेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर बिहार के कुलपति रह चुके हैं

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