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खामोश हो गया एक आंबेडकरवादी

अपने छोटे से जीवन में रोहित को असंख्य क्रूर व्यंग्यबाणों का सामना करना पड़ा। परंतु इसके बाद भी उनके व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक सरोकार बने रहे जो हमें उनकी असीम ऊर्जा, दैदिप्यमान बौद्धिकता और परिवर्तनवादी राजनीति से उनके अप्रतिम लगाव से परिचित करवाती हैं

रोहित वेमूला की मौत ने जाति व्यवस्था की भयावह क्रूरता और हमारे समाज में मूलभूत मानवीय गुणों के अभाव को एक बार फिर रेखांकित किया है। हमारे देश में उन मानवीय गुणों का नितांत अभाव है जो हमें मनुष्य और सभ्य बनाते हैं। यही कारण है कि युवा और संभावनाओं से भरे रोहित के त्रासद अंत ने देशभर में शोक, क्षोभ और क्रोध की एक स्वत: स्फूर्त लहर को जन्म दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि जातिवादी विश्वविद्यालयीन व्यवस्था और हिंदुत्व समूहों के गठजोड़ (जैसा कि विभिन्न समाचारपत्रों से ज्ञात होता है) ने रोहित व अन्य आंबेडकरवादी छात्रों के लिए जिंदगी को बहुत घुटनभरा बना दिया था। परंतु उनका अंतिम पत्र यह बताता है कि अपना जीवन समाप्त करने के रोहित के निर्णय के पीछे व्यापक दमनकारी सामाजिक-शैक्षणिक परिस्थितियां भी थीं, जो लाखों युवा दलितों के जीवन और सपनों का गला घोंटती आईं हैं। पिछले सालों में भारतीय विश्वविद्यालयों में कई दलित विद्यार्थी आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिए गए। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों व अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में पिछले दस वर्षों में हुईं आत्महत्या की बीस घटनाओं से यह स्पष्ट है कि शैक्षणिक संस्थाओं, और विशेषकर विज्ञान, चिकित्सा और इंजीनियरिंग के उच्च शैक्षणिक संस्थानों में, दलितों के साथ संस्थागत भेदभाव किया जाता है।

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रोहित वेमूला (30 जनवरी 1989-16 जनवरी 2016)

जिंदगी से जुनून की हद तक इश्क करने वाले एक व्यक्ति को अपनी जान लेने के लिए मजबूर करने वाला समाज, नि:संदेह, एक बीमार समाज है। हां, रोहित वेमूला जिंदगी से बहुत प्यार करते थे और विज्ञान से भी। गरीबी से घिरे अपने बचपन से ही उन्होंने शिक्षा प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्पित हो एक कठिन लड़ाई शुरू की थी। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने अपने व्यक्तिगत संघर्ष को समानता व न्याय की व्यापक सामाजिक जद्दोजहद से जोड़ लिया था। अपनी कभी हिम्मत न हारने वाली मां, जिन्होंने कठिन श्रम व दूसरों के कपड़े सिलकर रोहित को पाला-पोसा, के प्रोत्साहन से उन्होंने दो बार जूनियर रिसर्च फैलोशिप हासिल की और नौकरशाही व ब्राह्मणवादियों के लाख अडंग़े लगाने के बावजूद, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में विज्ञान तकनीकी व समाज अध्ययन विभाग में पीएचडी पाठ्यक्रम में प्रवेश पाने में सफलता हासिल की। यह रोहित जैसे अपने परिवार की पहली पीढ़ी के विद्यार्थी के लिए जबरदस्त उपलब्धि थी। परंतु उनके कई और सपने भी थे, जिन्हें वे पूरा करना चाहते थे।

रोहित का कभी न भुलाया जा सकने वाला अंतिम पत्र और उनकी मृत्यु के बाद, सोशल मीडिया में उनके बारे में जो कुछ लिखा गया, उससे उनके विद्रोही मस्तिष्क और आत्मा की एक झलक मिलती है।

वे एक मेधावी विद्यार्थी थे और उनकी आंखों में कई सपने तैर रहे थे। वे सितारों की तरफ देखते हुए एक लेखक बनने का सपना पाले हुए थे। ”कार्ल सेगन की तरह एक विज्ञान लेखक”, जैसा कि उन्होंने लिखा। वे लोगों और प्रकृति के प्रति अपने प्रेम की भी चर्चा करते हैं परंतु लोगों ने प्रकृति और दूसरे लोगों से दूरियां बना ली हैं। पदक्रम आधारित सामाजिक रिश्तों के प्रति उनकी वितृष्णा और उन पर ज़बरन थोप दी गई अपमानजनक पहचान के प्रति उनका रोष, उनके पत्र से स्पष्ट है, ”…हमारी भावनाएं उधार ली हुई हैं, हमारा प्रेम बनावटी है, हमारी आस्थाएं रंगी हुई हैं, हम कृत्रिम कला के ज़रिए अपनी मौलिकता को वैधता प्रदान करना चाहते हैं, बिना अपने को चोट पहुंचाए प्रेम करना सचमुच बहुत कठिन हो गया है। हर व्यक्ति की कीमत उसकी निकटतम पहचान और न्यूनतम संभावनाओं तक सीमित कर दी गई हैं। एक वोट तक। एक संख्या तक। एक वस्तु तक। एक मनुष्य के साथ कभी इस तरह व्यवहार नहीं किया गया कि वह एक सोचने समझने वाला प्राणी है…मैं हमेशा जल्दी में रहा। मैं अपनी जिंदगी शुरू करने के लिए उद्विग्न था। कई लोगों के लिए जिंदगी अपने आप में एक अभिशाप बन जाती है। मेरा जन्म एक घातक दुर्घटना थी।”

यह मार्मिक पत्र, जिसमें वे समाज द्वारा उन पर लादी गई असहायता और अकेलेपन के बारे में तो चर्चा करते हैं परंतु अपने उन पीड़कों के नाम देकर उन्हें शर्मिन्दा नहीं करते, जिन्होंने उन्हें उनका जीवन समाप्त करने के लिए मजबूर किया था, उनकी आत्मा के सौन्दर्य को दशार्ता है। संकेतों और रूपकों से भरपूर यह पत्र हमारी स्मृति में हमेशा एक अद्वितीय गद्य-कविता के रूप में सुरक्षित रहेगा-एक ऐसी गद्य कविता, जो हमारी जाति, ऊँचनीच व सत्ता की वहशीयाना संस्कृति के कुरूप चेहरे को उजागर करती है।

अपने छोटे से जीवन में रोहित को असंख्य क्रूर व्यंग्यबाणों का सामना करना पड़ा। परंतु इसके बाद भी उनके व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक सरोकार बने रहे जो हमें उनकी असीम ऊर्जा, दैदिप्यमान बौद्धिकता और परिवर्तनवादी राजनीति से उनके अप्रतिम लगाव से परिचित करवाती हैं।

रोहित वामपंथी स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) से जुड़े परंतु अपने साथी कामरेडों के ‘दुर्व्यवहार’ के कारण उन्हें एसएफआई से नाता तोडऩा पड़ा। रोहित को मार्क्स से समस्या नहीं थी। उन्हें समस्या थी भारत के ब्राह्मणवादी वामपंथियों से। बाद में उन्होंने आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एएसए) की सदस्यता ग्रहण कर ली और अपने अंतिम समय तक वे इस इस संस्था से जुड़े रहे। वे एक पक्के आंबेडकरवादी थे और एसोसिएशन के सदस्यों के बीच बहुत लोकप्रिय थे।

रोहित आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी दोनों थे। जाति, वर्ग और सांप्रदायिकता की दमनकारी शक्तियों से लोहा लेने के लिए वे मुसलमान और दलित विद्यार्थियों को एक मंच पर लाना चाहते थे। उन्होंने पिछले वर्ष याकूब मेमन को फांसी दिए जाने के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया था। हिंदुत्व राजनीति के बदरंग चेहरे को बेनकाब करने वाली फिल्म ”मुजफ्फरनगर अभी बाकी है” का समर्थन करने के लिए उन्हें दक्षिणपंथी शक्तियों के कोप का शिकार होना पड़ा था। उन्होंने पिछले वर्ष आयोजित बीफ फेस्टिवल में भी भाग लिया था। परंतु उनकी असली लड़ाई जातिवादी मानसिकता और ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ थी। वे हर किस्म के अन्याय से लडऩा चाहते थे।

उनकी गतिविधियों के कारण वे और उनके साथी, भाजपा-आरएसएस की विद्यार्थी शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की आंखों की किरकिरी बन गए। एबीवीपी ने एएसए पर ”जातिवादी और राष्ट्रविरोधी” गतिविधियां करने का आरोप लगाया और यह कहा कि एसोसिएशन, विश्वविद्यालय परिसर में हिंसा की संस्कृति का आगाज़ कर रही है। इसके बाद एक तथाकथित जांच में रोहित सहित एएसए के पांच सदस्यों को एक एबीवीपी नेता पर हमला करने के लिए दोषी पाया गया और विश्वविद्यालय प्रशासन ने पिछले वर्ष उन्हें निलंबित कर दिया। बाद में इन्हीं झूठे आरोपों में विश्वविद्यालय परिसर के सार्वजनिक स्थलों पर उनका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया और उन्हें होस्टल से निष्कासित कर दिया गया। वे अब खुले में रहने को मजबूर थे।

दलित विद्यार्थियों ने रोहित और उनके साथियों के निलंबन और होस्टल से निष्कासन का विरोध करना शुरू किया। वे सब अत्यंत व्यथित थे। अगस्त 2015 में उनका स्टाइपेंड बंद कर दिया गया और तब से रोहित का निर्धन परिवार किसी तरह उनका खर्च उठा रहा था। उन्हें अपने एक साथी से 40,000 रूपए उधार भी लेने पड़े। इस सबसे व्यथित वे अवसाद में चले गए। वे किस पीड़ा से गुजऱ रहे थे यह 2015 में कुलपति को लिखे गए उनके रोषपूर्ण परंतु हृदयविदारक पत्र से जाहिर होता है। इस पत्र में उन्होंने व्यंग्य में कुलपति से अनुरोध किया कि वे सभी दलित विद्यार्थियों के लिए अच्छी रस्सियों और इच्छा मृत्यु की सुविधा उपलब्ध करवाएं। परंतु इन उत्पीडि़त विद्यार्थियों की ओर मदद का हाथ बढ़ाने की बजाए विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने उन्हें सताना जारी रखा। जब पानी सिर के ऊपर से गुजऱ गया तब रोहित ने अपनी जिंदगी समाप्त करने का फैसला किया।

अपनी मृत्यु के लिए किसी को दोषी न ठहरा कर रोहित ने अपनी अद्भुत उदारता का परिचय दिया है। परंतु इससे वे लोग दोषमुक्त नहीं हो जाते जो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से उन्हें निराशा व असहायता के सागर में डुबोने के लिए जिम्मेदार थे। रोहित की मृत्यु के लिए वे हिंदुत्ववादी ताकतें और विश्वविद्यालय के अधिकारी तो जिम्मेदार हैं ही जिन्होंने परोक्ष रूप से उन्हें व अन्य दलित विद्यार्थियों को अनवरत सताया परंतु इसके लिए वे लोग भी जिम्मेदार हैं जो रोज़ाना की जिंदगी में जातिगत भेदभाव व ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के बोलबाले को नजऱअंदाज करते हैं।

रोहित वेमूला के अलविदा पत्र के व्यक्त व अव्यक्त भावों से यह स्पष्ट है कि वे जिंदगी, प्रकृति, विज्ञान और मानवता से असीम प्रेम करते थे। परंतु दमनकारी सामाजिक यथार्थ और विश्वविद्यालय की भेदभावपूर्ण नीतियों ने उन्हें तोड़ दिया और अपनी जिंदगी के एक सुनहरे मोड़ पर उन्होंने दुनिया से बिदा ले ली।

रोहित वेमूला अपने पीछे अपनी दु:खी मां, शोकग्रस्त परिवार और ऐसे लाखों भारतीयों को छोड़ गए हैं, जो उनकी अकाल मृत्यु से गहरे तक व्यथित हैं। उनका अंतिम पत्र हमसे कई कठिन प्रश्न पूछता है। यदि उनके प्रति सहानुभूति रखने वाले और आक्रोशित दलितबहुजन, वामपंथी, स्त्रीवादी व अन्य समान-धर्मा कार्यकतार्ओं को जाति, ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व की काली ताकतों से निर्णयात्मक लड़ाई लडऩा है, तो उन्हें इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने ही होंगे।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

ब्रजरंजन मणि

ब्रजरंजन मणि ‘नालेज एण्ड पावरः ए डिस्कोर्स फॉर ट्रांसफॉर्मेशन‘ (2014) के लेखक हैं। इनकी चुनौतीपूर्ण पुस्तक ‘डीब्राह्मणनाइसिंग हिस्ट्री‘ (2005) के पांच पुनमुर्द्रित संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और अब इसका व्यापक रूप से संशोधित संस्करण (2015) उपलब्ध है। दोनों पुस्तकों का प्रकाशक मनोहर है।

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