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भाषा के राजनीतिक लक्ष्य

असुरक्षा के भाव से पीडित शासक वर्ग ने मराठी, तेलुगू, गुजराती, पंजाबी, बांग्ला, कश्मीरी आदि भाषायों के शब्द हिंदी में आत्मसात कर उसे अधिक स्वीकार्य बनाने की प्रक्रिया बाधित की

डा भीमराव आम्बेडकर ने अपनी उच्च शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से पूरी की लेकिन उनकी राजनीतिक चेतना भारत जैसे देश में अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार की पक्षधर नहीं थी। ब्रिटिश शासनकाल में लगभग संपूर्ण भारतीय राजनैतिक नेतृत्व की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी माध्यम से हुई थी और डा. आम्बेडकर इसके अपवाद नहीं थे। उस दौर में भारतीय नेतृत्व के समक्ष दो चुनौतियां थीं – शासकों से अंग्रेजी में संवाद करना (क्योंकि वे इसी भाषा को समझते थे) और स्कूली शिक्षा से भी वंचित करोड़ों देशवासियों को उनकी भाषा में संबोधित करना। गांधी, भाषा को लेकर स्पष्ट थे। वे गुजराती थे लेकिन हिन्दी के पक्षधर थे और लोगों को हिंदी में संबोधित करते थे। यदि गांधी अंग्रेजी में भाषण देते तो शायद उनकी देशव्यापी स्वीकार्यता नहीं बन पाती।

भारतीय संदर्भ में भाषा के प्रश्न को दो कालों में विभाजित कर देखा जाना चाहिए – ब्रिटिश शासनकाल और स्वतंत्र भारत। भारत की स्वतंत्रता के बाद सत्ताधारियों पर दबाव था कि शासकीय कार्य भारतीय भाषाओं में संपन्न किये जायें और इन भाषाओं के माध्यम से ही पठन-पाठन की व्यवस्था हो। यानी सत्ता का ढांचा तो अंग्रेजी-परस्त था, लेकिन नेतृत्व पर दबाव था कि वह भारतीय भाषाओं में सुने और बोले और यह जान ले कि देर-सबेर उसे अंग्रेजी को त्यागना होगा। राजनीतिक परिवर्तन का सार इसमें निहित होता है कि सत्ता का रूपांतरण, जन के अनुरूप हो सके। सत्ता चाहती है कि नेतृत्व को अपने रूप में ढाल ले। राजनीति के इस द्व्न्द्व को समझना महत्वपूर्ण है। सत्ता के जन के अनुरूप रूपांतरण में यह भी निहित है कि शासक वर्ग, लोगों की चेतना की भाषा को समझने के लिए मजबूर हो। इसीलिए अगर किसी भाषा को चुना जाता है तो वह उसकी लिपि के कारण नहीं होता बल्कि वह सत्ता के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक आधार से जुड़ा होता है।

jan-media-nov-15यह धारणा गलत है कि डॉ. आम्बेडकर अंग्रेजी के पक्षघर थे। भाषा को लेकर उनकी राजनीतिक दृष्टि बहुत स्पष्ट थी और यह तथ्य, भाषावार राज्यों के गठन पर हुई बहस में उनके भाषणों से जाहिर होता है। उन्होंने अपनी बात इतने सुस्पष्ट शब्दों में रखी कि उसकी दो व्याख्याएं की ही नहीं जा सकतीं। डा. आम्बेडकर ने बहस के दौरान कहा कि भाषा के आधार पर प्रांतो के पुनर्गठन की मांग को स्वीकार कर लेने पर भी ऐसी संवैधानिक व्यवस्था होनी चाहिए कि केन्द्र सरकार की राजभाषा, सभी प्रांतों की राजभाषा मानी जाए। केवल इसी आधार पर उन्होंने भाषावार प्रांतों की मांग को स्वीकार किया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि वह भाषा हिन्दी ही हो सकती है। उनके अनुसार, राज्य की भाषा हिन्दी होगी, परन्तु जब तक भारत इस परिवर्तन के लिए तैयार न हो जाये, अंग्रेजी का इस्तेमाल होता रहेगा।

इस प्रकार, देश के लोगों के लिए एक नई भाषा का निर्माण और सत्ता को उसकी भाषा छोडऩे के लिए बाध्य करने का राजनीतिक संघर्ष शुरू हुआ। इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि यह एक भाषा – हिन्दी – की स्वीकार्यता जनता में बढ़ाने का राजनीतिक कार्यक्रम था – उस जनता में, जो गुजराती या मराठी को भी उतनी ही सहजता से स्वीकार कर लेती। दूसरी तरफ हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि सत्ता और शासक वर्ग, देश की एक भाषा बनाने की राजनीतिक प्रक्रिया को बाधित करने के लिए तत्पर था। यदि बहुत विस्तार में नहीं भी जाना चाहते हों तो संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि एक ओर हिन्दी का एक भारतीय रूप सृजित करने का राजनीतिक कार्यक्रम था तो दूसरी इसे रोकने के प्रयास। हिन्दी के निर्माण की यात्रा को देखें तो यह साफ़ हो जायेगा कि वह सहजता से जटिलता की ओर धकेली गई। यह जटिलता, वास्तव में, एक भाषा के निर्माण को रोकने और शासक वर्ग की भाषा को बनाए रखने की राजनीति रही है। हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाना, उसके भारतीयकरण की प्रक्रिया को बाधित करना था। ठीक उसी तरह, जैसे भूमंडलीकरण के बाद, उसे अंग्रेजीनिष्ठ बनाने का राजनीतिक कार्यक्रम चलाया जा रहा है। हिन्दी का मराठी, तेलुगू, गुजराती, पंजाबी, बांग्ला, कश्मीरी आदि से शब्द उधार लेकर जो विस्तार होना था, वह नहीं हुआ। वह शासक वर्ग की ऐसी भाषा के रूप में विकसित की गई, जिसे विस्थापित करने का पहले से ही फैसला किया जा चुका था। पहले संस्कृत शासक वर्ग की भाषा थी, अब उसका स्थान अंग्रेजी ने ले लिया। शासक वर्ग में भाषा को लेकर सहमति थी, जो कि राजनीतिक प्रक्रियाओं में अभिव्यक्त हुई।

डा. आम्बेडकर भाषा को लेकर लोगों के बीच नहीं गए क्योंकि उनकी प्राथमिकता अंग्रेज शासकों व काग्रेंस के नेतृत्व को संबोधित करना थी। वे आवाम के हक-हकूक के सबसे ताकतवर पैरोकार थे। लेकिन एक राजनीतिक औजार के रूप में भाषा को लेकर उन्हें कोई दुविधा नहीं थी। उन्होंने शिक्षित बनो का नारा तो दिया लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि दलितों को अंग्रेजी ही पढऩी चाहिए। लेकिन जिस तरह से डा. आम्बेडकर के शिक्षित बनो के नारे को डिग्रियों का ढेर लगाने तक सीमित कर दिया गया, उसी तरह से यह प्रचार किया गया कि अंग्रेजी पढने से दलितों का भला होगा। वंचित वर्ग की भाषा की सत्ता की स्थापित करने की लड़ाई, भटकाव का शिकार हो गयी।

भाषा के प्रश्न को उलझना, कई तरह की राजनीतिक जरूरतों को पूरा करता है। देश की वंचित आवाम के सामने यह चुनौती रही है कि वह अपनी भाषाई ताकत से सत्ता पाने की प्रक्रिया को तेज करे। उनके प्रतिनिधि अंग्रेजीदां हों, यह सुनिश्चित करना उनका राजनीतिक लक्षय नहीं रहा है। जन भाषा का लक्ष्य देश के शासकों को अपनी भाषा में संबोधित कर अपनी भाषाई चेतना के स्तर पर उतारने की परिस्थितियां का निर्माण करना रहा है। मौजूदा हालात तो ये हैं कि स्वतंत्रता के बाद भी, अंग्रेजी आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सत्ता की भाषा और लोकतंत्र की जरूरत बनी हुई है। आखिर क्या कारण है कि नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद शासक वर्ग ने अंग्रेजी का ज्ञान अर्जित करने के प्रति लोगों में प्रतिस्पद्र्धा तेज करने पर जोर दिया? ऐसा करके उसने वंचित वर्ग की भाषा और उसकी चेतना से खुद को मुक्त कर लिया। जनता से जुड़ी नीतिगत बातों को अंग्रेजी में ही करने की आदत को बढ़ावा दिया गया और इससे नीतिगत मसलों में उनकी हिस्सेदारी नहीं होने दी गयी।

फारवर्ड प्रेस के नवंबर 2015 अंक में प्रकाशित

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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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