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भारत को समझो मोदी जी

विश्वविद्यालय में जो विश्व शब्द है उस पर ध्यान दीजिये। आप उसे संघ का शिशुमंदिर बनाना चाहते हैं? यूनिवर्सिटियां मानव जाति पर समग्रता से विचार करती हैं, उसे देशभक्ति की पाठशाला मत बनाइए

मान्यवर मोदी जी,

मैं समझता हूं हर नागरिक को अपने प्रधानमंत्री से सीधा संवाद करने का अधिकार है और यह पत्र के द्वारा हो, तब दुर्लभ एप्वाइंटमेंट का झंझट भी नहीं आता। इसलिए मैंने यही माध्यम चुना है।

देश में पिछले दिनों कई तरह की वारदातें हुईं। मैं नहीं समझता इसे आपको बताने की जरूरत है। यह सही है कि इतने बड़े देश में अनेक तरह की घटनाएं घटती रहेंगी और छोटी-छोटी घटनाओं की नोटिस लेने के लिए आपका कीमती वक्त बर्बाद भी करना नहीं चाहूंगा। लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि लगता है हमारा वजूद हिल जाएगा। आज कुछ हद तक हम इसी स्थिति में आ चुके हैं। पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो हुआ और उसके बाद पहले दिल्ली और फिर देश के अन्य हिस्सों में जो हो रहा है, वह सब बेहद गंभीर है और मैं चाहूंगा कि पूरे मुद्दे पर पहले आप स्वयं गंभीरता से चिंतन करें। मैं आपको व्यक्तिगत स्तर पर सोचने की बात इसलिए कह रहा हूं कि मुझे प्रतीत होता है आप स्वयं इस विषय पर गडमड हैं। यह आपके क्रियाकलापों से प्रकट होता है। संसद के प्रवेश द्वार पर माथा टेकने से लेकर सभा-सम्मेलनों में दोनों हाथ उठा-उठाकर भारत माता की जय के उद्घोष जैसे क्रियाकलापों से आपके अंतरभाव प्रकट होते हैं। क्या कभी आपने अपना मनोविश्लेषण किया है? मेरा आग्रह होगा, समय निकालकर यह जरूर कीजिए। क्योंकि इससे पूरे देश का भवितव्य जुड़ा है। रूसी लेखक चेखव ने कहा है मनुष्य को केवल यह दिखला दो कि वास्तविक रूप में वह क्या है, वह सुधर जाएगा। इसी भरोसे मैं आप में सुधार की एक संभावना देख रहा हूं। प्रधानमंत्री जी, सबसे पहले तो आप अपनी स्थिति समझिये। आप कोई सवा सौ करोड़ लोगों के चुने हुए भाग्य विधाता हो। एक महान राष्ट्र के प्रधानमंत्री, वास्तविक शासक। कभी चंद्रगुप्त, अशोक, अकबर जैसे लोग जिस स्थिति में थे, वैसे। उन लोगों के समय में भी भारत इतना बड़ा कभी नहीं रहा। चंद्रगुप्त और अशोक के समय हमारी सीमाएं पश्चिम में तो बढ़ी हुई थी, लेकिन दक्षिण मौर्यों के हाथ नहीं था। अकबर के समय भी इतना बड़ा भारत नहीं था।

Kanhaiya Protestलेकिन भारत केवल भौगोलिक भारत ही नहीं रहा है। एक सांस्कृतिक भारत भी है हमारे पास। जैसा कि रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है कि ‘भारत एक विचार है न कि एक भौगोलिक तथ्य।’ इस भारत की रचना शासकों ने नहीं कवियों, मनीषीयों, दार्शनिकों, संतों और सच पूछें तो प्रकृति ने स्वयं की है। यह भारत हजारों साल में बना है। इसकी रचना प्रक्रिया सहज भी है और जटिल भी। जाने कितने आख्यान, कितनी पौराणिकता, कितने काव्य, कितने गीत, कितना भूत, कितना भविष्य मिला है इसमें, और यह भारत आज सवा सौ करोड़ लोगों की धड़कन बन गया है।

आप जरा अतीत में जाइए अपने सांस्कृतिक आख्यानों और पौराणिकता में। इतना तो जानते हीं होंगे कि यह जो भारत शब्द है भरत से बना है, दुष्यंत और शकुंतला के प्यार-परिणय से उद्भूत भरत, जिनका जन्म और पालन किसी राजमहल में नहीं एक ऋषि के आश्रम में हुआ। ये आश्रम वनांचलों में होते थे, जहां आज आपकी सरकार ग्रीनहंट कर रही है, क्योंकि आपकी नजर में वहां देशद्रोही पल-बढ़ रहे हैं। अत्यंत मनोरम और मर्मस्पर्शी कथा है भरत और उनकी मां शकुंतला की। और फिर हमारे महान ऋषि द्वैपायन कृष्ण, जिन्हें वेद व्यास भी कहा जाता है, ने एक खूबसूरत महाकाव्य लिखा महाभारत- जो आरंभ में ‘जय’ और ‘भारत’ था। महाभारत हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक धरोहर है। अब इस भारत-महाभारत को बस सौ साल पहले कुछ लोगों ने भारत माता बना दिया। आपने कभी सोचा कि भारतवर्ष भारत माता कैसे बन गया? दरअसल इंग्लैंड के लोग अपने देश को मदरलैंड कहते हैं। भारत में जन्मभूमि को पितृभूमि कहने का प्रचलन था। आप तो संघ के प्रचारक रहे हो। इस तथ्य को ज्यादा समझते होंगे। अंग्रेजी संस्कृति के प्रभाव में कुछ लोगों ने इसमें मातृत्व जोड़ा और भारत, भारतमाता में परिवर्तित हो गया। चूंकि यह कारीगरी करने वाले बड़े लोग थे, सामंत जमींदार थे-जिनके बैठकखानों में बाघ, शेर के खाल लटके होते थे, ने इस भारत माता को बाघ, शेर पर बैठा दिया। इन बड़े लोगों की माता गाय, भैंस पर कैसे बैठतीं। सोचा है कभी आपने कि सामान्य जन ने भारत माता की निर्मिति की होती तो कैसी होंतीं भारतमाता? शायद वह कवि निराला की एक कविता पंक्ति की तरह ‘वह तोड़ती पत्थर’ होती। हिंदी के प्रख्यात कवि पंत ने भी एक भारत माता की मूर्ति गढ़ी-

भारत माता ग्रामवासिनी

तरुतल निवासिनी

पंत की भारत माता पेड़ तले रहती हैं, निराला की पत्थर तोड़ती हैं। यदि किसी ग्रामीण सर्वहारा ने मूर्ति गढ़ी होती तो चरखा चलाती या बकरी चराती भारत माता होतीं।

लेकिन आप इस भारत माता के प्रधानमंत्री नहीं हो। आप उस भारतवर्ष और अब केवल उस भारत-जिसे संविधान में दैट इज इंडिया कहा गया है के प्रधानमंत्री हो। इस भारत की रचना हमारे महान स्वतंत्रता आंदोलन के बीच से हुई। जिसे पूर्णता हमारी संविधान सभा ने दिया। हमने 26 जनवरी, 1950 को इसे अंगीकार किया। ‘हम भारत के लोग इसे आत्मसात और अंगीकार करते हैं’। हमने एक महान सांस्कृतिक पीठिका पर विकसित राजनीतिक भारत को आत्मसात किया। संविधान हमारी आत्मा बन गई, जैसा कि आप भी कहते हो हमारा धर्मग्रंथ बन गया।

Poster_AIBSF_2011लेकिन कुछ लोगों ने इसे आत्मसात नहीं किया। हमारा संविधान समानता, भाईचारा और स्वतंत्रता के उन नारों को आत्मसात करता है, जिसे कभी फ्रांसीसी क्रांति ने तय किया था। यह हर तरह के विभेद को नकारता है और सबको अवसर की समानता दिलाने का भरोसा देता है। इसमें अपने को लगातार विकसित करने, सुधारने और समय से जोडऩे की ताकत है और समय-समय पर हमने यह किया भी है। सब मिलाकर यह एक ऐसा आदर्श संविधान है जिसपर पूरे देश ने अपनी सहमति जतायी है। कुछ लोगों ने इससे खिलवाड़ करने की भी कोशिश की, जैसे 1975 में इमरजेंसी, लेकिन उन्हें भी आखिर झुकना पड़ा।

और आज जो भारत है वह इस संविधान की पीठ पर है, किसी बाघ, शेर की पीठ पर नहीं। वह भारत माता नहीं है, सबकी सहमति से निर्मित भारत है जो हमारे बल पर है और उसके बल पर हम हैं। कुछ-कुछ बूंद ओर समुद्रवाला रिश्ता है हमारा। बूंद जैसे ही समुद्र से बाहर होता है मिट जाता है। हम भारत से अलग होंगे तो मिट जाएंगे।

प्रधानमंत्री जी, लेकिन इस भारत भक्ति को कुछ लोंगो ने खिलवाड़ बना दिया है। न वह संस्कृति को समझते हैं न राजनीति को। कुल मिलाकर उनकी दिलचस्पी एक फरेब विकसित करने में होती है, जिसके बूते वे अपना वर्चस्व बनाये रखें। पुराने जमाने में कई तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक फरेब विकसित कर इन लोगों ने अपना वर्चस्व बनाए रखा, वर्तमान संविधान ने इनके हाथ बांध दिये तब ये नये तरीके ढूंढ रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कभी अपने बैठकखानों में शेर की खाल लटकाने वाले इन महाप्रभुओं ने आज अपने ड्राइंग रूम में भारत माता की खाल लटका ली है और राष्ट्र के स्वयंभू पुरोहित बन देशभक्ति का प्रमाण पत्र बांट रहे हैं। ये लोग संविधान की जगह मनुस्मृति और शरीयत संहिताओं पर यकीन करते हैं। इनका भारत साधुओं, फकीरों और पाखंडियों का लिजलिजा भारत है, जिसमें इनके मनुवाद पर कोई आंच नहीं आती। यही इनका देश है, यही इनका राष्ट्र है।

जवाहरलाल नेहरू वि.वि. की एक घटना पूरे देश की ऐसी घटना बन गई है, जिसपर हर जगह चर्चा हो रही है। मैं तो उन लोगों में हूं जो इसे सकारात्मक रूप से ही देखते हैं और समझता हूं इस बहस से हमारा मुल्क और मजबूत बनेगा। लेकिन आप से अनुरोध है कि पूरे मामले पर नजर रखें ओर उन ताकतों को हतोत्साहित करें जो समाजिक प्रतिगामी हैं, क्योंकि उनका इरादा भारत को कमजोर करना है। आज दुनिया का कोई भी देश, कोई भी समाज पुरानी ओर घिसी-पिटी सोच के बूते आगे नहीं बढ़ सकता। गति तो पीछे लौटने में भी होती है यही तो प्रतिगामिता है। हमें तय करना होगा कि हमे आगे बढऩा है या पीछे लौटना है। धर्मांधता और संकीर्णता के बूते हम आगे नहीं बढ़ सकते। इस सदी में हमें आगे बढऩा है तो विज्ञान द्वारा उपलब्ध कराये गए ज्ञान और सोच का ही सहारा लेना पड़ेगा। ग्लोबल हो रही दुनिया में हमारी सार्वजनिक चुनौतियां गंभीर होती जा रही है। हमनें बड़ी छलांग नहीं लगाई तो हम पिछडऩे के लिए अभिशप्त हो जाएंगे। एक बार पिछड़ गए तो फिर कहीं के नहीं रहेंगे।

इसीलिए आप स्वयं अपना परिमार्जन कीजिए। आप और आप के लोग बार-बार राष्ट्रवाद की बात करते हैं। कभी सोचा है कि यह है क्या? एक पत्र में विस्तार से स्पष्ट करना संभव नहीं होगा लेकिन इतना बताना चाहूंगा कि देश किन विशेष परिस्थितियों में राष्ट्र बनता है। पश्चिम में राष्ट्रों का निर्माण और विकास जिन स्थितियों में हुआ उससे हमारे देश की स्थिति कुछ भिन्न थी। लेकिन दोनों जगहों पर यह आधुनिक जमाने की परिघटना है। औद्योगिक क्रांति के साथ यह पनपा और अपने कारणों से पूंजीवादी जमाने में विकसित हुआ। पश्चिम में जब राष्ट्र बन रहे थे तब एक निश्चित भूभाग संप्रभुता, आबादी और भाषा के साथ जो सबसे प्रमुख तत्व इसमें नत्थी था वह था इसके निवासियों का सामूहिक स्वार्थ। इसी सामूहिक स्वार्थ की व्याख्या हमारा संविधान अवसर की समानता के रूप में करता है।

लेकिन पश्चिम का राष्ट्रवाद एक स्थिति में आकर भयावह हो गया और आज वहां उसकी कोई चर्चा भी नहीं करना चाहता। इस राष्ट्रवाद की तख्ती लेकर यूरोप ने दो-दो विश्वयुद्ध किये और तबाह हो गए। कुल मिलाकर यह राष्ट्रवाद एक ऐसा भयावह देवता साबित हुआ, जिसने मानव समाज की सबसे ज्यादा बलि ली। इसी परिप्रेक्ष्य में हमारे महान कवि और चिंतक रवींद्रनाथ टैगोर ने इसकी तीखी आलोचना की। 14 अप्रैल, 1941 को, यानी मृत्यु के कुछ ही समय पूर्व कवि ने ‘सभ्यता का संकट’ शीर्षक से एक लेख लिखा और व्याख्यान दिया। प्रधानमंत्री जी, आपको समय निकालकर वह लेख पढऩा चाहिए।

rohithभारत में औद्योगिक क्रांति नहीं हुई और पूंजीवाद भी सामंतवाद के रक्त मांस मज्जा के साथ विकसित हुआ। इसलिए यहां पश्चिम की तरह का नहीं एक अजूबे किस्म का राष्ट्रवाद विकसित हुआ। इसका राजनीतिक पक्ष उपनिवेशवाद के खिलाफ रहा तो सामाजिक पक्ष पुरोहितवाद के खिलाफ। दोनों स्थितियों में मुक्ति की कामना इसका अभीष्ट रहा। इसके निर्माण में एक तरफ तिलक, गांधी और सुभाष, भगत सिंह की कोशिशें थीं तो दूसरी ओर ज्योतिबा फुले, रानाडे, आंबेडकर जैसे लोग सक्रिय थे। उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद सामाजिक आर्थिक वर्चस्व से मुक्ति की कामना ही अधिक प्रासंगिक हो गया। जवाहरलाल नेहरू ने सच्चे राष्ट्रनायक की तरह नये भारत की रूप-रेखा बनाई और उसमें प्रतिगामी सोच के लिए कोई जगह नहीं रखी। नये भारत के निर्माण के लिए उन्होंने साधू-संन्यासियों की जगह वैज्ञानिकों, मजदूरों और किसानों का आह्वान किया। देश में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने पर जोर दिया।

लेकिन प्रधानमंत्री जी, आप राष्ट्रवाद की इस धारा की बात नहीं करते। आप का राष्ट्रवाद शिवाजी, सावरकर और गोलवलकर का रहा है जो हमेशा विवादों में रहा है। सावरकर, गोलवलकर का राष्ट्रवाद भारतीय नहीं हिंदू है। इसके लिए हमेशा एक अवलंब राष्ट्र चाहिए जैसे कोई दूसरा धार्मिक राष्ट्र। शिवाजी के वक्त उनका जो हिंदवी राज्य था वह मुगल राज के सापेक्ष था और सावरकर का हिंदुत्व इस्लाम के सापेक्ष। हेडगेवार गोलवलकर का हिंदू राष्ट्रवाद भी मुस्लि या इसाई राष्ट्रवाद के सापेक्ष ही संभव होगा। लेकिन भारतीय राष्ट्र की विशेषता इसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है जिसमें अवसर की समानाता विकसित करने की अकूत क्षमता है।

जहां तक मैंने समझा है जवाहरलाल नेहरू वि.वि. इस राष्ट्रवाद की सबसे खूबसूरत पाठशाला है। वहां कभी-कभार जाता रहा हूं और मैंने अनुभव किया है कि जैसे भयमुक्त भारत की कामना कवि टैगोर ने की थी वैसा ही भारत वहां के ज्यादातर छात्र गढऩा चाहते हैं। सच है कि वहां मार्क्सवादियों का गढ़ था और एक हद तक अभी भी है। मनुवादियों ने मार्क्सवादियों को तो बखूबी बर्दाश्त किया लेकिन इधर परेशानी होने लगी जब वहां नए छात्र फूले आंबेडकरवाद बांचने लगे और मार्क्सवादियों ने पहली दफा उनसे हाथ मिलाया। पहली घटना तो महिषासुर प्रसंग को लेकर हुई। मनुवादी छात्र वहां दुर्गा की पूजा करने लगे थे। फूले आंबेडकरवादी छात्रों ने महिषासुर दिवस का आयोजन किया। दुर्गा और महिषासुर इतिहास के हिस्से नहीं है हमारी पौराणिकता के हैं, और प्रधानमंत्री जी, केवल वर्चस्व प्राप्त तबकों का ही इतिहास नही होता केवल उन्हीं की पौराणिकता, केवल उनहीं की संस्कृति नहीं होती। शासित तबकों का भी, तथाकथित ‘नीच’ लोगों का भी – जो चुनाव के वक्त आप भी बन गए थे – एक इतिहास होता है, उनकी पौराणिकता भी होती है। वर्चस्व प्राप्त तबकों की पौराणिकता में दुर्गा हैं तो दलित, पिछड़े तबकों की पौराणिकता में महिषासुर। आपने देवासुर संग्राम के बारे में सुना होगा। वर्चस्व प्राप्त लोग अपनी पौराणिकता के बहाने अपने वर्चस्व को धार देते हैं, समाज के पीछे रह गए लोग अपनी पौराणिकता की नई व्याख्या कर सांस्कृतिक प्रतिकार-प्रतिरोध करते हैं। वर्चस्व प्राप्त लोग राम की पूजा करने के लिए कहते हैं हमें अपने शंबूक की याद आती है जिसकी गर्दन राम ने केवल इसलिए काट दी थी कि वह ज्ञान हासिल करना चाहता था। आपने कभी सोचा है कि एक दलित पिछड़े वर्ग से आये खिलाड़ी को कभी अर्जुन पुरस्कार मिलेगा तब उसे कैसा लगेगा। उसके मन में अपने एकलव्य की याद क्या नहीं आएगी?

आप जरा कलेजे पर हाथ रखकर सोचिए प्रधानमंत्री जी, कि महिषासुर, शंबूक और एकलव्य कौन थे? वे विदेशी थे या विधर्मी? उनकी चर्चा करना, उनको रेखांकित करना आपको राष्ट्रद्रोही कदम लगता है। अब अपने संघ के लोगों को कहिये कि वे अपने हिंदुत्व पर पुनर्विचार करें। उनका भारत तो अखंड भारत नहीं ही है उनका हिंदुत्व भी अखंड नहीं है। खंडित हिंदुत्व है उनका, ब्राह्मण-हिंदुत्व है। आपके लोग इसी हिंदुत्व की बात करते हैं।

हम जे.एन.यू की ओर एक बार फिर चलें। 9 फरवरी, 2016 की घटना थी। यदि किसी छात्र ने देश विरोधी नारे लगाये हैं तो यह गलत है। जैसा कि मुझे बताया गया है कि भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने जैसे जुमले बोले गए। मैं इसकी तीखी भत्र्सना करना चाहूंगा। किसी की बर्बादी की बात हमें नहीं करनी चाहिए। पाकिस्तान की भी नहीं। वह हमारा पड़ोसी है, फले-फूले। दुनिया के तमाम देश फले-फूले। आपका एक नारा मुझे सचमुच पसंद है सबका साथ, सबका विकास। लेकिन यह जमीन पर तो उतरे।

प्रधानमंत्री जी, वि.वि. इसी के लिए तो बनते हैं। वहां अनेक देशों के लोग पढ़ते हैं। पुराने जमाने में जब हमारे यहां नालंदा था चीन के ह्वेनसांग और फाहियान वहां पढऩे आये थे। ब्रिटिश काल में भी हमारे लोग ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जाते थे। आपको पता होगा भारतीय छात्र वहां भारत की आजादी पर भी चर्चा करते थे। उनका संगठन था। उनकी कार्यवाही थी लेकिन ब्रिटेन के लोगों ने इसके लिए उनपर देशद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया। आपके सावरकर भी वहां पढऩे गए थे और अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस: 1857’ उन्होंने ब्रिटेन में रहकर पूरी की। वहीं उन्होंने ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ की स्थापना की। हमें भी अपनी यूनिवर्सिटियों को इतनी आजादी देनी चाहिए कि वहां लोग मुक्त मन से विचार कर सकें। विश्वविद्यालय में जो विश्व शब्द है उस पर ध्यान दीजिये। आप उसे संघ का शिशुमंदिर बनाना चाहते हैं? यूनिवर्सिटियां मानव जाति पर समग्रता से विचार करती हैं, उसे देशभक्ति की पाठशाला मत बनाइए। हममें तो अभी वि.वि. पालने का शउर ही विकसित नहीं हुआ है। मान लीजिये जे.एन.यू में सौ-दो सौ पाकिस्तानी छात्र पढ़ते तो वह पाकिस्तान की बात नहीं करेंगे। विदेशों में हमारे छात्र पढ़ते हैं तो अपने भारत की बात नहीं करते हैं?

थोड़ी बात काश्मीर मुद्दे पर भी कर लें। अफजल गुरु पर कतिपय छात्रों ने चर्चा की। इसके लिए इतना कोहराम मचाकर हमने केवल कश्मीरी समस्या को रेखांकित ही किया है। यह हमारा मूर्खतापूर्ण कदम कहा जाएगा। कश्मीर की समस्या पूरे भारत की समस्या से कुछ अलग और जटिल है। आपने वहां उस पी.डी.पी. के साथ सरकार बनाई, जो अफजल को शहीद मानता है। आपका कदम सही है। सरकार बनाकर आपने संवाद बनाने की कोशिश की है। संवाद बनाकर ही बातें आगे बढ़ती है, बढऩी चाहिए यही तरीका है। पाकिस्तान की बार-बार की हरकतों के बावजूद हम उससे संवाद बनाने की कोशिश करते हैं काश्मीर तो अपना है। और मैं समझता हूं कि काश्मीर के मसले को आप मुझसे बेहतर समझते हैं क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार आप कुछ समय तक वहां रहे हैं। काश्मीर की समस्या थोड़ा पेचीदा है, वह ब्रिटिश भारत का हिस्सा नहीं था, अलग रियासत था। वह एक खास परिस्थिति में भारत से जुड़ा, जो स्वाभाविक था। इस तरह उसकी स्थिति कुछ वैसी है जैसा किसी परिवार में गोद लिए बच्चे की होती है इसलिए हमारे संविधान में वहां के लिए एक विशेष धारा है। ऐसी धाराओं का सम्मान होना चाहिए। ऐसी ही धाराओं की बदौलत भविष्य में कभी अन्य देश भी भारतीय संघ में जुड़ सकते हैं। इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल भी हो सकता है। हमें सपने देखने नहीं छोडऩे चाहिए। सपने कभी सच भी होते हैं।

तो प्यारे प्रधानमंत्री जी, नाराज नागरिकों, खासकर युवाओं से संवाद विकसित करना चाहिए, तकरार नहीं। दंड देकर, जबर्दस्ती देशभक्ति नहीं थोपी जा सकती। मुझे उन नाराज नौजवानों से अधिक खतरा आपके उन भक्तों से है जो राष्ट्रवाद की ताबीज-कंठी लटकाकर देश को लूट रहे हैं। कभी आपने अपने मित्र बड़े अंबानी से नहीं पूछा कि भाई जिस देश में किसान, छोटे-छोटे कर्जां को लेकर आत्महत्या कर रहे हैं, वहां तुम हजार करोड़ का अपना घर क्यों बना रह हो? आपने पूंजीपतियों के लिए लाखों करोड़ के कर्ज माफी की घोषणा की है लेकिन भारत के किसानों-मजदूरों की चिंता आपको नहीं है। हैदराबाद वि.वि. का एक होनहार छात्र रोहित वेमुला आत्महत्या करने पर मजबूर हुआ। आपको इसपर रोना भी आया। आपको समझ सकता हू। आप ही के शब्दोंमें आप नीच जात हो, पिछड़ी जमात के आदमी हो, मार्क्सवादी शब्दावली के सर्वहारा हो आप, बचपन में चाय बेचने वाले, दूसरों के घर मजदूरी करनेवाली महान मां के बेटे। आप पर कुछ भरोसा है। आपसे संवाद करने से बात बन सकती है। कुछ समय पहले आंबेडकर की मूरत पर जब आप माला चढ़ा रहे थे तब मेरे मन में ख्याल आया था कि काश उनके विचारों की माला अपने गले में डाल लेते। एक मौन क्रांति हो जाती। इसीलिए विवेकानंद के शब्द उधार लेकर कहना चाहूंगा कि उठो, जागो और रूको नहीं। तुम्हारे संस्कार संघ के संस्कार नहीं हैं, तुम मनुवादियों के घेरे से विद्रोह करो, उन्हें ध्वस्त करो। उनका देश झूठा है, राष्ट्र झूठा है, धर्म झूठा है। आप झूठ के लाक्षागृह से निकल जाओ मोदी जी। आपका तो कम, राष्ट्र का ज्यादा भला होगा।

 

सादर, आपका

प्रेमकुमार मणि

 

लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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