सामाजिक न्याय क्या है, इसकी कोई सुनिर्दिष्ट परिभाषा नहीं है किन्तु देश-विदेश के विभिन्न समाजविज्ञानियों ने इस पर जो रोशनी डाली है, उसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि जन्मगत (जाति, नस्ल, रंग, लिंग, धर्म इत्यादि) कारणों से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक इत्यादि) से दूर धकेले गए तबकों को उनका प्राप्य दिलाने के लिए किया जाने वाला प्रयास ही सामाजिक न्याय है। अब अगर शक्ति के स्रोतों से समूह विशेष का बहिष्कार सामाजिक अन्याय है, तो यह मानने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि जिस वर्ण-व्यवस्था द्वारा भारत का समाज सदियों से परिचालित होता रहा है, वह व्यवस्था विश्व की सर्वाधिक अन्यायकारी व्यवस्था है। इसी के कारण देश में सामाजिक अन्याय का सबसे शर्मनाक अध्याय रचित हुआ। यह विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के असमान बंटवारे के दूरगामी उद्देश्य से विदेशी मूल के मनीषियों (आर्यों) द्वारा प्रवर्तित रही। इसमें अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, राज्य संचालन में मंत्रणा, राज्य संचालन, सैन्य-वृति, व्यवसाय-वाणिज्य इत्यादि के अधिकार सिर्फ द्विज वर्ग के हिस्से में रहे। चूँकि इस व्यवस्था में कर्म-संकरता की निषेधाज्ञा और कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता थी, इसलिए सारे पेशे/कर्म, जाति/वर्ण सूत्र से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांरित होते रहे। इसलिए वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया। इस आरक्षण व्यवस्था में दलित-आदिवासी-पिछड़े और महिलाओं को शक्ति के सभी प्रमुख स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत कर चिरकाल के लिए अशक्त बना दिया गया। वर्ण-व्यवस्था के अशक्तों में अस्पृश्यों की स्थिति, मार्क्स के सर्वहाराओं से भी बहुत बदतर थी। मार्क्स के सर्वहारा सिर्फ आर्थिक दृष्टि से विपन्न थे पर राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक क्रियाकलापों में उनकी भागीदारी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। इसके विपरीत, भारत के दलित सर्वहारा थे जिनके लिए आर्थिक, राजनीतिक के साथ ही धार्मिक और शैक्षणिक गतिविधियां भी धर्माधारित विधानों से पूरी तरह निषिद्ध रहीं। यही नहीं, लोग उनकी छाया तक से दूर रहते थे। ऐसी स्थिति दुनिया के किसी भी मानव समुदाय की कभी नहीं रही। यूरोप के कई देशों की सम्मिलित आबादी और संयुक्त राज्य अमेरिका के समपरिमाण संख्यक सम्पूर्ण अधिकारविहीन इन्हीं मानवेतरों की जिंदगी में सुखद बदलाव लाने का असंभव सा संकल्प लिया था।
डॉ. आंबेडकर ने दलितों को सशक्त बनाने के लिए क्या किया? उन्होंने सदियों से शक्ति के सभी स्रोतों से बहिष्कृत किये गए मानवेतरों के लिए संविधान में ‘आरक्षण’के सहारे सरकारी नौकरियों और राजनीति में हिस्सेदारी सुनिश्चित कराई। आंबेडकर-प्रवर्तित आरक्षण और कुछ नहीं, बस जाति, नस्ल, रंग, लिंग, धर्म इत्यादि के कारण शक्ति के स्रोतों से जबरन वंचित किये गए लोगों को कानून के जोर से शक्ति के स्रोतों में उनका प्राप्य दिलाने का अचूक औजार मात्र है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 15(4), 16(4), 17, 24, 25(2), 29(1), 164(1), 244, 257(1), 320(4), 330, 332, 334, 335, 338, 341, 342, 350, 371(ए)(बी)(सी)(इ)(एफ) के प्रावधानों के जरिये सामाजिक अन्याय के सर्वाधिक शिकार एससी/एसटी को राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षिक व सामाजिक संरक्षण प्रदान कर उनके विकास का मार्ग प्रशस्त करने का अनुकरणीय दृष्टांत कायम किया। यही नहीं, उन्होंने संविधान में अनुच्छेद 340 का जो प्रावधान किया वह परवर्तीकाल में पिछड़ों को भी सामाजिक अन्याय से उबारने में काफी कारगर साबित हुआ। बहरहाल, डॉ.आंबेडकर द्वारा संविधान के जरिये आरक्षण के प्रयोग का परिणाम चमत्कारिक रहा। जिन दलितों के लिए स्कूल की पढ़ाई करने की कल्पना करना दुष्कर था, वे झुण्ड के झुण्ड एमएलए, एमपी, आईएएस, पीसीएस, डाक्टर, इंजीनियर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुडऩे लगे।
आंबेडकरी आरक्षण का प्रयोग अमेरिका, इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, मलेशिया, आयरलैंड ने अपने-अपने देशों के जन्मजात वंचितों को शक्ति के स्रोतों में उनकी वाजिब हिस्सेदारी देने के लिए किया। ऐसे में आरक्षण के जरिये दुनिया के जन्मजात वंचितों को जिस तरह शक्ति के स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी मिली, उसके आधार पर डॉ.आंबेडकर को सामाजिक न्याय का चैम्पियन कहा जा सकता है।
बहरहाल, संविधान द्वारा सामाजिक अन्याय के शिकार बनाये गए लोगों के हित में तरह-तरह का प्रावधान किये जाने से कुछ लोगों के जीवन में चमत्कारिक बदलाव आया किन्तु शक्ति के स्रोतों से उनका बहिष्कार नाममात्र ही दूर हो पाया। राजनीति में भले ही इनकी कुछ हिस्सेदारी हो किन्तु उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया व पौरोहित्य इत्यादि से आज भी लगभग वे पूरी तरह बहिष्कृत हैं। आज भी देश के 8-10 प्रतिशत अल्पजन परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न वर्ग का, शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है। इस कारण आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी, जो कि मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है, का भीषणतम साम्राज्य भारत में कायम है। इस विषय में हाल ही में क्रेडिट सुइसे नामक एजेंसी ने वैश्विक धन बंटवारे पर जो अपनी छठवीं रिपोर्ट प्रस्तुत की है, वह काबिले गौर है। रिपोर्ट बताती है कि सामाजिक-आर्थिक न्याय के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद भारत में आर्थिक गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही है। रिपोर्ट के मुताबिक, 2000-15 के बीच जो कुल राष्ट्रीय धन पैदा हुआ उसका 81 प्रतिशत शीर्ष की दस प्रतिशत आबादी अर्थात विशेषाधिकारयुक्त वर्ग के पास गया। जाहिर है कि शेष 90 प्रतिशत जनता के हिस्से में 19 प्रतिशत धन आया। 19 प्रतिशत धन की मालिक 90 प्रतिशत आबादी में भी नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के हिस्से में 4.1 प्रतिशत धन आया है। इस रिपोर्ट पर टिप्पणी करते हुए एक अखबार ने लिखा- ‘गैर-बराबरी अक्सर समाज में उथल-पुथल की वजह बनती है। सरकार और सियासी पार्टियों को इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए। संसाधनों और धन का न्यायपूर्ण पुनर्वितरण कैसे हो, यह सवाल अब प्राथमिक महत्व का हो गया है।’कहने का आशय यह कि स्वाधीन भारत में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक न्याय के विविध उपायों के बावजूद सामाजिक अन्याय की धारा आज भी पूर्ववत जारी है। ऐसे में क्या किया जाय कि देश में मुकम्मल रूप से सामाजिक अन्याय का खात्मा और समतामूलक समाज की स्थापना हो?
इसके लिए बेहतर यही होगा कि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी को सबसे बड़ी समस्या मानते हुए हम सारा जोर, शक्ति के स्रोतों के पुनर्वितरण पर लगायें। दुनिया के तमाम महामानवों ने इसी को इन्सानियत की सबसे बड़ी समस्या बताया। बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने भी 25 नवम्बर, 1949 को आर्थिक और सामाजिक विषमता को राष्ट्र की सबसे बड़ी समस्या बताते हुए इसे कम से कम समय में ख़त्म करने का आह्वान किया था। बहरहाल अगर सामाजिक न्याय के लिए आर्थिक और सामाजिक विषमता को सबसे बड़ी समस्या मानते हुए हम आगे की लड़ाई लडऩा चाहते हैं तो सबसे पहले इसकी उत्पत्ति के कारणों को जान लेना परमावश्यक है। बिना इसे जाने हम अंधेरे में हाथ-पैर मारते रहेंगे।
पूरी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक विषमता की उत्पत्ति समाज में शक्ति के स्रोतों का विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के मध्य असमान बंटवारे से होती रही है। थोड़ा और परिष्कृत रूप में कहना हो तो यही कहा जायेगा कि दुनिया के तमाम शासक ही शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का असमान प्रतिबिम्बन कराकर मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या को जन्म देते रहे हैं। ऐसे में, अगर विषमता का कारण यह है और राष्ट्र यदि सामाजिक अन्याय के खात्मे के लिए शक्ति के स्रोतों के पुनर्वितरण का मन बनाता है तो निम्नलिखित क्षेत्रों में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन कराने अर्थात विविधतामय भारत के चार प्रमुख सामाजिक समूहों-सवर्णों, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों – के स्त्री-पुरुषों के संख्यानुपात में अवसरों के बंटवारे का विचार करे :-
1-सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों,
2-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप
3-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीददारी
4-सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन
5-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन, प्रवेश व अध्यापन
6-सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों,उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि
7-देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ)को दी जानेवाली धनराशि
8-प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों
9-रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खाली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए भूमिहीन अस्पृश्य-आदिवासियों के मध्य वितरित हो
10-ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट; विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद राज्यसभा; राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन हो।
फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित
Thanks for sttairng the ball rolling with this insight.
Outstanding perspective with insightful comprehension on social and economical injustice…