h n

भारतीय राजनीति की ‘ओबीसी’ प्रवेशिका

ओबीसी को अवशिष्ट पिछड़ों के रूप में देखने की बजाए उसे एक सक्रिय अर्थपूर्ण कैटेगरी के रूप में देखा जाना चाहिए, जो स्वाधीन भारत के सबसे दुग्र्राह्य राजनीतिक समूह -'उच्च' या 'अगड़ी’-जातियों को परिभाषित करने में हमारी मदद करता है

पिछली चौथाई सदी में तीन अक्षरों वाले जिन संक्षेपाक्षरों ने भारतीय राजनीति को आकार दिया, उनमें अन्य पिछड़ा वर्ग-ओबीसी-का एक विशिष्ट स्थान है। जहां औपचारिक रूप से सत्ता यूपीए (युनाईटेड प्रोग्रेसिव एलायंस) व एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस) के हाथों में थी, वहीं इसमें कोई संदेह नहीं कि इस अवधि में हमारी राजनीति को दिशा देने में ओबीसी ने निर्णायक भूमिका अदा की।

नरेन्द्र मोदी की 2014 के आमचुनाव में जबरदस्त विजय को कुछ लोगों ने इस आधार पर जाति की राजनीति का अंत निरूपित किया था क्योंकि इस जीत में ओबीसी की एक समूह के रूप में निर्णायक भूमिका नहीं थी। 18 माह बाद, जब मोदी के नेतृत्व में बिहार चुनाव में भाजपा की निर्णायक हार हुई, तब यह साफ  हो गया कि जाति की राजनीति के अंत के कयास अतिश्योक्तिपूर्ण थे। ओबीसी को भारतीय राजनीति में एक शक्तिशाली समूह तो माना जाता है परंतु उसकी उपस्थिति को केवल एक निर्विवाद तथ्य के रूप में स्वीकार किया जाता हैै। यह एक गलत धारणा है, क्योंकि ओबीसी केवल एक राजनीतिक लेबिल या संविधान में वर्णित एक समूह नहीं है वरन् वह एक अनूठा व उर्वर वर्ग है, जिसके संबंध में गहन चिंतन किया जाना आवश्यक है।

प्रजातंत्र को मजबूती?

ओबीसी को एक वैचारिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने के लिए हमें इस पारंपरिक सोच से बचना होगा कि ओबीसी केवल ‘पिछड़ों’का अवशिष्ट समूह है – अर्थात वे पिछड़े वर्ग जो अनुसूचित जाति या जनजाति के अंतर्गत नहीं आते। ओबीसी को अवशिष्ट पिछड़ों के रूप में देखने की बजाए उसे एक सक्रिय अर्थपूर्ण कैटेगरी के रूप में THIRD FRONT MEETINGदेखा जाना चाहिए, जो स्वाधीन भारत के सबसे दुराग्रह राजनीतिक समूह -‘उच्च’या ‘अगड़ी’-जातियों को परिभाषित करने में हमारी मदद करता है। जब केवल अनुसूचित जातियों व जनजातियों की गणना होती थी तब ऊँची जातियां, ‘सामान्य वग’के झंडे तले बिना अपनी अलग पहचान दर्शाए, ओबीसी के साथ चलतीं थीं और यह सामान्य वर्ग भारत की कुल आबादी का तीन-चौथाई था।

मंडल क्रांति के बाद, ओबीसी को एक अलग सुस्पष्ट पहचान मिली और भारतीय राजनीति का ‘जगजाहिर रहस्य’सबके सामने आ गया। वह यह कि हिन्दू उच्च जातियां, जो कि कुल आबादी की 15-20 प्रतिशत से अधिक नहीं थीं, भारत की सबसे शक्तिशाली और सिरचढ़ी अल्पसंख्यक समूह थी। इस खुलासे के बाद, वे राजनीतिक समूह, जिनका मूल जनाधार हिन्दू उच्च जातियां थीं, को अपनी अधिक व्यापक पहचान स्थापित करने के लिए मजबूर होना पड़ा और (कुछ हद तक) हिन्दुत्व, मंडल की प्रतिक्रिया के रूप में उभरा। हम चाहे इसे जाति की ओर से आंख मूंदने के बचकाने ‘नेहरूवाद’से किनारा करने और प्रजातंत्र की जड़ों के मजबूत होने के रूप में देखें या न देखें, परंतु इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक विशिष्ट वर्ग के रूप में ओबीसी का निर्माण कर, मंडल क्रांति ने भारतीय राजनीति को एक नई स्पष्टता प्रदान की।

ओबीसी वर्ग हमें राजनीति को समझने और उसकी व्याख्या करने में इसलिए मदद करता है क्योंकि वह कम से कम तीन विशिष्ट अर्थों में हमारी राजनीति के केन्द्र में है। इनमें से पहला है संख्या। वे आबादी का लगभग 42 प्रतिशत हैं और अखिल भारतीय स्तर पर देश के सबसे बड़े अकेले समूह हैं। और इसलिए, किसी भी पार्टी को अपनी रणनीति बनाते समय उन्हें ध्यान में रखना ही होगा। किसी भी तरह के राजनीतिक गठबंधन में उन्हें किसी न किसी रूप में शामिल करना अपरिहार्य होगा। परंतु यह पूरा सच नहीं है। और इसका कारण यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर कोई एकसार ‘ओबीसी’ समूह नहीं है, बल्कि राज्य स्तर पर भी ऐसे समूहों का अस्तित्व नहीं है। यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि एक वर्ग के रूप में ओबीसी हमें सिखाता है कि समकालीन राजनीति में पुराने जनाधारों को पुनर्विभाजित कर नए चुनावी गठजोड़ बनाने होंगे।

ओबीसी, राष्ट्रीय स्तर पर आबादी का एक बड़ा समूह है,  जिसमें 50 करोड़ से अधिक लोग शामिल हैं और जो अगर एक अलग देश होते तो वह देश, भारत (ओबीसी घटाकर) और चीन के बाद, दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश होता। यह वर्गीकरण हमें यह भी बताता है कि इसी तरह के दूसरे वर्ग, जिनमें ‘हिन्दू’शामिल हैं, के एकसार होने के दावों में कोई दम नहीं है। ओबीसी हमें यह भी याद दिलाते हैं कि तीन-चैथाई हिन्दू, ‘नीची जातियो’ (और आधे ओबीसी) के हैं और ऊँची जातियां, हिन्दुओं की आबादी का केवल एक-चैथाई हिस्सा हैं। यह भी सही है कि ओबीसी का एक वर्ग के रूप में निर्माण करते समय, सैकड़ों जातियों व दर्जनों जाति समूहों, जो इसमें शामिल हैं, के बीच के अंतरों को नजरअंदाज किया गया है। बहुत व्यापक संदर्भों को छोड़कर, व्यावहारिक राजनीति और राजनीतिक विश्लेषण के लिए यह आवश्यक है कि ओबीसी का आंतरिक वर्गीकरण किया जाए। चूंकि ओबीसी वर्ग के अंदर जुड़ाव और अलगाव की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है, इसलिए यह वर्ग इस प्रक्रिया को समझने में हमारी मदद कर सकता है। उदाहरणार्थ, हालिया बिहार चुनाव में राजनीतिक दलों ने विद्यमान समूहों को बांटने और उन्हें नए गठबंधनों से जोडऩे के लिए भारी कवायद की। पुराने एकाश्म समूहों जैसे दलित, ओबीसी या मुसलमान का स्थान अब विभिन्न नए समूहों ने ले लिया है, जिनमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), अति पिछड़ा वर्ग (एमबीसी), महादलित व पसमांदा मुसलमान शामिल हैं। इन नए वर्गों के उभार ने राजनीति को और जटिल बनाया है।

एक दूसरा अर्थ, जिसमें ओबीसी हमारी राजनीति के केन्द्र में हैं, का संबंध जाति से है। दलित और उच्च जातियां भारतीय जातिगत पदक्रम के दो छोर हैं और ओबीसी इन दोनों छोरों के बीच हैं। अत: वे जाति से जुड़े विशेषाधिकारों और उससे जुड़ी वंचनाओं, दोनों को भोग रहे हैं, यद्यपि इस मामले में अलग-अलग जातियों की स्थिति अलग-अलग है। इसलिए ओबीसी वह वर्ग है जो जाति की बदलती भूमिका और पहचान के अन्य पैमानों (जैसे वर्ग, क्षेत्र या धर्म) की तुलना में उसके महत्व, के संबंध में महत्वपूर्ण परंतु कठिन प्रश्नों को जन्म दे रहा है।

चूंकि ओबीसी के अंतर्गत आने वाली जातियों को उतने गहरे व कठोर पूर्वाग्रहों का सामना नहीं करना पड़ता, जितना कि दलितों को, इसलिए वर्गीय दर्जे में परिवर्तन का जाति पर प्रभाव, उनके मामले में अधिक स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। ओबीसी का अध्ययन कर हम यह सीख सकते हैं कि समकालीन दुनिया में जाति किस तरह से नए स्वरूप में सामने आ रही है और उसमें क्या परिवर्तन हो रहे हैं। एक दूसरे कोण से देखने पर हमें यह स्पष्ट हो जाएगा कि ओबीसी ही वह समूह है जिसके सदस्यों ने जाति व्यवस्था के दोनों पहलुओं का अनुभव किया है। जहां उच्च जातियां उन्हें नीची निगाहों से देखती हैें वहीं वे स्वयं अपने से नीची जातियों के प्रति भेदभाव करते हैं। हम सबको पता है कि तमिलनाडु से लेकर हरियाणा और गुजरात से लेकर असम के कस्बों व गांवों में दलितों का सर्वाधिक उत्पीडऩ करने वाली जातियां, ओबीसी वर्ग की हैं।

संक्षेप में, ओबीसी जैसे दर्मियानी समूहों की जाति व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका है। यह व्यवस्था, उनके साथ क्या करती है और वे इस व्यवस्था के साथ क्या करते हैं, इससे काफी हद तक यह निर्धारित होगा कि हम जाति से ऊपर उठने के अपने प्रजातांत्रिक लक्ष्य तक कब और कैसे पहुंचेंगे।

क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति

तीसरा अर्थ, जिसमें ओबीसी हमारी राजनीति के केन्द्र में हैं, का संबंध क्षेत्रीय व राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका से है। स्वतंत्रता के पहले और उसके तुरंत बाद तक, जाति का प्रश्न केवल उन लोगों तक सीमित था जिन्हें ‘अछूत’माना जाता था। गैर-दलित नीची जातियों की समस्याओं को दूर करने का केन्द्र सरकार का पहला प्रयास, प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन था, जिसकी 1955 में प्रस्तुत रपट को भारत सरकार ने खारिज कर दिया था। उस समय ‘जाति की ओर से आंख मूंदने’वाला नेहरूवाद अपने चरम पर था और जाति को राष्ट्रीय विमर्श में कोई स्थान नहीं दिया जाता था। परंतु 1960 का दशक आते-आते, जाति, क्षेत्रीय राजनीति का ऐसा पहलू बन गई, जिसे नजरअंदाज करना असंभव था। अधिकांश राज्यों में दर्मियानी जातियों के शक्तिशाली समूहों का उदय हुआ, जिनकी संख्या और भू संपदा के चलते वे राज्य स्तर के चुनावों के लिए महत्वपूर्ण बन गए। राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव जीतने के लिए यह आवश्यक था कि राज्यों में चुनाव जीते जाएं। परंतु कांग्रेस के वर्चस्व वाले युग-जो जवाहरलाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक चला-में ‘कांग्रेस व्यवस्था’के कारण क्षेत्रीय राजनीति को समुचित महत्व नहीं मिल सका। यह केवल संयोग नहीं था कि 1990 के दशक के उत्तर-मंडल काल में राष्ट्रीय रंगमंच पर दर्मियानी जातियों के आगमन के बाद ही गठबंधन की राजनीति का उदय हुआ व राजनीति का संघीय ढांचा अस्तित्व में आया। क्रिस्टोफर जेफरलॉट व गाइल्स वर्नियर्स जैसे राजनीति विज्ञानियों ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि 1980 के उत्तरार्ध से लेकर 2004 के बीच, लोकसभा, भारत की जातिगत संरचना को बेहतर ढंग से प्रतिबिंबित करने लगी। इस अवधि में ऊँची जातियों के सांसदों का प्रतिशत 50 से घटकर 34 रह गया जबकि ओबीसी सदस्यों का प्रतिशत 11 से बढ़कर 26 हो गया। इसका मुख्य कारण ओबीसी के बोलबाले वाली क्षेत्रीय पार्टियों का उभार था।

पंरतु सन् 2009 के बाद से, इस रूझान में परिवर्तन आया क्योंकि क्षेत्रीय पार्टियों का प्रभाव कम होने लगा। सन् 2014 के चुनाव के बाद गठित लोकसभा में ऊँची जातियों के सांसदों का प्रतिशत बढ़कर 45 हो गया और ओबीसी का घटकर 20 रह गया। इन आंकड़ों से यह पता चलता है कि ओबीसी ने एक समय प्रजातंत्र को अधिक व्यापक स्वरूप देने में क्या योगदान दिया था। परंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इनसे ऊँची जातियों के इस दावे की असत्यता सामने आती है कि ओबीसी ने राजनीति पर ‘कब्जा’कर लिया है।

कुल मिलाकर, ओबीसी वर्ग के बारे में विचार करना इसलिए वांछनीय है क्योंकि वह राजनीति के ऐसे सक्रिय व तेजी से परिवर्तित हो रहे तबके का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे कोई भी अन्य तबका नजरअंदाज नहीं कर सकता। अपने आकार और इस तथ्य के मद्देनजर कि वह एक दूसरे से भिन्न तत्वों का समूह है, इस वर्ग की आंतरिक गतिशीलता, समकालीन राजनीति के विकास की दिशा पर प्रकाश डालती है। हमारी राजनीति के अच्छे, बुरे व कुरूप पक्षों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर, ओबीसी वह वर्ग बन गया है जो भारतीय राजनीति के अध्ययन की प्रवेशिका है।

(यह आलेख 6 नवंबर, 2015 को ‘द हिन्दू’में प्रकाशित लेख का अद्यतन संस्करण है।)

(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

सतीश देशपांडे

डॉ. सतीश देशपांडे दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में प्राध्यापक हैं। वे 'कंटेम्परेरी इंडिया: ए सोश्योलाजिकल व्य’ (2003) के लेखक व 'अनटचेबिलिटी इन रूरल इंडिया' (2006) के सह-लेखक हैं

संबंधित आलेख

पुष्यमित्र शुंग की राह पर मोदी, लेकिन उन्हें रोकेगा कौन?
सच यह है कि दक्षिणपंथी राजनीति में विचारधारा केवल आरएसएस और भाजपा के पास ही है, और उसे कोई चुनौती विचारहीनता से ग्रस्त बहुजन...
महाराष्ट्र : वंचित बहुजन आघाड़ी ने खोल दिया तीसरा मोर्चा
आघाड़ी के नेता प्रकाश आंबेडकर ने अपनी ओर से सात उम्मीदवारों की सूची 27 मार्च को जारी कर दी। यह पूछने पर कि वंचित...
‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा में मेरी भागीदारी की वजह’
यद्यपि कांग्रेस और आंबेडकर के बीच कई मुद्दों पर असहमतियां थीं, मगर इसके बावजूद कांग्रेस ने आंबेडकर को यह मौका दिया कि देश के...
इलेक्टोरल बॉन्ड : मनुवाद के पोषक पूंजीवाद का घृणित चेहरा 
पिछले नौ सालों में जो महंगाई बढ़ी है, वह आकस्मिक नहीं है, बल्कि यह चंदे के कारण की गई लूट का ही दुष्परिणाम है।...
कौन हैं 60 लाख से अधिक वे बच्चे, जिन्हें शून्य खाद्य श्रेणी में रखा गया है? 
प्रयागराज के पाली ग्रामसभा में लोनिया समुदाय की एक स्त्री तपती दोपहरी में भैंसा से माटी ढो रही है। उसका सात-आठ माह का भूखा...