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आंबेडकर का अल्पज्ञात स्त्रीवाद

जिन महिलाओं को आंबेडकर ने नेतृत्व दिया वे तो उनसे प्रभावित हुईं ही, आंबेडकर भी उनसे प्रभावित हुए बगैर न रह सके। लैंगिक मुद्दों के प्रति उनकी संवेदनशीलता का मुख्य स्त्रोत यही महिलाएं थी

डॉ. बीआर आंबेडकर को कई नामों से जाना जाता है। उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता, पददलितों का मसीहा, महान बुद्धिजीवी, प्रतिष्ठित विधिवेत्ता और असाधारण मेधा वाला अध्येता कहा जाता है। परंतु बहुत कम लोग, महिलाओं के अधिकारों और उनकी बेहतरी के प्रति आंबेडकर की प्रतिबद्धता से वाकिफ  हैं।

जो भी मंच उन्हें उपलब्ध हुआ, उसका उपयोग आंबेडकर ने लैंगिक दृष्टि से न्यायपूर्ण कानूनों के निर्माण की पैरवी के लिए किया। सन् 1928 में बंबई विधानपरिषद के सदस्य के रूप में, आंबेडकर ने उस विधेयक को अपना समर्थन दिया, जिसमें फैक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाओं को सवैतनिक मातृत्व अवकाश दिए जाने का प्रावधान था। उन्होंने कहा कि चूंकि नियोक्ता महिलाओं के श्रम से लाभ अर्जित करते हैं, इसलिए मातृत्व अवकाश के दौरान महिला कर्मियों को कम से कम आंशिक आर्थिक संबल प्रदान करना उनका कर्तव्य है। बाबा साहब ने कामकाजी महिलाओं द्वारा बच्चों को जन्म देने और उन्हें पालने-पोसने के आर्थिक और उत्पादक आयामों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया। यह इस बात का सुबूत है कि वे वर्गीय और लैंगिक, दोनों चेतनाओं से लैस थे। आंबेडकर का मानना था कि मातृत्व अवकाश के दौरान कामकाजी महिलाओं को दिए जाने वाले वेतन का आंशिक भार सरकार को वहन करना चाहिए, क्योंकि ”यह राष्ट्रहित में है कि प्रसव के पूर्व और उसके पश्चात, महिलाओं को आराम मिले।’’यह महिलाओं की मां के रूप में भूमिका के सामाजिक महत्व को मान्यता प्रदान करना था।

सन् 1938 में बंबई विधानमंडल के सदस्य बतौर आंबेडकर ने यह सिफारिस की कि महिलाओं को गर्भ-निरोधक उपायों का इस्तेमाल करने की सुविधा उपलब्ध करवाई जानी चाहिए। उनका तर्क था कि अगर किसी भी कारणवश, कोई महिला गर्भधारण न करना चाहे, तो उसे उसकी पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए। उनकी यह मान्यता थी कि गर्भधारण करने या न करने का निर्णय पूरी तरह से महिला पर छोड़ दिया जाना चाहिए। इस प्रकार, आंबेडकर ने गर्भधारण के मामले में, महिलाओं को चुनने की आजादी, पूर्ण नियंत्रण का अधिकार व अंतिम निर्णय लेने का हक देने की पैरवी की।

वाईसराय की कार्यकारी परिषद के श्रम सदस्य बतौर 1942 से 1946 के बीच आंबेडकर ने कई ऐसे प्रगतिशील कानूनों को पारित किया, जिनसे महिला श्रमिकों को कार्यस्थल पर बेहतर सुविधाएं मिल सकीं। इनमें आकस्मिक अवकाश, अर्जित अवकाश, विशेष अवकाश, पेंशन व कार्य के दौरान दुर्घटना की स्थिति में मुआवजे के प्रावधान संबंधी कानून शामिल थे। ये प्रावधान कुछ हद तक ‘ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेस महिला फेडरेशन’की 20 जुलाई 1942 को आयोजित परिषद में पारित किए गए प्रस्तावों पर आधारित थे। इन प्रस्तावों में कामकाजी महिलाओं के लिए ये सभी प्रावधान किए जाने की मांग की गई थी।

हिन्दू कोड बिल

स्वतंत्र भारत के पहले विधि मंत्री बतौर आंबेडकर ने 9 अप्रैल 1948 को संविधानसभा के समक्ष हिन्दू कोड बिल का मसविदा प्रस्तुत किया। इसमें बिना वसीयत किए मृत्यु को प्राप्त हो जाने वाले हिन्दू पुरूषों और महिलाओंं की संपत्ति के बंटवारे के संबंध में कानूनों को संहिताबद्ध किए जाने का प्रस्ताव था। यह विधेयक मृतक की विधवा, पुत्री और पुत्र को उसकी संपत्ति में बराबर का अधिकार देता था। इसके अतिरिक्त, पुत्रियों को उनके पिता की संपत्ति में अपने भाईयों से आधा हिस्सा प्राप्त होता।

हिन्दू कोड बिल दो प्रकार के विवाहों को मान्यता देता था-सांस्कारिक व सिविल। उसमें हिन्दू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और विवाह के विघटन संबंधी प्रावधान भी थे। किसी भी विवाहित व्यक्ति को विवाह की संविदा समाप्त करने के तीन रास्ते उपलब्ध थे-पहला, विवाह को शून्य घोषित करवाना, दूसरा, विवाह को अवैध घोषित करवाना और तीसरा, विवाह का विघटन। विधेयक में यह प्रावधान भी था कि किसी विवाह को अदालत द्वारा अवैध घोषित कर देने के बाद भी उससे उत्पन्न संतानों की वैधता प्रभावित नहीं होगी।

विवाह विच्छेद के लिए सात आधारों का प्रावधान था। 1- परित्याग, 2 – धर्मांतरण, 3 – रखैल रखना या रखैल बनना, 4 – असाध्य मानसिक रोग, 5 – असाध्य व संक्रामक कुष्ठ रोग, 6 – संक्रामक यौन रोग व 7- क्रूरता।

आंबेडकर द्वारा हिन्दू कोड बिल में जो प्रावधान किए गए उनसे दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली, वे पिछड़ी जातियों के राजनीतिक नेता थे और उनके हितों का प्रतिनिधित्व करते थे। दो, जब उन्होंने हिन्दू कोड बिल तैयार किया तब तक उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि वे हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाएंगे। उसके बाद भी उन्होंने कठोर परिश्रम से ऐसे विधेयक का मसविदा तैयार किया, जिससे हिन्दू महिलाओं को लाभ होता और उनमें से भी ऊँची जातियों / वर्गों की महिलाओं को, जिनके परिवार के सदस्यों के पास संपत्ति होती। आंबेडकर को केवल किसी विशेष वर्ग या जाति की महिलाओं के हितों की चिंता नहीं थी। वे सभी जातियों व वर्गों की महिलाओं के हितों का संरक्षण चाहते थे।

इस तरह यह साफ  है कि आंबेडकर ने उन्हें उपलब्ध हर मंच का इस्तेमाल लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए किया।

लैंगिक दृष्टिकोण

आंबेडकर का लैंगिक परिप्रेक्ष्य क्या था? वे जाति को किस प्रकार देखते थे? वे इन दोनों के बीच क्या संबंध पाते थे? अपने मौलिक शोधपत्र ‘कॉस्ट्स इन इंडिया’ (1916) में आंबेडकर ने यह बताया है कि भारतीय संदर्भ में विभिन्न समुदायों में वर्गीय अंतर किस प्रकार जाति में बदल गए। आंबेडकर जाति को एक ऐसा बंद वर्ग बताते हैं जिसका मुख्य लक्षण है जाति के अंदर ही विवाह। उनकी यह मान्यता थी कि सबसे पहले पुरोहित वर्ग ने स्वयं को बंद किया और अन्यों को बाहर कर दिया। फि र अन्य जातियों को भी ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया।

वर्चस्वशाली जाति में यह कैसे सुनिश्चित किया जाता था कि जाति के बाहर विवाह न हों? आंबेडकर के अनुसार इसके लिए पर कड़ी रोक लगाई जाती थी और महिलाओं पर कठोर नजर और नियंत्रण रखा जाता था। आंबेडकर की यह राय थी कि जाति के निर्माण, संरक्षण और पुनरूत्पादन के लिए महिलाओं का इस्तेमाल किया जाता था। उनका कहना था कि नीची जातियों और महिलाओं के दमन के लिए जाति-लैंगिक गठजोड़ जिम्मेदार है और उसे उखाड़ फेकना आवश्यक है। इस प्रकार आंबेडकर जाति के साथ-साथ लैंगिक विभेद का भी उन्मूलन करना चाहते थे।

आंबेडकर की लैंगिक मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता के तीन स्त्रोत थे:

  1. ‘अछूत’बतौर जातिगत दमन का उनका व्यक्तिगत अनुभव- उन्हें भेदभाव के अनेक अपमानजनक अनुभवों से गुजरना पड़ा। सन् 1927 में महाड़ सत्याग्रह के दौरान महिलाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने अपनी व्यथा का वर्णन किया, ”तुम लोगों ने हम पुरूषों को जन्म दिया है। तुम लोग जानती हो कि कैसे अन्य लोग हमें जानवरों से भी कमतर मानते हैं। कुछ स्थानों पर लोग हमारी छाया भी उन पर नहीं पडऩे देना चाहते। दूसरे लोगों को अदालतों और कार्यालयों में सम्मानजनक कार्य मिलता है। परंतु तुम्हारे गर्भ से पैदा हुए पुत्रों को इतनी नीची नजरों से देखा जाता है कि हम पुलिस विभाग में चपरासी भी नहीं बन सकते। अगर हममें से कोई तुमसे पूछे कि तुमने हमें जन्म क्यों दिया तो तुम क्या उत्तर दोगी? हम लोगों और कायस्थ व अन्य ऊँची जातियों की महिलाओं द्वारा जन्म दिए गए संतानों में क्या फ र्क है….।’’आंबेडकर के लिए अपनी जाति के निचले दर्जे और पितृसत्तातमक व्यवस्था में महिलाओं की दासता के पारस्परिक संबंध को समझना कठिन नहीं था।
  2. सैद्धांतिक समझ- उनकी असाधारण बौद्धिक क्षमता और विद्वता और संवेदनशीलता के चलते यह स्वाभाविक था कि उन्होंने जातिगत पदक्रम के सबसे नीचे के पायदान पर खड़े व्यक्ति की दृष्टि से जाति और लैंगिक मुद्दों के बीच सैद्धांतिक अंत:संबंध को समझा और उसकी व्याख्या की। अपने इस विश्लेषण को आंबेडकर ने अपने शोधपत्र ‘कॉस्टस इन इंडिया’में प्रस्तुत किया जिसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं।
  3. मैदानी स्तर पर काम करने वाले महिला संगठनों का उनका नेतृत्व और उसका उनपर प्रभाव- आंबेडकर के नेतृत्व में चले महिला आंदोलन के तीन चरण थे। अ.  सन् 1920 के दशक के अंत में आंदोलनों में पुरूषों के साथ महिलाओं की भी भागीदारी : इनमें शामिल थे विभिन्न मंदिर प्रवेश आंदोलन जिनमें महिलाओं ने उत्साहपूर्वक पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। ब. 1930 के दशक में महिलाओं के स्वायत्त संगठन: जनांदोलनों में भाग लेने का अनुभव हासिल करने के बाद महिलााओं को अपने अलग संगठन बनाने की आवश्यकता महसूस हुई जिससे उन्हें अपनी आवाज उठाने का मंच मिल सके। स.  सन् 1940 के दशक में महिलाओं के राजनीतिक संगठन: इनमें शामिल थी ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेस महिला फेडरेशन जिसके देशभर में विभिन्न स्थानों पर सम्मेलन हुए जिनमें आंबेडकर के नेतृत्व में कई संकल्प पारित किए गए।

आंबेडकर के भाषणों और उनके विचारों का महिलाओं पर काफी प्रभाव पड़ा। विशेषकर 1927 के महाड़ आंदोलन के दौरान उनके भाषणों से नीची जाति की महिलाओं के जीवन मे अभूतपूर्व परिवर्तन आया। उन्होंने महिलाओं को यह सलाह दी कि वे ऐसे कपड़े और गहने न पहनें जिनसे अछूत के रूप में उनकी पहचान हो सके, इससे महिलाओं में साहस का संचार हुआ और उन्होंने अलग ढंग से साड़ी बांधना शुरू कर दिया।

जब आंबेडकर ने 1935 में यह घोषणा की कि वे अपना धर्म बदलेंगे तब महिलाओं ने अनेक बैठकें आयोजित कर उन्हें अपना समर्थन दिया। महिलाओं ने उनसे अपील की कि वे उन्हें ऐसे किसी धर्म में न ले जाएं जो उनपर पर्दा प्रथा लाद दे।

सन् 1938 में अपने एक भाषण में उन्होंने कहा कि एक महिला एक व्यक्ति भी है और इस नाते उसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्राप्त है। उसी वर्ष एक अन्य भाषण में उन्होंने महिलाओं से कम बच्चे पैदा करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा ”अगर बच्चे कम होंगे तो महिलाएं उन्हें पालने-पोसने के कठिन श्रम से बच जाएंगी और अपनी ऊर्जा व ताकत का इस्तेमाल अन्य कार्यों के लिए कर सकेंगी।’’

जनांदोलनों का नेतृत्व करते हुए भी आंबेडकर जमीनी हकीकत से दूर नहीं हुए। उनके अनुरोध पर उनकी महिला अनुयायियों ने कम खर्चीली शादियां करने का आंदोलन चलाया। महिलाएं इस बात से भी सहमत हुईं कि लड़कियों की शादी कम उम्र में नहीं होनी चाहिए और अंतरजातीय विवाह होने चाहिए। जिन महिलाओं को आंबेडकर ने नेतृत्व दिया वे तो उनसे प्रभावित हुईं ही,आंबेडकर भी उनसे प्रभावित हुए बगैर न रह सके। लैंगिक मुद्दों के प्रति उनकी संवेदनशीलता का मुख्य स्त्रोत यही महिलाएं थी।

निष्कर्ष

आंबेडकर का हिन्दू समाज का विश्लेषण इस प्रकार है:-

  1. यह मूलत: जाति व ऊँच-नीच पर आधारित समाज है जिसमें विभिन्न जातियां सम्मान के बढते क्रम और तिरस्कार के घटते क्रम में श्रेणीबद्ध हैं।
  2. यह महिलाओं की लैंगिकता, उनकी प्रजनन क्षमता व श्रम के नियंत्रण पर आधारित है।
  3. मनु के धर्म के दो स्तंभों वर्णाश्रम धर्म और पतिव्रत धर्म पर यह जातिगत-लैंगिक गठजोड़ खड़ा है। बिना एक से छुटकारा पाए हम दूसरे से छुटकारा नहीं पा सकते।

आंबेडकर की इस समझ और उस पर उनकी भावनात्मक और बौद्धिक प्रतिक्रिया ने महिलाओं और दमितों को मुक्ति दिलाने के उनके मिशन का पथप्रदर्शन किया।

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

ललिता धारा

ललिता धारा मुंबई के डॉ आंबेडकर कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स के सांख्यिकी विभाग की अध्यक्ष रही हैं। उन्होंने कई शोधपूर्ण पुस्तकों का लेखन किया है, जिनमें 'फुलेज एंड विमेंस क्वेश्चन', 'भारत रत्न डॉ बाबासाहेब आंबेडकर एंड विमेंस क्वेश्चन', 'छत्रपति शाहू एंड विमेंस क्वेश्चन', 'पेरियार एंड विमेंस क्वेश्चन' व 'लोहिया एंड वीमेनस क्वेश्चन' शामिल हैं। इसके अतिरिक्‍त सावित्रीबाई फुले के पहले काव्य संग्रह का उनका अनुवाद भी "काव्य फुले" शीर्षक से प्रकाशित है।

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