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डॉ. आंबेडकर : एक अभावुक इतिहासविद्

आंबेडकर की इतिहास-पद्धति यदि आज भी प्रासंगिक और आर्कषक है तो वह इसलिए क्योंकि उन्होंने कल्पना और फंतासी, कयास व संभावना और विश्वास करने योग्य वृतांत व बाल की खाल निकालने के बीच के महत्वपूर्ण अंतर पर प्रकाश डाला

डा बी. आर. आंबेडकर

इस शोध प्रबंध में मेरी स्थापनाओं में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिनके बारे में पाठकों से मेरी यह अपेक्षा हो कि वे उसे  आंख बंद कर स्वीकार कर लें। मैंने कम से कम यह तो साबित किया ही है कि जो कुछ भी मैं कह रहा हूं, उसमें संभाव्यता का प्राबल्य है। यह कहना कि संभाव्यता का प्राबाल्य किसी वैध निर्णय पर पहुंचने का पर्याप्त आधार नहीं है, अनावश्यक हैमैं इतना अभिमानी नहीं हूं कि मैं यह दावा करूं कि मेरी स्थापना अंतिम हैअगर किसी स्थापना की वैधता की कसौटी यह है कि वह तथ्यों से मेल खाए, उनकी व्याख्या करे और उन्हें वह अर्थ दे, जो उस स्थापना की अनुपस्थिति में संभव न हो, तो मेरे आलोचकों को इस पर विचार करना चाहिए कि मेरी स्थापनाएं व्यावहारिक है या नहीं और इसलिए कम से कम आज के लिए वैध हैं या नहीं। मैं अपने आलोचकों से निष्पक्ष व पूर्वाग्रहमुक्त आंकलन से अधिक कुछ नहीं चाहता।

बी.आर. आंबेडकर, ‘द अनटचेबिल्स’, 1948, भूमिका

 

यह लेख, भारत में शिक्षित और कार्यरत पेशेवर इतिहासविद के परिप्रेक्ष्य से, इतिहास को देखने के आंबेडकर के तरीके पर केंद्रित है। मैं यह मान कर चल रहा हूँ अब तक भारतीय इतिहासविदों ने राजनीति को इतिहास के दृष्टिकोण से देखने-समझने के आंबेडकर के प्रयास को, उनकी असाधारण मेधा की विरासत के भाग के रूप में स्वीकार नहीं किया है. मुझे याद नहीं कि सन 1980 के दशक में, जब मैं दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के इतिहास अध्ययन केंद्र – जो कि देश में इतिहास में शोध का सर्वश्रेष्ठ माना जाता है – में पढ़ रहा था, तब मेरे किसी भी सम्मानित मार्क्सवादी प्रोफेसर ने आंबेडकर का इतिहासविद के रूप में कभी हवाला दिया हो. और ना ही मैंने कभी भारत के किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में आंबेडकर को जवाहरलाल नेहरु की तरह इतिहासविद के रूप में याद किये जाते देखा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग, जहाँ सन 2009 से मैं इतिहास के स्नातकोत्तर और शोधरत विद्यार्थियों को पढ़ाता आ रहा हूँ, में भी इतिहासविद के रूप में आंबेडकर को कोई मान्यता नहीं दी जाती। यह इस तथ्य के बावजूद कि भारतीय जाति व्यवस्था के इतिहास की उनकी विवेचना अनूठी है।

इस स्थिति के कई कारण हैं। पहला, सन 1980 और 1990 के दशक में सबाल्टर्न अध्ययन की शुरुआत हो जाने के बावजूद, भारत में अब तक जाति और अछूत प्रथा के सम्बंधित मुद्दों को भारतीय इतिहास लेखन में उचित स्थान नहीं मिल सका है। भारत में जाति के सम्बन्ध में अध्ययन, सामान्यतः, समाजशास्त्री और मानवशास्त्री करते आये हैं। दूसरे, भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में इतिहास लेखन की कार्यपद्धति को यूरोप-केंद्रित सन्दर्भों में पढ़ाया जाता है। उनके कार्यपद्धति और सैद्धांतिक पाठ्यक्रमों में इतिहास लेखन के जिन मॉडलों की चर्चा होती है वे सब पश्चिमी होते हैं यथा व्हिग, उपयोगितावादी, मार्क्सवादी, प्रशियाई, एनाल, संरचनावादी, उत्तर-संरचनावादी, उत्तर-आधुनिक इत्यादि। ऐसा नहीं है कि यह ज्ञान व्यर्थ है, परन्तु इसमें आधुनिक भारतीय चिंतकों जैसे फुले, आंबेडकर और पेरियार के इतिहास अध्ययन के तरीके के लिए कोई जगह नहीं बचती। भारत में इतिहास के शिक्षक जब भी ‘हेर्मेनेयुटिक्स’ (ग्रंथों की व्याख्या) की बात करते हैं, तब वे आरजी कोल्लिंगवुड या विलियम डिल्थी या मार्टिन हय्दिगा की बात तो करते हैं, परन्तु भारत की आधुनिक  ‘हेर्मेनेयुटिक्स’ परंपरा की नहीं, जो कम से कम उन्नीसवीं सदी में जोतिबा फुले तक जाती है।

अछूतों को मंदिरों में प्रवेश अधिकार के लिए नासिक के कलाराम मंदिर में प्रदर्शन का नेतृत्व करते आंबेडकर

यह लेख इस असुंतलन को दूर करने और जाति व अन्य सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर आंबेडकर के लेखन की विपुल व्याख्यात्मक संभावनाओं की ओर ध्यान खींचने का प्रयास है। यह लेख इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि भारत में जाति व्यवस्था के सैद्धांतिक आधार और उसके ढांचे और अछूत प्रथा की समस्या पर विचार करते समय, आंबेडकर ने विखंडन की एक नयी रचनात्मक कार्यपद्धति का विकास किया। इसके बहुत बाद, सन 1945 के आसपास, मिशेल फूको और जेक डेरिडा जैसे मार्क्सवाद-विरोधी इतिहासविदों द्वारा विकसित विखंडन की पद्धति और उत्तर-आधुनिकतावादी आत्मनिष्ठावाद और सापेक्षवाद ने इतिहासलेखन की प्रक्रिया को प्रभावित किया। सन 1950 से लेकर  सन 1970 के दशक तक, आंबेडकर पर विशेष ध्यान इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि इतिहास लेखन पर मार्क्सवाद और राष्ट्रवाद हावी थे। राष्ट्रवादियों के लिए राष्ट्र सबसे महत्वपूर्ण था और मार्क्सवादियों के लिए वर्ग। दोनों ही के पास भारतीय इतिहास में जाति की भूमिका और अंत्यज जातियों की विशिष्ट समस्याओं की ओर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं थी। सन 1980 के दशक तक, भारतीय समाजविज्ञानियों का एक प्रभावशाली तबका, जिसमें इतिहासविद शामिल थे, भाषाई, सांस्कृतिक और स्त्रीवादी मुद्दों में उलझ गया। इन परिस्थितियों में आंबेडकर को इतिहासविद के रूप में गंभीरता से लेने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता था।

राष्ट्रवादियों और मार्क्सवादियों ने की जाति की अनदेखी

एक इतिहासविद् के रूप में आंबेडकर को समझने के लिए उत्तर-औपनिवेशिक भारत के बौद्धिक वातावरण को समझना आवश्यक है। इस दौर में कई राष्ट्रवाद उभरे जो या तो औपनिवेशिक सत्ता के विरोधी थे या एक-दूसरे के। चूँकि ये विचारधारायें, अपने चरित्र और लक्ष्य के चलते, समाज को उसकी समग्रता में देखतीं थीं, इसलिए वे जाति के भारतीय समाज पर विघटनकारी प्रभाव और उससे जनित दमन को सामान्यतः नज़रंदाज़ करतीं रहीं। इसके अलावा, सन 1940 के दशक में, भारतीय इतिहाविद्, इतिहास को खोजने-परखने के तरीकों पर बहस-मुबाहिसे नहीं किया करते थे। उनकी कल्पनाशक्ति पर सरकारी अभिलेखागार और इतिहास लेखन की औपनिवेशिक कार्यप्रणाली हावी थे। औपनिवेशवादी और राष्ट्रवादी इतिहासविदों के लक्ष्य तो अलग-अलग थे परन्तु उनके काम करने का तरीका एस-सा था। अधिकांश भारतीय इतिहासविद् अपने अंग्रेज़ प्रोफेसरों द्वारा उन्हें सिखाए गए इतिहास-लेखन के सिद्धांतों से संतुष्ट थे। और ये अंग्रेज़ प्रोफेसर, व्हिग दृष्टिकोण से प्रभावित थे। विभिन्न भारतीय राष्ट्रवादी इतिहाविद्, उन्हीं सिद्धांतों के आधार पर इतिहास लेखन करते थे, जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन पश्चिमी इतिहासविदों  ने किया था। इसके अपवाद थे डीडी कौसांबी जैसे मार्क्सवादी इतिहासविद्, जिन्होंने बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में भारतीय इतिहास का मार्क्सवादी नज़रिए से अध्ययन और मैदानी कार्य किया। भारतीय मार्क्सवादियों ने निस्संदेह इतिहास को एक नए नज़रिए से देखने में हमारी मदद की परन्तु उनका जोर श्रमिकों को एक वर्ग के रूप में देखने पर था और उन्होंने जाति-आधारित अध्ययन न के बराबर किये।

सन 1940 के दशक में भारतीय इतिहास-लेखन का जाति, जनजाति व लिंग से जुड़े मुद्दों से कोई लेनादेना नहीं था। इन पर समाजशास्त्री विचार करते थे, जो इन्हें राजनीति से विलग कर देखते थे। संस्कृतिकरण के मॉडल का उदय भारतीय समाजशास्त्र से हुआ और इसमें भारतीयों की रोजाना के ज़िन्दगी में जातिगत रिश्तों की परस्पर विरोधाभासी प्रकृति को कम करके आँका गया।  इस पृष्ठभूमि में आंबेडकर की इतिहास की अवधारणा व उसके लेखन के संबंध में उनके अभिनव विचार, चकित कर देने वाले हैं। एक ऐसे दौर में, जब सर जदुनाथ सरकार जैसे भारतीय इतिहासविद् अपने लेखन में ऐतिहासिक किरदारों और घटनाओं के आख्यान से आगे नहीं बढ़ते थे, आंबेडकर ने इतिहास लेखन के उन पहलुओं पर विचार किया, जो आज हमारे दिमागों को झंझोड़ रहे हैं। सन 1940 में ही उन्होंने इतिहास की परिकल्पना, कथावाचन, विज्ञान और कला के एक ऐसे सम्मिश्रण के रूप में की, जिसमें इतिहासविद् की उर्वर व रचनात्मक कल्पनाशीलता एक नया रंग भर देती है। यह वह दौर था जब भारतीय विश्वविद्यालयों में इतिहास लेखन को एक अलग विषय की रूप में नहीं पढ़ाया जाता था। उस दौर में इतिहास, सरकारी अभिलेखागारों में बंद वह ज्ञान था, जिसे ढूँढ निकलकर लोगों के सामने पेशेवराना तरीके से प्रस्तुत किया जाना भर था। उनका यह सुझाव कि इतिहासविदों को हमेशा यह ध्यान में रखना चाहिए कि अपने पाठकों में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना उनका कार्य है, आज भी वैध है। यह तथ्य कि इतिहासविदों को अतीत की जानकारी के अपने स्त्रोतों का समालोचनात्मक अध्ययन करना चाहिए और तभी वे समाज के इतिहास को समझ सकते हैं, आंबेडकर के संपूर्ण लेखन में साफ़ झलकता है। आंबेडकर के मामले में ये स्त्रोत थे प्राचीन भारत के वे ग्रन्थ, जिहें ब्राह्मणों और बौद्धों ने लिखा था।  चूँकि इतिहासविद हमेशा एक तर्क देता है इसलिए वह अपने स्त्रोतों को केवल शुद्द सकारात्मकता से नहीं देख सकता क्योंकि इससे इतिहास, व्यक्ति- और घटना-केंद्रित बन जाता है और उन सन्दर्भों की व्याख्या नहीं करता, जिनमें या जिनसे ये व्यक्ति और घटनाएं जुडीं होती हैं।

आंबेडकर के लिए रस्साकशी

आज डॉ. आंबेडकर की विरासत एक अजीब से बौद्धिक व राजनीतिक परिवेश में फंसी प्रतीत हो रही है। जाति, कांग्रेस नेताओं के दलितों के प्रति दृष्टिकोण व हिंदू कोड बिल जैसे अन्य मसलों पर कांग्रेस से उनके मतभेदों के बावजूद, कांग्रेस नेताओं ने उनकी एक झूठी छवि का निर्माण किया और उन पर अपना ठप्पा लगा दिया। सन 2014 के आमचुनाव में मुंह की खाने के बाद, कांग्रेस, भारत की प्रमुख मध्यमार्गी-उदारवादी पार्टी के रूप में अपनी छवि को बनाए रखने के संघर्ष में प्राणपन से जुटी हुई है। वह किसी भी तरह से आंबेडकर को, मुख्यत: संवैधानिक विशेषज्ञ के रूप में, अपना साबित करने पर आमादा है। यह सही है कि आंबेडकर ने उत्तर-औपनिवेशिक काल में आधुनिक भारत के निर्माण के लिए नेहरु के साथ मिलकर काम किया, परन्तु इस कारण हम इन दोनों आधुनिकतावादियों के नज़रियों में भिन्नताओं को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। आंबेडकर की राजनीति और गाँधीवादी नैतिकता, जो कम से कम सन 1947, तक कांग्रेस की पथप्रदर्शक थी, के बीच मूलभूत अंतर थे। दूसरी ओर, अब भारत पर शासन कर रही हिंदुत्ववादी शक्तियां, आंबेडकर का इस्तेमाल अपने हितसाधन के लिए करना चाहती हैं। सन 1997 में दक्षिणपंथी पत्रकार अरूण शौरी ने आंबेडकर को एक ऐसा ब्रिटिश-समर्थक झूठा भगवान बताया था, जो आराधना के काबिल नहीं है। अब हिंदुत्ववादी शक्तियों ने अपना रंग बदल लिया है। अब भाजपा-आरएसएस, बाबासाहेब के करोड़ों दलित और शूद्र अनुयायियों का इस्तेमाल, हिंदू राष्ट्र के निर्माण के अपने मिशन को सफल बनाने के लिए करना चाहते हैं। परंतु इसके समानांतर, हिंदुत्ववादी रंग में रंगा भारतीय राज्य और उसके शैक्षणिक संस्थान, दलित विद्यार्थियों और कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करने व उन्हें समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग करने के अपने अभियान में जुटे हुए हैं। भाजपा का ताज़ा आंबेडकर प्रेम हमें बरबस ”मुंह में राम, बगल में छुरी’’ मुहावरे की याद दिला देता है। हिंदुत्ववादी विचारक यह अच्छी तरह से जानते हैं कि केवल मुसलमानों का दानवीकरण करने से हिंदू राष्ट्र नहीं बन सकेगा। आरएसएस के अहंकारी मुखिया द्वारा आरक्षण के संबंध में बिना सोचे-समझे की गई टिप्पणियां और उसके बाद सन 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार ने पार्टी को इस बात के लिए मजबूर कर दिया है कि वह आंबेडकर के प्रति अपने शत्रुता भाव पर पुनर्विचार करे। परन्तु सन 2017 में उत्तर प्रदेश में चुनावों में भाजपा की शानदार जीत और एक ‘योगी’ के मुख्यमंत्री बनने से, राज्य में दलित-विरोधी हिन्दुत्ववादी शक्तियों को बल मिला है। इसके बाद भी आरएसएस के लिए, हिन्दू राष्ट्र की उसकी परियोजना को सफल बनाने के लिए आंबेडकर पर कब्ज़ा जमाना ज़रूरी है। परन्तु आंबेडकर के व्यक्तित्व, विचारों और लेखन के चुनिंदा अंशों का इस्तेमाल कर उन्हें अपना बताने की ये कोशिशें, भारतीय इतिहास की आंबेडकर की आलोचनात्मक समझ से मेल नहीं खातीं। बाबासाहेब न तो कांग्रेस के हैं और ना ही भाजपा के।

अक्टूबर 1956 में नागपुर में आंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया

आंबेडकर पर कब्ज़ा जमाने की इन मुहिमों को समझने के लिए हमें बाबासाहेब की बहुआयामी व असाधारण मेधा की ओर लौटना होगा। अब तक उन्हें मुख्यत: भारतीय जाति व्यवस्था और संविधानवाद की राजनीति के विशेषज्ञ के रूप में और भारतीय अछूतों और नीची जातियों के बुद्धिजीवी के रूप में ही स्वीकार किया जाता रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये सारे पहलू उनके व्यापक विचारों का हिस्सा हैं परंतु मेरा तर्क यह है कि उनकी चमत्कारिक मेधा ने उन्हें केवल एक विचारक से आगे बढ़कर एक दार्शनिक बना दिया था। एक दार्शनिक के रूप में जिस ऊँचाई तक वे पहुंचे, उस ऊँचाई तक औपनिवेशिक और स्वतंत्र भारत में भी, शायद ही कोई भारतीय विद्वान पहुंचा हो। वे आधुनिकतावादी थे, उनकी आस्था ज्ञान के वैश्विक मूल्यों में थी और वे आजन्म सनातन हिंदू धर्म के कट्टर विरोधी रहे। इतिहास की उनकी समझ में रूमानियत, अंधविश्वासों और रहस्यवाद  के लिए कोई जगह नहीं थी। वे यह नहीं मानते थे कि मानव समाज और जाति और अछूत प्रथा जैसी उसकी घिनोनी परम्पराओं का निर्माता ईश्वर है। भारतीय इतिहास की उनकी विवेचना, गांधी के हिंदू वर्णाश्रम धर्म, पूर्व-आधुनिक आदर्श ग्राम व रामराज्य की अवधारणा के प्रति भावुकतापूर्ण आग्रह का ज़ोरदार खंडन करती थी। गांधी के ये तीनों मिथक, सवर्ण वर्चस्ववादियों को प्रिय थे। यही कारण है कि आंबेडकर पर एक उदारवादी हिंदू का ठप्पा लगाकर उन पर कब्ज़ा जमाने के कांग्रेस के प्रयास कभी सफल नहीं हो सकेंगे। आंबेडकर, भारतीय समाज और गांव को नीचे से देखते थे – दमित वर्गों के दृष्टिकोण से । गांधी व कांग्रेस के अन्य नेताओं की तरह वे विभिन्न जातियों के बीच मेल-मिलाप के पक्षधर नहीं थे। वे जाति के समूल उन्मूलन के पक्षधर थे। उदाहरण के लिए, गाँधी जाति व्यवस्था में सुधार लाना चाहते थे, वे उसके उन्मूलन के पक्ष में नहीं थे। इसके विपरीत, आंबेडकर जाति को ही  समाप्त करने के पक्षधर थे। गाँधी ऊपर से सुधार लाना चाहते थे, आंबेडकर नीचे से।  दोनों की भारतीय इतिहास की विवेचना, उनके राजनैतिक लक्ष्यों की तरह, भिन्न थी।

भारतीय आधुनिकता व आंबेडकर की सोच के उलझनपूर्ण पारस्परिक संबंधों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानोदय के वैश्विक और वैज्ञानिक मूल्यों से उनका जुड़ाव – जो अन्तर्द्वंद्वों, तर्कों व विवेक पर आधारित था – आंबेडकर को एक अद्वितीय ‘मिथक-विरोधी इतिहासविद्’ बनाता है और यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि यह 1947 के बाद, चुनिंदा भारतीय विश्वविद्यालयों में इतिहास के समालोचनात्मक अध्ययन की शुरूआत से बहुत पहले की बात है[i]। इतिहासविद व निबंधकार के रूप में आंबेडकर के लेखन की तुलना, वाल्टेयर, गेटे व गोर्की से की जा सकती है। वे इन तीनों से प्रभावित थी और उनका लेखन, हिंदू धर्म का इतना कटु आलोचक था कि जिन लोगों पर उन्होंने, उनके समय में दुर्लभ तार्किकता के साथ, तीक्ष्ण हमले किए थे, उन लोगों के वंशज आंबेडकर पर किसी भी तरह कब्ज़ा नहीं कर सकते। उनके लिए इतिहास एक ऐसा शिल्प था जिसका इस्तेमाल जातिगत विभेदों पर आधारित एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था को समाप्त करने के किया जाना था। चूंकि उनकी राजनीति, भारतीय इतिहास की उनकी भावुकता-मुक्त समझ पर आधारित थी, और उनकी यह समझ ही उनकी राजनीति का आधार थी, इसलिए इतिहास संबंधी उनके विचारों और पद्धतियों का पुनरावलोकन आवश्यक है, विशेषत: इसलिए क्योंकि वैश्वीकरण के इस युग में आम लोगों की इतिहास की समझ, गोभक्ति, जातिगत-अभिमान और दलित-विरोधी वैदिक पुनर्भूत राष्ट्रवाद[ii] के इर्द-गिर्द घूम रही है। ‘एनिहीलेशन ऑफ़ कास्ट’ और उनके अन्य अत्यंत तार्किक निबंध, आंबेडकर को प्रतिक्रांति की उस भारतीय परंपरा का वाहक बनाते हैं, जो सर्वव्यापी तो है परन्तु किसका अध्ययन-अध्यापन नहीं किया जाता।

समकालीन राजनैतिक प्रश्नों से शुरुआत   

 इतिहासविद् के रूप में आंबेडकर के दृष्टिकोण को समझने के लिए, हजारों पृष्ठों में फैले उनके संपूर्ण वांग्मय का अध्ययन इस आलेख का विषय नहीं है, यद्यपि इस तरह का प्रयास भविष्य में लाभप्रद साबित हो सकता है। मेरे हाथों में उनकी एक पुस्तक है – ‘द अनटचेबिल्स’ –  जिसकी भूमिका आंबेडकर की इतिहास पद्धति पर एक संक्षिप्त टिप्पणी है – उस पद्धति पर, जिसके सहारे आंबेडकर ने जाति के पौराणिक अभिज्ञान, जो कि हिन्दू धर्म का आधार है, को विखंडित किया।[iii]

‘द अनटचेबिल्स’ में शामिल लेखों और उसकी भूमिका में इतिहास-पद्धति का विवरण हमें आंबेडकर के इतिहास संबंधी विचारों की कम से कम तीन महत्वपूर्ण विशेषताओं से परिचित करवाता है। पहली, हमें आरजी कोलिंगवुड के इतिहास संबंधी विचारों की याद आती है। बाबासाहेब की इतिहास की पड़ताल, सत्ता से सीधे जुड़े तत्कालीन राजनीतिक प्रश्नों से शुरू होती है। इतिहास को राजनीतिक दृष्टिकोण से समझने का उनका प्रयास, उन्हें मार्क्स, अंतोनियो ग्राम्सी व पॉल थोम्पसन जैसे अध्येताओं की श्रेणी में रख देता है, जिनके लिए इतिहास का अध्ययन – अर्थात कारणों, परिणामों और विमर्श की पड़ताल – शासक वर्गों द्वारा सत्ता के उपयोग और उसे वैधता प्रदान करने के सत्ताधारियों के प्रयासों से सीधा जुड़ा हुआ था। इतिहास के प्रति यह दृष्टिकोण, सामाजिक विरोधाभासों से उत्पन्न तनावों और इन विरोधाभासों के समाधान पर केन्द्रित था। मूल राजनीतिक प्रश्न और उनसे संबद्ध विषयों पर लोगों की राय, आंबेडकर के अध्ययन के विषय थे और इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए उन्होंने कठिन प्रयास किए।

दूसरी – और इस मामले में आंबेडकर अपने समकालीन और इतिहास लेखन की एनाल पद्धति के प्रतिपादक मार्क ब्लाच के नजदीक हैं – वे इतिहास की विवेचना के लिए परिणाम से कारण की ओर बढ़ते हैं। उनका इतिहास लेखन अंत:विषय था। उसका लक्ष्य भारतीय समाज के वर्तमान और उसके संभावित भविष्य के संबंध में आम धारणाओं को सही या गलत साबित करना था। उनके शोध का लक्ष्य यह दिखाना था कि किस तरह वर्तमान, भूत का उत्पाद है। उनके लिए इतिहास केवल गुजरे हुए कल का अध्ययन या मनोरंजन का साधन नहीं था। राष्ट्र अथवा समुदाय की पौराणिक कथाओं के लिए उनके लेखन में कोई स्थान नहीं था। वे भारतीय समाज को संरचनात्मक दृष्टि से देखते थे, जिसमें जाति ‘लोंग ड्युरी’ (एक दीर्घकालिक ऐतिहासिक परिघटना) थी[iv]। जाति, भारतीय समाज का आधार और उसकी अधिरचना दोनों है और उत्पादन व सत्ता दोनों संबंधों में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उनके लेखों से यह पता चलता है कि उन्हें भूतकाल और वर्तमानकाल के पारस्परिक प्रभावों की कितनी गहरी समझ थी। यही एक अच्छे इतिहासविद् की निशानी होती है। वह अपने युग की राजनीति के प्रति हमेशा सजग और सचेत रहता है।

तीसरी, उनके लेख उनकी उर्वर कल्पनाशक्ति और भाषा पर उनके अद्भुत अधिकार को प्रतिबिंबित करते हैं। ये दोनों गुण किसी भी समाजविज्ञानी के लिए आवश्यक हैं। यहां यह महत्वपूर्ण है कि न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में पीएचडी की अपनी पढ़ाई के दौरान, आंबेडकर ने इतिहास और समाजशास्त्र का अनुषांगिक विषय के तौर पर अध्ययन किया था। उनकी पैनी लेखनी से यह साबित होता है कि उन्होंने एक वकील के प्रतिपरीक्षण कौशल का इस्तेमाल, इतिहास और परंपरा के स्त्रोतों को परखने और त्रुटिहीन निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए किया, जिनसे असहमत होना कठिन है । इनमें से कुछ निष्कर्ष आज हमें पुराने अथवा अतिश्योक्तिपूर्ण जान पड़ सकते हैं परंतु इससे इन निष्कर्षों पर पहुंचने के लिए जिस व्याख्यात्मक पद्धति का उपयोग किया गया, उसका महत्व कम नहीं हो जाता।

चूंकि आंबेडकर का भारतीय समाज के इतिहास का अध्ययन, जाति और इस कारण हिन्दू धर्म, के उनके नकार से जुड़ा हुआ था, इसलिए भूमिका की शुरूआत में ही वे सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं और उस राजनीतिक प्रश्न को उठाते हैं, जिसने उन्हें इतिहास में शोध करने के लिए प्रेरित किया। भूमिका से यह पता चलता है कि आंबेडकर हिन्दू धर्म के लिए वही थे जो मार्क्स पूंजीवाद के लिए। मार्क्स के लिए पूंजीवाद की कोई भी अर्थपूर्ण व्याख्या, पूंजीवाद से जनित उत्पादन संबंधों की व्याख्या के बिना संभव नहीं थी। इसी तरह, आंबेडकर यह मानते थे कि जाति ही उन सत्ता संबंधों के मूल में है, जो सनातन हिन्दू धर्म की जीवनी शक्ति हैं।  भूमिका में वे कहते हैं, ”हिन्दू सभ्यता’’ मानवता का दमन करने और उसे दास बनाने की एक धूर्ततापूर्ण युक्ति है। यह, दरअसल, एक कलंक है’’।

हिन्दुओं ने कभी अपनी सभ्यता, अर्थात वर्ण-जाति व्यवस्था के उदय का तार्किकतापूर्ण अध्ययन नहीं किया। इसलिए पहला प्रश्न यह है कि हिन्दुओं ने अपनी तथाकथित सभ्यता का वैज्ञानिक अनुसंधान क्यों नहीं किया? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हिन्दुओं ने कभी भी जाति व्यवस्था और अछूत प्रथा को ”शर्मनाक या अनुचित’’ नहीं माना। आंबेडकर लिखते हैं, ”हिन्दुओं ने कभी उन पर पश्चाताप करने या उनके उदय व विकास की पड़ताल करने की कोशिश नहीं की’’। उन्होंने लिखा कि ”हर हिन्दू को यह सिखाया जाता है कि उसकी सभ्यता न केवल सबसे प्राचीन है बल्कि कई अर्थों में अनूठी है.…कोई हिन्दू इन दावों को दोहराते नहीं थकता…हिन्दू सभ्यता की पवित्रता, श्रेष्ठता और विवेकशीलता के संबंध में ये झूठे विश्वास, हिन्दू अध्येताओं के अजीब सामाजिक मनोविज्ञान के कारण है’’। आम्बेडकर का यह कथन, हमें अलबरूनी ने हिन्दुओं के संबंध में अपनी पुस्तक ”इंडिया’’ में जो कहा है, उसकी याद दिलाता है। यह सामाजिक मनोविज्ञान, सदियों से भारत में ज्ञान पर ब्राह्मणों के वर्चस्व का नतीजा था। इस वर्चस्व ने उन्हें भारतीय समाज की धार्मिक पुस्तकों और कर्मकांडों पर एकाधिकार दिया। इस एकाधिकार को ब्रिटिश औपनिवेशिकों ने और मजबूती दी।

ज्ञानी हाँ, बौद्धिक नहीं

इसमें कोई संदेह नहीं कि ब्राह्मण ज्ञानी थे परंतु वे असली अर्थों में बौद्धिक नहीं थे। इन ज्ञानियों के अपने ही इतिहास के प्रति अज्ञान को समझने के लिए आंबेडकर ने तुलनात्मक इतिहास और विचारों के इतिहास का अध्ययन किया। ”आज’’, उन्होंने 1948 में लिखा, ”सारा ज्ञान ब्राह्मणों तक सीमित है परंतु दुर्भाग्यवश किसी ब्राह्मण अध्येता ने वाल्टेयर की भूमिका नहीं निभाई, जिसमें अपने ही कैथोलिक चर्च के सिद्धांतों का विरोध करने की बौद्धिक ईमानदारी थी और ना ही ऐसे ब्राह्मण अध्येता के भविष्य में कभी उभरने की संभावना है। यह तथ्य कि वे एक भी वाल्टेयर नहीं दे सके, ब्राह्मणों की विद्वता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है।’’ किसी भी समाज में किसी बौद्धिक के उभरने और समाज का सम्मान हासिल करने के लिए कुछ अनिवार्य ऐतिहासिक स्थितियां होनी चाहिए। ये स्थितियां भारतीय इतिहास में अनुपस्थित थीं। समालोचनात्मक आत्मचिंतन, विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों में ही संभव हो सकता है और अपने पारंपरिक ज्ञान पर आत्ममुग्ध ब्राह्मण, ऐसा कोई भी प्रयास करने में अक्षम थे। इसलिए ब्राह्मण विद्वान ”केवल ज्ञानी थे, बौद्धिक नहीं’’, यद्यपि औपनिवेशिक शासन में वे समाज सुधारक होने का दावा करते थे। ध्यान से देखने पर उनका यह दावा गलत सिद्ध होता है।

आरएसएस आंबेडकर को मिथक बनाने का प्रयास करती रही है जबकि उन्होंने हिन्दुत्व को गैर मिथकीय बनाने का प्रयास किया जिसे वे जातिवाद का जड़ कहते थे

आंबेडकर ने बौद्धिक शब्द का विस्तार से अर्थ समझाने के लिए यूरोप और वहां हुए पुनर्जागरण के इतिहास का सहारा लिया। ”एक ज्ञानी और बौद्धिक में जमीन-आसमान का अंतर होता है। ज्ञानी में वर्गीय चेतना होती है और वह अपने वर्ग के हितों की रक्षा के प्रति सचेत होता है। बौद्धिक एक पूर्णत: स्वतंत्र व्यक्ति होता है, जो अपने वर्ग के हित-अहित से ऊपर होता है। ब्राह्मण यदि एक भी वाल्टेयर पैदा नहीं कर सके तो उसका कारण यह है कि वे केवल ज्ञानी थे बौद्धिक नहीं’’। समालोचना के जरिये वस्तुनिष्ठ यथार्थ तक पहुँचने की उनकी क्षमता, समाज और इतिहास ले प्रति आंबेडकर के सुविज्ञ और प्रबुद्ध दृष्टिकोण का केंद्रीय तत्त्व है। उनका दर्शन में व्यक्तिगत के लिए कोई स्थान नहीं था। उन्होंने जाति का विरोध इसलिए नहीं किया क्योंकि वे महार थे बल्कि इसलिए किया क्योंकि वे प्रबुद्ध थे।

आंबेडकर के अनुसार, ब्राह्मणों और उनसे जुड़े तथाकथित अध्येताओं के अनौचित्यपूर्ण दावों को गलत सिद्ध करने का एक ही तरीका है और वह यह है कि उन दावों पर प्रश्न उठाए जाएं और इन प्रश्नों के उत्तर ”पुरानी चीजों को देखने के नए तरीके’’ का विकास कर ढूंढा जाए। निश्चय ही भारत में अछूत प्रथा से जन्मे प्रश्नों के उनके उत्तर, उनके ”इतिहास के शोध’’ का ”परिणाम’’ थे। आंबेडकर ने पूरी संजीदगी से जर्मन राजनेता, इतिहासविद्, दार्शनिक व कवि गेटे द्वारा प्रतिपादित वस्तुनिष्ठ इतिहास-लेखन के सिद्धांतों का पालन किया। गेटे के सिद्धांतों और उनके चिंतन से आंबेडकर परिचित थे। गेटे के अनुसार, इतिहासविद् का यह कर्तव्य है कि वह ”सच को झूठ से, निश्चित को अनिश्चित से और संदेहास्पद को अस्वीकार्य से अलग करे’’।

कल्पना और सहज बोध

गेटे ने इतिहासविद् को जूरी के सदस्य की तरह बताया और आंबेडकर ने इस रूपक को गंभीरता से लिया: ”हर जांचकर्ता को सबसे पहले स्वयं को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखना चाहिए जिसे जूरी का सदस्य नियुक्त किया गया हो। उसे सिर्फ यह विचार करना होता है कि किसी चीज को साबित करने के लिए पर्याप्त सुबूत मौजूद हैं या नहीं। इस आधार पर वह अपने निष्कर्ष पर पहुंचता है और अपना वोट देता है, फिर चाहे उसकी राय जूरी के अध्यक्ष से मेल खाती हो या नहीं”। गेटे से आंबेडकर ने प्रेरणा तो ग्रहण की परंतु उन्होंने गेटे को अपने पैरों की बेड़ी नहीं बनने दिया। वे इस संभावना से वाकिफ थे कि अतीत का अध्ययन करते समय हमें कई कडिय़ां गायब मिल सकती हैं। ऐसे मामलों में जहां ”प्रासंगिक व आवश्यक तत्व’’ व ”महत्वपूर्ण घटनाओं के पारस्परिक संबंध के प्रत्यक्ष प्रमाण’’ उपलब्ध न हों, इतिहासविद् को क्या करना चाहिए? क्या उसे तब तक के लिए अपना काम स्थगित कर देना चाहिए जब तक कि ”गुम कड़ी की खोज न कर ली जाए?’’ इस प्रश्न का आंबेडकर का उत्तर, अकादमिक क्षेत्र में बाल की खाल निकालने की प्रवृत्ति का वैध नकार है:

मेरी यह मान्यता है कि ऐसे मामलों में उसे अपनी कल्पनाशक्ति और सहजबोध का इस्तेमाल कर, तथ्यों की श्रृंखला की उन कडिय़ों को जोडऩे की इजाजत होनी चाहिए, जिन्हें अब तक खोजा नहीं जा सका है। यह भी जायज होगा कि यह दर्शा कर, कि जो तथ्य ज्ञात तथ्यों के आधार पर एक-दूसरे से नहीं जोड़े जा सकते, किस तरह जुड़़े हो सकते हैं, वह एक कामचलाऊ परिकल्पना प्रतिपादित करे।

आंबेडकर के अनुसार, कोई स्थापना ”इतिहास में शोध के सिद्धांतों’’ का उल्लंघन करती है या नहीं, यह पता लगाने के लिए प्रत्यक्ष व अनुमानों पर आधारित प्रमाणों के बीच अंतर पर अंतहीन बहस करने की बजाए हमें ”शुद्धत: अनुमानों पर आधारित’’ स्थापना को खारिज करना चाहिए। इस तरह, उनकी इतिहास पद्धति, रचनात्मक कल्पनाशीलता और फंतासी में अंतर करती थी। विशुद्ध कयासों और तार्किक संभाव्यता के बीच के महत्वपूर्ण अंतर ने उन्हें इतिहास के स्त्रोतों का विखंडन कर यह पता लगाने की प्रेरणा दी ”जो ग्रंथ छुपाते हैं’’ और ”भूतकाल के अवशेषों को इकट्ठा कर, उन्हें एक साथ जोड़कर, उनसे उनके जन्म की कहानी सुनने’’ का प्रयास करने की भी। इतिहासविद् का यह कार्य, आंबेडकर के शब्दों में:

उस पुरातत्वशास्त्री के सदृश है जो टूटे हुए पत्थरों से एक शहर का पुनर्निर्माण करता है या उस जीवाश्मविज्ञानी की तरह है, जो किसी लुप्त हो चुके जीव की बिखरी हुई हड्डियों और दांतों से उसे दुबारा जीवित करता है या एक चित्रकार की तरह है, जो क्षितिज की रेखाओं को पढ़कर और पहाड़ी की ढ़लान के चिह्नों को देखकर, चित्र बनाता है। इस अर्थ में यह पुस्तक, इतिहास से अधिक कलाकृति है…। कल्पना और परिकल्पनाएं, इस तरह के ग्रंथ का महत्वपूर्ण हिस्सा होती हैं, परंतु केवल इस आधार इस स्थापना की आलोचना नहीं की जा सकती क्योंकि अनुशासित कल्पनाशीलता के बगैर कोई वैज्ञानिक पड़ताल सफल नहीं हो सकती और परिकल्पनाएं, विज्ञान की आत्मा है।

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि आंबेडकर का क्रांतिकारी दर्शन, उन मूल स्त्रोतों के धैर्यपूर्ण, श्रमसाध्य व समालोचनात्मक अध्ययन पर आधारित था, जिन्हें उन्होंने जाति व्यवस्था और विशेषकर अछूत प्रथा की असलियत से लोगों को वाकिफ  कराने के लिए चुना था। उनके लेखों से यह साबित होता है कि शासक वर्गों/ जातियों के विमर्श का विखंडन, इतिहासविद् का मूल लक्ष्य है। अपनी स्थापनाओं को ”अंतिम’’ न बताकर और इतिहास की विवेचना पद्धति में विशुद्ध कयासों और जो बात सैद्धांतिक दृष्टि से संभव हो सकती है, उनके बीच अंतर को रेखांकित कर, आंबेडकर ने सामाजिक इतिहास के प्रति खुला दृष्टिकोण अपनाया। आंबेडकर उस युग में ऐसा करने वाले पहले इतिहासविद थे। यह वह दौर था, जब भारतीय इतिहासविद राष्ट्रवाद की विचारधारा और अतीत के युद्ध क्षेत्रों से आगे नहीं बढ़ते थे। आंबेडकर की इतिहास पद्धति यदि आज भी प्रासंगिक और आर्कषक है तो वह इसलिए क्योंकि उन्होंने कल्पना और फंतासी, कयास व संभावना और विश्वास करने योग्य वृतांत व बाल की खाल निकालने के बीच के महत्वपूर्ण राजनीतिक अंतर पर प्रकाश डाला। बतौर आधुनिकतावादी, वे चाहते थे कि तार्किक ज्ञान और एक नया समतावादी समाज, ना कि एक और मिथक, वर्चस्वशालियों के कुतर्कों का स्थान ले। अतः आंबेडकर के लिए भारतीय समाज की विचारधारा का विखंडन, अपने आप में लक्ष्य नहीं था। आंबेडकर के लिए किसी ग्रन्थ का समालोचनात्मक अध्ययन, 1945 के बाद से मार्क्सवाद-विरोधी अध्येताओं की तरह, साध्य नहीं, बल्कि राजनीतिक लक्ष्यों को पाने का साधन था। इतिहास का विखंडन, आंबेडकर के एक नए प्रगतिशील समाज के निर्माण के मिशन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। सत्ता का प्रश्न उनके लिए महत्वपूर्ण था और लेनिन व अन्य क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों की तरह वे भी सत्ता को संदेह या अविश्वास की दृष्टि से नहीं देखते थे, जो कि सन 1945 के बाद के उत्तर-आधुनिक दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण लक्षण बन गया था। वे अपने अनुयायियों से कहते थे कि वे पढ़ें, जो पढ़ें इसे गुने, तौलें और अतीत की तार्किक समालोचना के आधार पर जीवन जीने के एक नए तरीके का विकास करें।

आंबेडकर का युग वह युग था जब भारतीय इतिहासविद् ‘लीओपोल्ड  वॉन रांके’ की प्रशियन बेडिय़ों में जकड़े हुए थे और तथ्यवाद की पद्धतियां उनके संकीर्ण और कथित तौर कर अराजनीतिक मस्तिष्कों पर हावी थीं। समकालीन एवं ऐतिहासिक स्त्रोतों के समालोचनात्मक अध्ययन के आधार पर कल्पनाशील इतिहासविद् द्वारा इतिहास को विश्वसनीय, कलात्मक व वैज्ञानिक स्वरूप देने के आंबेडकर के इस प्रयास ने इतिहास लेखन के क्षेत्र में अनेक नए द्वार खोले। यह दु:खद है कि शायद अनजाने में या सुविधा के लिए, आंबेडकर को भारतीय विश्वविद्यालयों ने केवल एक ”दलित’’ बौद्धिक-दार्शनिक बना दिया है। सच तो यह है कि विखंडन के इस क्रन्तिकारी मिथक-विरोधी भारतीय प्रवर्तक को भारतीय इतिहासकारों द्वारा दशकों पहले गंभीरता से लिया जाना था। इससे इस देश, जहाँ राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पहचानें और अतीत में उनका प्रक्षेपण एक जूनून सा बन गया है, में इतिहास लेखन को एक नयी दिशा और लक्ष्य मिलता।

 

[i] डोरोथी एम फ्यूजैरा, ‘आर्यन्स, ज्यूज़, ब्राम्हिन्स: थियोराइजिंग एथोरिटी – मिथ्स ऑफ  आइडेन्टिटी’

[ii] पुनर्भूत राष्ट्रवाद से अर्थ है एक प्राचीन मिथकीय रूमानी राष्ट्र की खोज. यद्यपि कुछ अर्थों में सभी राष्ट्रवाद पुनर्भूत होते हैं तथापि रॉजर ग्रिफ्फिन के अनुसार, फासीवादी और नाज़ी राष्ट्रों में यह प्रवृत्ति अधिक दिखलाई देती है.

[iii] डॉ बीआर आंबेडकर, द अनटचेबिल्स, सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली, 2००8, (प्रथम संस्करण 1948)

[iv] ‘लोंग ड्युरी’ (एक दीर्घकालिक ऐतिहासिक परिघटना) की परिकल्पना का प्रतिपादन फ्रांसीसी अनाल इतिहासविदों ने किया था. इससे आशय भूगोल जैसे उन कारकों से है जो मानव इतिहास पर दीर्घकालिक प्रभाव डालते हैं, यद्यपि कुछ अध्येता इन कारकों में संस्कृति को भी सम्मलित करते हैं. फ़्रांसिसी इतिहासकार फरदेंड व्रुँदेल के अनुसार, लोंग ड्युरी में भूगोल, जनसांख्यिकी और अर्थव्यवस्था शामिल हैं परन्तु अध्येता यह भी कहते हैं कि मानसिकता अर्थात सांस्कृतिक दृष्टिकोण, जिनमें भारत के मामले में जाति भी शामिल है, भी इतिहास पर दीर्घकालिक प्रभाव डालती है.

 

यह आलेख पूर्व में फ़ारवर्ड प्रेस पत्रिका के अप्रैल 2016 के अंक में प्रकाशित हुआ था। यह मूल आलेख का परिवर्द्धित संस्करण है।


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लेखक के बारे में

अनिरूद्ध देशपांडे

डा. अनिरुद्ध देशपांडे दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। पूर्व नेहरू फेलो डा. देशपांडे की तीन किताबें प्रकाशित हैं: ‘द ब्रिटिश राज एंड इट्स आर्म्ड फोर्सेज’(2002), ‘ब्रिटिश मिलिट्री पालिसी इन इंडिया 1900-1945’(2005), क्लास,पावर एंड कांशसनेस इन इन्डियन सिनेमा एंड टेलीविजन(2009), कई शोध पत्र, आलेख और समीक्षाएं भी प्रकाशित हैं। वे हाल में ‘तीन मूर्ती’ के लिए ‘मोतीलाल नेहरू सेंटेनरी बायोग्राफी फेलो’ चयनित हुए हैं। उनकी एक किताब: ‘नैवल म्युटिनी एंड स्ट्रीट नेशनलिज्म’ प्राइमस बुक्स से शीघ्र प्रकाश्य है।

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